सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥ करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥

  संसार को ईश्वर ने बनाया है, उसकी व्यवस्था एवं संचालन हेतु विधि-विधान भी उन्होंने बनाया है, हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है, इस संसार में सुखपूर्वक रहने हेतु मानव को उन विधि विधानों की व्यवस्था को समझना अनिवार्य है।

 अनेक ईश्वरीय विधानों में एक महत्वपूर्ण विधान कर्मफल का सिद्धाँत है, उपासना पद्धति एवं धार्मिक मान्यताएँ भले ही विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में अलग-अलग हों परन्तु सभी ने कर्मफल की अनिवार्यता को मान्यता दी है। 

 भारतीय संस्कृति के अनुसार मान्यताएँ-कर्मफल, पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता आदि महत्वपूर्ण है, कर्मफल का विधान अर्थात् जैसा कर्म वैसा फल, मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

  सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा सूक्ष्म जगत में अपनी इच्छानुकूल सृष्टि कर लेती है। जैसे वातावरण की उसे इच्छा होती है, वैसा वातावरण बना लेती है और उसमें रहती भी है। वह सृष्टि या वातावरण बिलकुल वैसा ही होता है जैसाकि उसके जीवनकाल में रहा था। सृष्टि और वातावरण आत्मा के स्वभाव और संस्कार और चरित्र पर निर्भर करता है।

 सूक्ष्म शरीर के विषय में और जान लेना आवश्यक है। तीन शरीरों के अतिरिक्त दो और शरीर हैं जो अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वे दो शरीर हैं। 

 मनोमय शरीर और आत्म शरीर। योग विज्ञान के अनुसार वासना शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर और आत्म शरीर बीज रूप में स्थूल शरीर में विद्यमान रहते हैं जिनको कोष कहते हैं। पहला कोष है। अन्नमय कोष। इसी कोष का संस्कार रूप है। अन्न के तत्वों से निर्मित स्थूल शरीर।

यदाचरित कल्याणि शुभं वा यदि वाऽशुभम्।

तदेव लभते भद्रे कर्त्ता कर्मजमात्मनः॥

 इसका मतलब है कि जो भी कर्म कोई व्यक्ति करता है, उसे उसका वैसा ही फल मिलता है. कर्ता को अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ता है।

  सच तो यह है कि मनुष्य भीतर जैसा है, वही उसका वास्तविक स्वरुप होता है, वैसा ही वातावरण अपने आप तैयार हो जाता है उसके लिए। हम भीतर से दुष्ट हैं, लेकिन बाहर सज्जनता का चोंगा पहने हुए हैं। तो दूसरों को तो अपने दिखावटी रूप से धोखा दे सकते हैं, लेकिन अपनी आत्मा को नहीं। निश्चित ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच एक ऐसा जीवन है जो भौतिक जीवन के समान ही होता है, केवल भौतिक शरीर नहीं होता। संस्कार तो वही रहते हैं और संस्कार ही हमारे लिए सृष्टि कर लेते हैं।

  जैसे स्थूल शरीर का निर्माण अणुओं के समूहों(कोशिकाओं) से होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की रचना होती है परमाणुओं के सूक्ष्मतम वैद्युतिक कणों से और उन्हीं वैद्युतिक कणों के प्रभाव में विद्यमान रहते हैं पिछले कई जन्मों के हमारे विचार, हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के संस्कार, हमारा ज्ञान, हमारी विद्वता, हमारे अनुभव, हमारे अच्छे-बुरे भाव और इन सबके अतिरिक्त रहती हैं--हमारी इच्छाएं, कामनाएं, अभिलाषाएं, आकांक्षाएं, वासनाएं, हमारी आशाएं-निराशाएं और हम अपने जीवन काल में जो कुछ कर रहे हैं।

अब प्रश्न यह है कि सुक्ष्मशरीर होता कैसा है ?

  जैसे स्थूल शरीर चमड़ी का है और उसके भीतर नस-नाड़ियां, हड्डियां मांस मज्जा आदि भरे रहते हैं, उसी प्रकार प्राणऊर्जा के भीतर वैद्युतिक कण समाये रहते हैं। प्राणऊर्जा से निर्मित सूक्ष्म शरीर का आकार-प्रकार और रूप-रंग वर्तमान में उसके द्वारा छोड़े गए मृत स्थूल शरीर जैसा ही होता है। किञ्चित् मात्र भी अन्तर नहीं होता।

  वही सुक्ष्मशरीर समयानुसार जब अगले जन्म में नया स्थूल शरीर ग्रहण करता है तो उसका आकार-प्रकार और रूप-रंग उसी नए स्थूल शरीर के अनुरूप हो जाता है। इस बीच यदि उस सूक्ष्म आत्मा का किसी कारणवश आवाहन करना हो और उसने अभी तक पुनर्जन्म नहीं लिया है तो वह अपने पूर्व जन्म के स्थूल शरीर के अनुरूप सूक्ष्म शरीर में थोड़े समय के लिए प्रकट हो जाता है। ऐसा करने में उसे कोई ज्यादा कष्ट नहीं होता है।

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।

आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥

 जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है।या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है।

  भूमण्डल के वातावरण में बिखरे अपने पूर्व जन्म के स्थूल कणों को थोड़े समय के लिए संयोजित कर वह प्रकट हो जाता है। पर यदि उसने कहीं जन्म भी ले लिया है तो भी अल्प समय के लिए आवाहन किये जाने पर उसे आना पड़ता है, ऐसी स्थिति में उसे थोड़ा कष्ट होता है, थोड़ी असुविधा होती है, पर वह आ सकता है। इसमें सन्देह नहीं है।

 आत्मा एक स्वतंत्र सत्ता है। शरीर परतंत्र है। वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। मन भी परतंत्र है लेकिन प्रयत्न करने पर वह स्वतंत्र हो सकता है। आत्मा सदैव स्वतंत्र है, वह कभी भी किसी भी अवस्था में परतंत्र नहीं हो सकती।

  लेकिन शरीर के अभाव में वह रह ही नहीं सकती। चाहे शरीर कोई भी हो। अवस्था के अनुरूप शरीर बदलती रहती है, आत्मा बराबर। वैसे आत्मा के वाहक रूप में सात शरीर हैं जिनमें प्रथम दो शरीर--स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर आत्मा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसलिए कि स्थूल शरीर कर्मशरीर है और सूक्ष्म शरीर है। भोगशरीर।

  जीवन काल में कर्म तो करता है, स्थूल शरीर लेकिन उसके फल का भोग करता है। उसके भीतर दूध-पानी की तरह घुला हुआ सूक्ष्म शरीर। जब वह स्थूल शरीर से मृत अवस्था में अलग हो जाता है तो शेष कर्मफलों को वही भोगता है। स्थूल शरीर के रहते कर्मफल भोगने में स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों भागीदार रहते हैं। चाहे सुख हों या दुःख हों। उनका अनुभव दोनों शरीरों को होता है, पर मृत हो जाने पर स्थूल शरीर छूट जाता है और ऐसी स्थिति में कर्मफल का भोग करता है, सुक्ष्मशरीर।

  जिसे हम जीवन कहते हैं, वह स्थूल शरीर की अपनी एक यात्रा है जो जन्म से शुरू होती है और समाप्त होती है, मृत्यु के तट पर। दूसरा शरीर सुक्ष्मशरीर पिछले जन्म से आता है और वही यात्रा भी करता है लोक-लोकान्तरों की और वही शेष कर्मों के फलों को भी भोगता है।

  अच्छे-बुरे फलों को भोगता है। अच्छे फलों को भोगता है। स्वर्ग में और बुरे फलों को भोगता है, नर्क के रूप में। वह बदलता नहीं, उसकी यात्रा रूकती नहीं, उसके कर्म के फल को कोई काट नहीं सकता, न कोई पूजा, न कोई साधना, न कोई उपासना और न कोई भक्ति। कर्म और उनके फलों का भोग एक अकाट्य सत्य है।

  स्वर्ग और नर्क कोई स्थान विशेष नहीं हैं। अच्छे और बुरे कर्मफल स्वयं को भोगने के लिए उसी प्रकार के वातावरण की सृष्टि कर देता है, वह सुक्ष्मशरीर। सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मान्तर तक ही यात्रा करता रहता है। उससे मोक्ष आत्मा को तभी मिलता जब वह अपने साधनाबल से उसका अतिक्रमण कर लेता है और मनोमय शरीर का आश्रय ले लेता है।

  जन्म-मृत्यु के मूल में या आवागमन के मूल में कर्म और उसके फल का ही भोग समझना चाहिए। स्थूल शरीर के लिए हम माता-पिता के ऋणी रहते हैं। स्थूल शरीर की अपनी एक सीमा है, अपनी सामर्थ्य है। उतने ही दिन वह एक यंत्र की तरह चलता है और फिर एक दिन समाप्त हो जाता है।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।

 जिस पुरुष के अन्त:करण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है ।

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