भगवान कण-कण में व्याप्त हैं। |
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिय धाइ ।
ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।
भगवान कण-कण में व्याप्त हैं और किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं. इसलिए, किसी का निरादर नहीं करना चाहिए. यह संभव है कि जिसका निरादर किया जा रहा है, वह भगवान का ही रूप हो. रहीम कहते हैं कि इस दुनिया में रहते हुए सभी से अच्छा व्यवहार करना चाहिए. किसी से मिलने पर उसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए, बल्कि उत्साह से मिलना चाहिए।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
भक्त भगवान् की जिस भाव से, जिस सम्बन्ध से, जिस प्रकार शरण लेता है, भगवान् भी उसे उसी भाव से, उसी सम्बन्ध से और उसी प्रकार से आश्रय देते हैं। जैसे भक्त उन्हें गुरु मानता है, तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं, पुत्र मानता है, तो वे श्रेष्ठ पुत्र बन जाते हैं, नौकर मानता है तो वे श्रेष्ठ नौकर बन जाते हैं। भक्त यदि भगवान् के बिना व्याकुल हो जाता है, तो भगवान् भी भक्त के बिना व्याकुल हो उठते हैं। एक कहानी याद आ रही है -
सुरेश एक बेरोजगार व्यक्ति था, एक एक रूपये की कीमत जैसे करोड़ों लग रही थी। इस उठापटक में था कि कहीं नौकरी लग जाए...
आज एक इंटरव्यू था लेकिन दूसरे शहर जाने के लिए जेब में सिर्फ दस रूपये थे... जबकि कम से कम दो सौ रुपयों की जरूरत थी।
सुरेश इकलौते इन्टरव्यू वाले कपड़े रात में धोकर पड़ोसी की प्रेस माँग के तैयार कर पहन अपने योग्यताओं की मोटी फाइल बगल में दबाकर एवं दो बिस्कुट खा के निकला।
सिर्फ ₹ 10/- होने की वजह से पैदल ही जैसे तैसे चिलचिलाती धूप में तरबतर, बस इस उम्मीद में स्टेंड पर पहुँचा कि शायद कोई पहचान वाला मिल जाए, जिससे सहायता लेकर इन्टरव्यू के स्थान तक पहुँच सकूँ।
काफी देर खड़े रहने के बाद भी कोई नहीं दिखा मन में घबराहट और मायूसी थी, क्या करूँगा अब कैसे पहुचूॅंगा ?
सुरेश पास के मंदिर पर जा पहुंचा... दर्शन कर सीढ़ियों पर बैठा था। उसने देखा कि पास में ही एक फकीर बैठा था... उसके कटोरे में मेरी जेब और बैंक एकाउंट से भी ज्यादा पैसे पड़े थे !!
वह फकीर मेरी नजरें और हालात समझ के बोला, "कुछ मदद चाहिए क्या ?"
सुरेश बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोला , "आप क्या मदद करोगे ?"
वह मुस्कुराकर बोला : चाहो तो मेरे पूरे पैसे रख लो !
सुरेश चौंक गया, उसे कैसे पता मेरी जरूरत ?... मैनें कहा "क्यों ...?
"शायद आपको जरूरत है" वो गंभीरता से बोला।
"हाँ है तो पर तुम्हारा क्या , तुम तो दिन भर माँग के कमाते हो ?" मैने उसका पक्ष रखते हुए कहा !
वो हँसता हुआ बोला , "मैं नहीं माँगता साहब ! लोग डाल जाते हैं मेरे कटोरे में पुण्य कमाने के लिए.... मैं तो फकीर हूँ, मुझे इनका कोई मोह नहीं... मुझे सिर्फ भूख लगती है वो भी एक टाइम... और कुछ दवाइयाँ. बस... मैं तो खुद ये सारे पैसे मंदिर की पेटी में डाल देता हूँ.. "वो सहज था कहते कहते !
सुरेश हैरानी से पूछा , "फिर यहाँ बैठते क्यों हो..?"
"जरूरतमंदों की मदद करने ! !!" कहते हुए वो मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
सुरेश उसका मुँह देखता रह गया...
उसने दो सौ रुपए मेरे हाथ पर रख दिए और बोला, जब हो तब लौटा देना !
भगवान श्री कृष्ण जी गीता में कहा है कि -
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।
"सुरेश उसका शुक्रिया जताता हुआ, वहां से अपने गंतव्य तक पहुंचा जहां इंटरव्यू हुआ और सलेक्शन भी.... सुरेश खुशी-खुशी वापस आया सोचा उस फकीर को धन्यवाद दे दूं ,"
सुरेश मंदिर पहुंचा तो बाहर सीढ़ियों पर भीड़ लगी थी...
सुरेश घुस के अंदर पहुंचा देखा वही फकीर मरा पड़ा था"?
सुरेश भौचक्का रह गया ! दूसरों से पूछा यह कैसे हुआ ?
"पता चला वो किसी बीमारी से परेशान था, सिर्फ दवाइयों पर जिंदा था आज उसके पास दवाइयां नहीं थी और न उन्हें खरीदने के पैसे !
"सुरेश अवाक सा उस फकीर हो देख रहा था ! अपनी दवाइयों के पैसे वो मुझे दे गया था... जिन पैसों पे उसकी जिंदगी का दारोमदार था, उन पैसों से मेरी जिंदगी बना दी थी....!
भीड़ में से कोई बोला ,अच्छा हुआ मर गया, ये भिखारी भी साले बोझ होते है... कोई काम के नहीं !
सुरेश की आंखें डबडबा आयी... "वह भिखारी कहां था, वो तो मेरे लिए भगवान ही था नेकी का फरिश्ता. मेरा भगवान !"
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।।
जब हम संसार में कठिनाइयों का सामना करे, तब हमें शोक या इन पर चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इन घटनाओं को भगवान की कृपा के रूप में देखना चाहिए।" यदि हमारा निजी स्वार्थ किसी भी प्रकार से कहीं अन्यत्र या भगवान के अलावा मन में किसी अन्य को प्रश्रय देता है तब इसको समझाने का सरल उपाय सर्वत्र सभी पदार्थों और समस्त जीवों में भगवान को देखना है। यह अभ्यास का चरण है जो धीरे-धीरे पूर्णता की ओर ले जाता है
ना जानें केहि रुप में नारायण मिलि जाइ।
मित्रों हममे से कोई नहीं जानता कि भगवान कौन है और कहां है? किसने देखा है भगवान को ? बस इसी तरह मिल जाते हैं !
तुलसीदास जी लिखते है कि -
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
तहँ राखइ जननी अरगाई ॥
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं, मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है।
जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू।
जिसको जिस चीज से सच्चा प्रेम होता है उसे वह चीज अवश्य मिल जाती है। यानी सच्चे मन से चाही गई वस्तु अवश्य प्राप्त होती है।
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