साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥ |
जब तक साधक में अहंकार रहता है, तब तक वह साधन में तल्लीन नहीं होता । अहंकार मिटने-पर साधक साधन में तल्लीन हो जाता है अर्थात् साधक नहीं रहता, प्रत्युत साधन मात्र रह जाता है ।
साधक की साधन से और साधन की साध्य से एकता होती है । इसलिये जब तक साधक साधन में तल्लीन नहीं होता, तब तक साध्य {परमात्मतत्त्व} की प्राप्ति नहीं होती ।
साध्य ईश्वर है। ईश्वर अर्थात् सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय। मोक्ष की भी इसी में गिनती होती है। दुष्प्रवृत्तियां ही बंधन हैं। भव बन्धनों की चर्चा जहाँ होती है वहाँ उसका तात्पर्य कषाय-कल्मषों से है। कषाय अर्थात् पूर्व जन्मों के अभ्यस्त संस्कार, कल्मष अर्थात् प्रस्तुत ललक लिप्साओं को आकर्षण से किये हुए दुरित। इनसे छुटकारा पाने का नाम मोक्ष है।
यह मान्यता सही नहीं है कि जन्म मरण से छूट जाने का नाम मोक्ष है। जन्म, अभिवर्धन और मरण यह प्रकृति का नियम है। ईश्वर की सत्ता इस प्रकृति क्रम को इसी निमित्त बनाती है। जीव जन्तु, वृक्ष वनस्पति से लेकर मानव शरीर धारियों तक, प्रत्येक को इस चक्र में अनिवार्यतः भ्रमण करना पड़ता है। अवतारी महामानव भी बार-बार जन्म लेते और मरते हैं। अवतारों की संख्या अब दस या चौबीस हो चुकी है। इनमें से सभी को अपने-अपने ढंग से जन्म लेना और मरना पड़ा है। सृष्टि चक्र में जो भी बँधा है उसे उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के क्रम में घूमना ही पड़ता है। सूक्ष्म शरीर धारियों को भी एक अवधि के लिए नियत उत्तरदायित्व संभालने के लिए भेजा जाता है उसे पूरा करने के उपरांत वे भी वापस लौट जाते हैं और आवश्यकतानुसार उसी क्रम की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। जब अवतारों और देवताओं को आवागमन की प्रक्रिया पूर्ण करनी पड़ती है, तो भक्तजनों के लिए ही उसका अपवाद कैसे हो सकता है
साध्य, साधना और साधक इन तीनों की संगति है। तीनों के समन्वय से एक पूरी बात बनती है। साध्य ईश्वर है। ईश्वर अर्थात् सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय। मोक्ष की भी इसी में गिनती होती है। दुष्प्रवृत्तियां ही बंधन हैं। भव बन्धनों की चर्चा जहाँ होती है वहाँ उसका तात्पर्य कषाय-कल्मषों से है। कषाय अर्थात् पूर्व जन्मों के अभ्यस्त संस्कार, कल्मष अर्थात् प्रस्तुत ललक लिप्साओं को आकर्षण से किये हुए दुरित। इनसे छुटकारा पाने का नाम मोक्ष है।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
मात्र इच्छारहित होकर निष्काम कर्म करना ही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र उपाय है अन्य सभी कुछ मिथ्या ही है।
अनासक्त या निष्काम कर्म करने से वह संसार-बंधन को काट डालता है। जन्म और मरण के चक्र को पार कर जाता है तथा परमात्मा से मिल जाता है। अतः निष्काम कर्म के द्वारा मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। अतः कर्मयोग ईश्वर से मिलने का साधन या मार्ग हैं
मनुष्य शरीर ही एक मात्र ऐसा साधन है जिस से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । बाकी किसी भी शरीर में यह संभव नहीं है । चाहे किसी देवता का ही शरीर क्यों न हो, देवता भी मनुष्य शरीर के लिए तरसते हैं । लेकिन इन्हें भी अपने शरीर में रहते हुए आयु भोगने के पश्चात ही मनुष्य के शरीर की प्राप्ति होगी ।
अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।।
जो केवल भौतिक विज्ञान को पोषित करते हैं, नरक में जाते हैं किन्तु जो केवल आध्यात्मिक ज्ञान को पोषित करते हैं, वे और अधिक गहन नरक में जाते हैं।" शरीर की देखभाल के लिए भौतिक विज्ञान आवश्यक है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान हमारे भीतर के देवत्व के आविर्भाव के लिए अनिवार्य है। जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमारे जीवन में दोनों का संतुलन होना चाहिए इसलिए योगासन, प्राणायाम, और उपयुक्त आहार विज्ञान आदि वैदिक ज्ञान का अनिवार्य अंग हैं। चारों वेदों में प्रत्येक वेद का भौतिक ज्ञान से संबंधित एक सहायक वेद है। जैसे अथर्व वेद का सहायक वेद आयुर्वेद है जो औषधि चिकित्सा और उत्तम स्वास्थ्य का प्राचीन विज्ञान है। यह दर्शाता है कि वेद शारीरिक स्वास्थ्य की देख-रेख करने पर बल देते हैं।
तन बिनु भजन बेद नहिं बरना।
अर्थात वेद शरीर की उपेक्षा करने की अनुशंसा नहीं करते। वास्तव में वे हमें भौतिक विज्ञान की सहायता से शरीर की देखभाल करने का उपदेश देते हैं।
शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्।
हमारा शरीर हमें धार्मिक गतिविधियों में तल्लीन रखने का वाहन है।
मानव शरीर में दो मुख्य नाड़ी के अलावा जो एक मुख्य नाड़ी सुषुम्ना है , उसकी विशेषता ये है कि उसके अंदर ब्रह्म नाड़ी है ! जिसमें कुंडलिनी शक्ति रूपी चाबी, का प्रवेश कराकर, सहस्रार तक पहुँचाकर , मोक्ष रूपी द्वार का ताला खोला जा सकता है !
मानव तन में , इस पुरुषार्थ के लिये समस्त संसाधन, सबसे ज़रूरी बुद्धि रूपी नियंत्रक व प्रेक्षक तथा मन रूपी पुरुषार्थी के साथ साथ सप्तचक्रों रूपी क्रमिक लक्ष्य मौजूद हैं । जो कि गुरु रूपी उत्साह का आलंबन ले, परम लक्ष्य का भेदन कर सकता है ! इतना संसाधन किसी भी देह में मौजूद नहीं है !
देवता , दानव , यक्ष, गंधर्व आदि सूक्ष्म देह में हैं ! जो कि मूलाधार से ऊपर की स्थिति है ! अत: इनमें मूलाधार नहीं होता , मूलाधार न होने से, कुंडलिनी शक्ति का निवास नहीं है ! अत: सहस्रार भेदन की व्यवस्था इन योनियों में नहीं है !
स्थूल जगत के अन्य जीवों में बुद्धि ही विकसित नहीं है ! अत: सहस्रार भेदन का प्रश्न ही नहीं उठता !
अपना अन्तरात्मा ही शुद्ध होने की स्थिति में परमात्मा हो जाता है। उससे सबसे निकट देखना हो सबसे सरलता पूर्वक देखना हो तो अपने शुद्ध अन्तःकरण में ही उसकी झाँकी करनी चाहिए।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
मायाशक्ति अपने तीन प्रकार के प्राकृतिक गुणों द्वारा दिव्य आत्मा को जीवन की दैहिक संकल्पना में बांधती है। ये तीन-गुण, सत्व (शुभ कर्म) रजस (आसक्ति) और तमस (अज्ञानता) हैं। प्रत्येक मनुष्य में तुलनात्मक अनुपात में पिछले अनन्त जन्मों के संस्कारों और उनकी रुचि व प्रवृत्ति के अनुसार इन गुणों की भिन्नता होती हैं। वैदिक ग्रंथ इस असमानता को स्वीकार करते हैं।
साधना में साध्य एक ही है- ईश्वर प्राप्ति। इसी को मोक्ष कहना हो तो भी कुछ हर्ज नहीं। इसे प्राप्त करते ही साधक अज्ञान, अभाव और अशक्ति जन्म समस्त दुःख दरिद्रों से छूट जाता है। सच्चिदानन्द के साथ एकीभूत हो जाता है। अपनी और ईश्वर की स्थिति में भिन्नता नहीं रहती।
साध्य को समझ लेने के बाद साधना का स्वरूप समझने की आवश्यकता है। जो साधना करने लगे, उसमें रस आने लगे समझना चाहिए कि वह साधक हो गया। जो साधक है वही सिद्ध है। ईश्वर के संपर्क में आने पर उसके गुण भी अनायास ही आ जाते हैं। अग्नि के साथ ईंधन का संपर्क सुदृढ़ हो जाने पर जो गुण आ गये हैं वही ईंधन में भी पैदा हो जाते हैं।
ईश्वर सिद्धियों का भण्डार है उसके साथ संपर्क साधने वाला साधक सिद्ध ही होकर रहता है। साधना के लिए दो कार्य करने होते हैं एक योग दूसरा तप। योग का अर्थ है अपने दृष्टिकोण की उत्कृष्टता को साथ जोड़ देना। तप का अर्थ है ललक लिप्साओं की अवाँछनीय आदतों को बलपूर्वक खींच-घसीटकर सीधे रास्ते पर लाना।
मनुष्य का चिन्तन शरीराभ्यास के साथ बुरी तरह गुँथ जाता है। अपने को निरन्तर शरीर समझता है। शरीरगत सुख ही उसके सुख और शरीरगत दुःख ही उसके दुःख बन जाते हैं। इन्द्रियजन्य वासनाएं और मनोगत तृष्णा से इन्हीं दो की पूर्ति में शरीर लगा रहता है। इन दो के अतिरिक्त तीसरी है- अहंता। सारे सुखों का केन्द्र इन तीन में केन्द्रीभूत रहता है। इन्हीं की पूर्ति के लिए निरन्तर सोचने और करने की क्रिया चलती रहती है। आत्मा सूझ ही नहीं पड़ती। शरीर के भीतर जो है वह सूझता नहीं उसकी आवश्यकताओं और इच्छाओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। दृष्टिकोण के इस पृथक्करण को योग कहते हैं। योगी को अपनी दृष्टि शरीर से हटाकर आत्मा के साथ जोड़नी पड़ती है। एक ओर से खींचकर दूसरी ओर जोड़ने का नाम योग है। यह चिन्तन क्षेत्र को उलट देता है। इसके लिए आत्मचिन्तन में निरति पकानी पड़ती है। शरीर और आत्मा का भेद समझना पड़ता है। शरीरजन्य इन्द्रियाँ, मनोजन्य तृष्णाएं कितनी आकर्षक और कितनी अभ्यस्त होती हैं? उनसे मन को विरत करके यथार्थता को समझना यही आत्मज्ञान है, आत्मज्ञान होने पर तीसरा नेत्र खुल जाता है और निरर्थक के लिए मरते-खपते रहने, सार्थक की ओर से मुँह मोड़े रहने का अन्तर समझ में आता है। इसी का नाम योग है। इस दृष्टिकोण के परिवर्तन को ही अन्तर का कायाकल्प कहते हैं। योगी की स्थिति संसारी से बिलकुल विपरीत होती है। योगी को आत्मा का हित ही अपेक्षित होता है जबकि भोगी को वासना, तृष्णा और अहंता के अतिरिक्त चौथा कुछ सूझता ही नहीं। साधना का वास्तविक अर्थ योग साधना है। योग का अर्थ है भोग से विरत्ति। चिन्तन को एक ओर से खींच कर दूसरी ओर नियोजित करने का नाम योग है। इसमें आंखें मूँद कर अंतर्मुखी होना पड़ता है और जो भीतर है, उसके कल्याण की साधना करनी पड़ती है।
तप योग का दूसरा पक्ष है। विचार कर्म में समाविष्ट हो जाते हैं। वे आदतों का रूप धारण कर लेते हैं और अभ्यास बनकर कार्यान्वित होने लगते हैं। कामुकता के विचार मात्र मस्तिष्क में ही नहीं घूमते। वरन् यौनाचार बनकर क्रियान्वित भी होते हैं। मर्यादा न रह कर मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं। व्यभिचार के रूप में परिणति होने लगता है। लोभ मात्र धन इच्छा तक ही सीमित नहीं रहता। वरन् चोरी बेईमानी, छल, प्रपंच आदि के रूप में जैसे बने वैसे धन संग्रह में लग जाता है। आरम्भ में मन कुछ हिचकिचाता भी है पीछे अभ्यास में आई हुई आदतें उसे स्वाभाविक मान लेती है। अहंकार प्रदर्शन के लिए श्रृंगार, ठाट-बाट में ढेरों पैसा खर्च होने लगा है और अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए आतंकवादी कार्य किये बिना चैन नहीं पड़ता। नीति, अनीति का विचार मन में से चला जाता है और अनीति करते हुए अपनी चतुरता एवं सफलता मालूम पड़ने लगती है।
साधन मात्र रहते ही साधन साध्य में परिणत हो जाता है अर्थात् साध्य की प्राप्ति हो जाती है।
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