दीपावली पर्व निर्णय 2024

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Deepawali parv 2024
Deepawali parv 2024


अथ दीपावलीपर्वनिर्णयः

दीपावली ३० , ३१ अक्टूबर तथा १ नवम्बर को तीन दिन तक है। परन्तुलक्ष्मी पूजन ३१ अक्टूबर को ही शास्त्र सम्मत है। ऐसा क्यों जानने के लिए सम्पूर्ण लेख को पढ़े तो संशय का निवारण हो जायेगा।

अनादिकाल से प्रवर्तमान भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता मे पर्व तथा व्रत का विशिष्ट महत्त्व शास्त्रों मे प्रतिपादित है। इनपर्वों के माध्यम से समस्त जनमानस आधिदैविक ,आधिभौतिक , आध्यात्मिक दुःखों से निवृत्त होकर आनन्द का अनुभव करता है। इसलिए अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ समस्त जनसमुदाय इन पर्वों तथा व्रतों को मनाता है। इन्हीं मे दीपावली पर्व भी एक है। इस वर्ष ( वैक्रमाब्द २०८१ तदनु सन् 2024 ) मे दीपावली पर्व मे लक्ष्मी पूजन को लेकर अनेक भ्रान्तियॉ उत्पन्न हो गई है। दिक्पञ्चाङ्ग तथा हृषीकेश महावीर इत्यादि अन्य पञ्चाङ्गों के तिथिमान को लेकर यह भ्रम उत्पन्न हुआ हैं । जिसके कारण कुछ विद्वानों ने ३१ अक्टूबर दिन गुरुवार तथा कुछ विद्वानों ने १ नवम्बर दिन शुक्रवार को अपना निर्णय प्रस्तुत किया है। परन्तु विद्वानों मे एकमत के अभाव के कारण भ्रान्ति की स्थिति यथावत् बनी है। अब हम इस भ्रम के निवारण हेतु शास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर आप सभी महानुभावों समक्ष निर्णय प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। 

 किसी भी व्रत तथा पर्व का निर्णय ज्योतिष शास्त्र तथा धर्मशास्त्रों के आधार पर होता है। ज्योतिषशास्त्र एक प्रत्यक्ष शास्त्र है। क्योंकि सूर्य तथा चन्द्रमा इसके साक्षी होते है। जैसे चन्द्रग्रहण ‘, सूर्यग्रहण तथा तिथि के अनुसार चन्द्रमा का क्षीण होना तथा वृद्धि होना , इत्यादि समस्त स्थिति जनसामान्यों के द्वारा यथाकाल देखी जाती है। जैसा कि कहा गया है। 

अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवाद स्तेषु केवलम् । 

प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शास्त्रं चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिणौ ॥

ग्रहों की स्थिति के अनुसार तिथि, नक्षत्र , योग, करण, दिन ,मास तथा सम्वत्सर का निर्णय प्रदान करता है। तथा धर्मशास्त्र इन्हीं तिथि नक्षत्रों के आधार पर व्रत तथा पर्व के उत्सव का निर्णय प्रदान करता है। 

पञ्चाङ्गों मे तिथि ‘,वार ‘नक्षत्र, योग , तथा करण का निर्धारण सृष्टि के आदिकाल से ही भगवान् सूर्य के द्वारा प्रकट सूर्य सिद्धान्त नामक ग्रन्थ के गणितीय गणना के आधार पर होता रहा है। जिसका अनुसरण ज्योतिष शास्त्र के मूर्द्धन्य विद्वान् आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर इत्यादि विद्वानों ने किया है। और इसी गणितीय गणना के आधार पर सहस्राब्दियों शताब्दियों से सम्पूर्ण भारतवर्ष के विद्वानों द्वारा पञ्चाङ्ग का निर्माण किया जाता है। सदैव इसी के अनुसार समस्त पर्व तथा उत्सवों का निर्णय किया जाता रहा है। सन् १९६५ मे अमृतसर के अखिल भारतीय सर्ववेद शाखा सम्मेलन के सप्तम महाधिवेशन मे शक्तिधर शर्म्मा तथा प्रियव्रत शर्म्मा नामक दो विद्वान् भ्राताओँ सूर्य सिद्धान्त के खण्डन मे शास्त्रीयपञ्चाङ्ग मीमांसा नामक ग्रन्थ को लिखकर विद्वानों के सम्मुख प्रस्तुतकर अपने तथ्यों को रखा परन्तु सभा मे उपस्थित कोई भी विद्वान् उनके तथ्यों का खण्डन नहीं कर सका । तभी से दृक् पञ्चाङ्ग का प्रादुर्भाव हुआ । इनके समर्थकों का कहना है कि इसका खण्डन आजतक कोई भी विद्वान् नही कर सका । इस लिए यह हमे दृक् पञ्चाङ्ग ही मान्य है अन्य नहीं । इस तरह के मानने वालों मे प्रायः न तो पञ्चाङ्ग निर्माता हैं और न ही सूर्य सिद्धान्त के रहस्यवेत्ता हैं |

 यह तो उसी तरह से है। जैसे गौतमबुद्ध जब वेद का खण्डन करते हुए नास्तिकता का प्रचार कर रहे थे तो उस समय कोई भी विद्वान् उनकी विचारधारा का खण्डन नही किया तो क्या वेद असिद्ध हो गये। जो कि कालान्तर मे आचार्यपाद कुमारिलभट्ट ने बौद्धमत का खण्डन कर वेद को पुनः प्रतिष्ठित किया । 

 अथवा अनार्यसमाजी दयानन्द सरसवती ने महीधर उव्वट इत्यादि शास्त्रसम्मत वेदभाष्य का खण्डन कर मनमानी वेदभाष्य की रचना कर के समाज को अपने मूल सिद्धान्तों से भटकाया । तो क्या मूल सिद्धान्त असिद्ध हो गये । ऐसा नही है।

 रही बात खण्डन की तो जैसे किसी धनिक व्यक्ति के पास धन तो है परन्तु घर मे है। और वह व्यक्ति कुछ खरीदना चाहता है परन्तु वर्तमान स्थिति मे उसके पास न हो और कोई दरिद्र आकर कुछ पैसे दिखाए और कहे कि मै धनी हूं तुम तो दरिद्र हो क्योंकि तुम्हारे पास इस समय कुछ भी नही है तो इससे वह धनी व्यक्ति दरिद्र नहीं होगा । इसी प्रकार भारतीय पञ्चाङ्ग मीमांसा का खण्डन वर्तमान मे कोई नही कर पाया तो आदिकाल से प्रवर्तित सूर्य सिद्धान्त खण्डित हो गया । ऐसा नहीं है। हमे अपने सहस्राब्दियों से आचरित मूलभूतसिद्धान्तों के आधार पर ही चलना चाहिए । अतः हृषीकेश इत्यादि पञ्चाङ्गों को ही मानना न्यायसङ्गत है।

 इस वर्ष ३१ अक्टूबर को दिनमें ३ .१२ बजे के बाद अमावस्या तिथि प्रारम्भ होकर १ नवम्बर को सायं ५ १४ बजे तक है तथा सूर्यास्त ५ . ३२ बजे सायकाल है।

 किसी भी पर्व अथवा व्रत का निर्णय धर्मशास्त्र के आधार पर होता है।

 धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों मे श्रीकमलकरभट्ट का निर्णयसिन्धु तथा काशीनाथ उपाध्याय का धर्मसिंधु अतिप्राचीन काल से ही विद्वज्जनों मे अत्यन्त समादरणीय है। किसी भी धार्मिक कृत्यों मे इन्हीं दो ग्रन्थों के निर्णय ही अन्तिम निर्णय होते हैं । निर्णय सिन्धु मे मात्स्ये - दीपैर्नीराजनादत्र सैषा दीपावली स्मृता अर्थात् दीपों से देवताओं के निराजन के कारण यह दीपावली कहीजातीहै। यह दीपावली। तीन दिन तक होती है जैसा कि निर्णय सिन्धु मे कहा गया है। ज्योतिर्निबन्धे नारदोऽपि 

इषासितचतुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावपि । 

ऊर्जादौ स्वातिसंयुक्ते तदा दीपावली भवेत् ॥ 

कुर्यात् सलग्नमेतच्च दीपोत्सव दिनत्रयम्

 “ अर्थात् ज्योतिर्निबन्ध मे नारद का वचन है कि आश्विनकृष्णपक्ष की चतुर्दशी , अमावस्या तिथि तथा स्वातिनक्षत्र युक्त कार्तिकमास के आदि मे दीपवली होती है उससे संलग्न तीन दिन तक दीपवली करें ( यहां पर दक्षिण भारत मे प्रसिद्ध महीनों के आधार पर कहा गया है क्योंकि वहां पर अमावस्या तिथि को मास पूर्ण होता है तथा शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ होता है। अत: आश्विन कहा है। उत्तर भारत मे तो सम्पूर्ण कार्तिकमास ही है) अतः ३०,३१, अक्टूबर तथा १ नवम्बर को तीन दिन दीपावली है। यहाँ तक तो निर्विवाद है। अब प्रश्न यह आता है कि लक्ष्मीपूजन कब करें । तो सर्वप्रथम हम धर्मसिन्धु के वचनों को उद्धृत करते हैं। 

अथ अमायां दीपदानलक्ष्मीपूजनादि

 अथाश्विनामावास्यायां प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे लक्ष्मी पूजनादि विहितम् । तत्र सूर्योदय व्याप्यास्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनि दर्शे नास्ति सन्देहः । 

 ( आश्विन् की अमावस्या मे अर्थात् कार्त्तिक की अमावस्या में प्रात:अभ्यङ्गस्नान तथा प्रदोष मे

लक्ष्मीपूजन विहित है। इसमें सूर्योदय से सूर्यास्त के बाद एक घड़ी से भी अधिक रात्रि में रहने वाली अमावस्या मे कोई सन्देह नही है। 

इसके बाद पुनः कहते हैं कि -

तथा च परदिने एव दिनद्वये वा प्रदोष व्याप्तौ परा । पूर्वत्रैव प्रदोष व्याप्तौ लक्ष्मी पूजादौ पूर्वा । अभ्यङ्गस्नानादौ परा ।

 दूसरे दिन ही या दो दिन प्रदोष मे रहने वाली अमावस्या हो तो परा ही ग्रहण करें । यदि पूर्वदिन ही प्रदोष व्यापिनी अमावस्या हो तो लक्ष्मीपूजन पूर्वदिन ही करें तथा अभ्यङ्गस्नान पितृश्राद्ध इत्यादि दूसरे दिन करें । 

जो लोग कहते हैं चतुर्दशीविद्धा अमावस्या मे निर्णय सिन्धु के तिथि निर्णय प्रकरण मे उद्धृत -

भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्ण कदाचन ।

वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम् ॥ 

अर्थात् चतुर्दशी विद्धा अमावस्या मे सावित्रीव्रत को छोड़कर अन्य कोई भी न करें अथवा -

 प्रतिपदाप्यमावस्या तिथ्योर्यग्मं महाफलम्

 अर्थात् प्रतिपदा से युक्त अमावस्या महाफलदायिनी है। इत्यादि वचनों के अनुसार १ नवम्बर का समर्थन करते है वह पूर्णतया अशास्त्रीय है क्योंकि ये सभी वचन सामान्य तिथि निर्णय के लिए है। परन्तु दीपावली विशिष्ट पर्व है । अस्तु

इसी प्रकार का वचन निर्णय सिन्धु मे भी प्राप्त है -

अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृ परायणैः । प्रदोषसमये राजन् कर्तव्या दीप मालिका “ इति क्रमः स सम्पूर्ण तिथावेव प्राप्तेरनुवादो न विधिः । तत् तत् कर्म कालव्याप्तेर्बलवत्त्वात् -

अर्थात् अपराह्न काल मे पितृभक्त जन पार्वण श्राद्ध करें तथा प्रदोष मे लक्ष्मी का पूजन करें ।यह जो क्रम है वह सम्पूर्ण तिथि में अनुवाद है। अर्थात् सम्पूर्ण तिथि में ही कर सकते हैं यह विधि नहीं है क्योंकि जो कर्म जिस काल मे कहा गया है वह कर्म उसी काल में करने को बल दिया जाता है । अतः ३१ नवम्बर को प्रदोष मे अमावस्या होने से लक्ष्मी पूजन तथा दूसरे दिन अर्थात् १ नवम्बर को अपराह्न मे अमावस्या होने से (३१ अक्टूबर को अपराह्न में न होने के कारण ) ) पार्वण श्राद्ध करें यह निश्चय हुआ

 अत: इस वचन से जिन्होंने कहा कि पहले पार्वणश्राद्ध करना चाहिए तदनन्तर देवता का पूजन करना चाहिए उनका वचन खण्डित हुआ ।

जो विद्वान् उदयव्यापिनी या त्रिप्रहरव्यापिनी अमावस्या की बात करते हुए १ नवम्बर को लक्ष्मीपूजन की बात करते है तो इसके खण्डन मे धर्मसिन्धुकार पुरुषार्थचिन्तामणि नामक ग्रन्थ के उद्धरण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पुरुषार्थचिन्तामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरितिपक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापि दर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्वे लक्ष्मी पूजादिकमपि परत्रैवेत्युक्तम् । अर्थात् पुरुषार्थ चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में तो यदि पहले ही दिन प्रदोष व्यापिनी अमावस्या हो तथा दूसरे दिन तीन प्रहर तक रहने वाली अमावस्या मे ‘अमावस्या की अपेक्षा प्रतिपदा की वृद्धि अर्थात् अमावस्या तिथि के मान की अपेक्षा प्रतिपदा तिथि का मान अधिक हो तो दूसरे दिन ही लक्ष्मीपूजन करें ऐसा कहा गया है। 

ऐसी स्थिति मे तिथि मान की गणना करते हैं।

तिथिमान - अमावस्या ३१ अक्टूबर ३ .१२ बजे दिन से प्रारम्भ होकर १ नवम्बर को ५ १४ सायं तक

प्रतिपदा १ नवम्बर को ५ १४ के बाद से प्रारम्भ होकर २ नवम्बर को रात ७ बजे तक है। अमावास्या २६ घण्टे है तथा प्रतिपदा २५ घण्टा ४५ मिनट है । इस प्रकार तीन प्रहर से भी अधिक अमावस्या के रहने पर भी प्रतिपदा की वृद्धि न होने के कारण १ नवम्बर को लक्ष्मीपूजन ठीक नही है। 

और यदि कदाचित दृक पञ्चाङ को भी माने तो उसमें अमावस्या ६ . १६ बजे सायं तक है। तथा सूर्यास्त ५ . १७ बजे तक लिखा है। परन्तु इस समय कहीं पर भी सूर्यास्त नहीं देखा जा रहा है। काशी इत्यादि मे ५.३० बजे तथा पश्चिम प्रदेश राजस्थान तथा गुजरात में तो सूर्यास्त ६ .१५ बजे देखा जा रहा है तो ऐसी स्थिति में -

दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि ।

तदा विहाय पूवेद्युः परत्रे सुख रात्रिके ॥

 अर्थात् यदि प्रथम दिन प्रदोष कालीन अमावस्या हो तथा दूसरे दिन सूर्यास्त के बाद सायंकाल एक दण्ड (२४ मिनट )भी अमावस्या अधिक हो तो पूर्व दिन को छोड़कर दूसरे दिन ही लक्ष्मी पूजन करें। यह निर्णय सिन्धु का वचन घटित नही होता है।

अतः ३१ अक्टूबर को ही लक्ष्मीपूजन करें यह निर्णीत हुआ ।

दीपावली अर्थात् दीपदान तो ३० अक्टूबर .प्रदोषव्यापिनी चतुदर्शी मे , ३१ अक्टूबर प्रदोषव्यापिनी अमावस्या मे तथा १ नवम्बर प्रदोष व्यापि स्वाति नक्षत्र मे करें ।

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