क्या महात्मा गांधी देश का विभाजन रोक सकते थे ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  गांधी जी 3 जून 1947 की उस निर्णायक बैठक में शामिल नहीं हुए थे , जिसमें देश की किस्मत का फैसला हुआ । क्यों ? क्योंकि वे लगातार यह कहते रहे कि वे कांग्रेस के चवन्नी के भी सदस्य नहीं है। माउंटबेटन के साथ इस बैठक में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता शामिल थे। दिलचस्प है कि वे एक दिन पहले दो जून को माउंटबेटन से मिले। माउंटबेटन ने उन्हें उन फैसलों की जानकारी दी , जिन्हें अगले दिन की बैठक में लिया जाना था। गांधी जी उस दिन कुछ नहीं बोले। क्यों ? क्योंकि वह उनके मौन का दिन था। चार जून को एक बार फिर माउंटबेटन से गांधी की भेंट हुई। माउंटबेटन ने उनसे कहा कि सब कुछ आपके कहे के मुताबिक हो रहा है। गांधी ने सवाल किया कि मैंने कब चाहा कि विभाजन हो ? माउंटबेटन ने उन्हें निरुत्तर किया कि आपने ही तो कहा था कि सब हिंदुस्तानियों पर छोड़ दीजिए। गांधी की प्रार्थना सभा का वक्त हो चुका था। माउंटबेटन को फिक्र थी कि गांधी विभाजन के खिलाफ बोल सकते हैं। सभा में मौजूद लोग भी यही उम्मीद लगाए थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गांधी ने कहा खुद को टटोलिए। ऐसा क्यों हो रहा है ? विभाजन रोकने की गांधी जी की कोशिशों और नाकामी पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। इतिहास में रुचि रखने वाले लोग आज भी इन सवालों के जवाब की तलाश में रहते हैं। पढ़िए देश की किस्मत के उस निर्णायक मोड़ पर गांधी जी की भूमिका से जुड़े कुछ खास प्रसंग, माउंटबेटन गांधी को लेकर थे सतर्क।

   कांग्रेस की औपचारिक सदस्यता गांधी जी 1934 में ही छोड़ चुके थे। बात दीगर है कि उसके बाद भी कांग्रेस के महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी राय निर्णायक होती थी। यहां तक कि आजादी के साल भर पहले 1946 में जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष पद उन्हीं की बदौलत हासिल हो सका था। माउंटबेटन चाहते थे कि 3 जून को कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ उनकी बैठक में गांधी जी भी शामिल हों। इसकी जाहिर वजह थी कि सत्ता हस्तांतरण के निर्णायक मोड़ पर माउंटबेटन ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहते थे, जो उनकी प्रस्तावित योजना को चौपट कर दे। वे गांधी जी को लेकर फिक्रमंद थे। उनकी कोशिश गांधी जी को भरोसे में लेने या कम से कम खामोश रहने के लिए राजी करने की थी। 3 जून की बैठक में हिस्सेदारी से गांधी जी के इनकार के बाद भी माउंटबेटन इस दिशा में सक्रिय रहे।

 देश की किस्मत दांव पर लेकिन मौनव्रत !

   माउंटबेटन कामयाब रहे। भले गांधी जी अगले दिन की बैठक में नहीं शामिल हुए लेकिन एक दिन पहले 2 जून 1947 को वे माउंटबेटन से अकेले मिले। यह सोमवार का दिन था। गांधी जी के मौन का दिन। माउन्टबेटन ने उन्हें विभाजन और सत्ता हस्तांतरण की पूरी योजना की जानकारी दी। गांधी जी ने जेब से पुराने लिफाफे निकाले और उनके सादे हिस्से पर लिखना शुरु किया,"मुझे खेद है, मैं बोल नही सकता। सोमवार का व्रत दो हालत में भंग करने की मैंने गुंजाइश रखी थी। किसी उच्च पदाधिकारी से किसी समस्या के बारे में बात करनी हो या किसी बीमार की देखभाल करनी हो। लेकिन मैं जानता हूँ कि आप नही चाहते कि मैं अपना मौन भंग करुं। मुझे दो-एक बातों के बारे में कुछ कहना है लेकिन आज नही। हम दोनों की फिर भेंट हुई तो कहूंगा।" इस मौके पर गांधी जी ने जो कुछ लिखा वह चौंकाने वाला है। उन्होंने खुद ही साफ किया है कि किन परिस्थितियों में वे अपना मौन भंग कर सकते हैं। वे भारत में ब्रिटिश सत्ता के सर्वोच्च प्रतिनिधि से मुखातिब थे। भारत की स्वतंत्रता और विभाजन का असाधारण महत्व का सवाल था लेकिन आश्चर्यजनक था कि गांधी जी इसलिए नहीं बोले क्योंकि माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि वे अपना मौन भंग करें !

अनुपस्थिति में भी गांधी ही गांधी

  3 जून की बैठक की शुरुआत में माउंटबेटन ने सचेत किया कि अगर अतीत भुलाया जा सके तो बेहतर भविष्य के निर्माण की शुरुआत मुमकिन है। आरोप -प्रत्यारोप की हालत में हिंसा की आशंका से बचने के लिए उन्होंने निचले स्तर के नेताओं पर अंकुश की जरूरत बताई थी। हालांकि गांधी जी बैठक में मौजूद नहीं थे लेकिन फिर भी वे मुस्लिम लीग के निशाने पर थे। इस मौके पर लियाकत अली खान ने गांधी जी की शिकायत करते हुए कहा था कि निचले नेताओं को तो रोका जा सकता है लेकिन जो सबसे बड़े हैं, जैसे गांधी जी, वे बात तो अहिंसा की करते हैं लेकिन उनकी प्रार्थना सभाओं के भाषण हिंसा को उकसाने वाले हैं। जिन्ना की भी यही शिकायत थी। कृपलानी ने इसका तुरंत प्रतिवाद किया। जोर दिया कि गांधी जी हमेशा अहिंसा पर ही बल देते हैं। यह भी याद दिलाया कि गांधी जी और कांग्रेस हमेशा से संयुक्त भारत के हिमायती रहे हैं। प्रार्थना सभाओं में गांधी जी द्वारा विभाजन को गलत बताने और इसे स्वीकार न करने की बात कहे जाने से माउंटबेटन भी चिंतित थे। लेकिन एक दिन पहले गांधी जी से हुई भेंट का जिक्र करते हुए उन्होंने इस विवाद को यह कहते हुए टालने कि कोशिश की कि जो व्यक्ति हमेशा भारत की एकता के लिए जिया, काम किया और कामना की, उसके मनोभावों को मैं समझ सकता हूँ। मैंने भी प्रार्थना सभाओं में उनके भाषणों की उनसे चर्चा की। उनका मौन दिवस था। बोलना संभव नहीं था लेकिन उन्होंने लिखकर एक मैत्रीपूर्ण नोट दिया। उम्मीद की जाती है कि वे परिस्थितियों को समझते हुए सहयोग करेंगे।

कांग्रेस को भरोसा कि गांधी मान जाएंगे

   जिन्ना को गांधी के रुख को लेकर फिक्र थी । उन्होंने कहा कि अगर गांधी इस लाइन पर आगे बढ़े तो यह संदेश जाएगा कि जनता वह निर्णय न माने जो इस बैठक में लिया जाए। जिन्ना के मुताबिक वह यह नही मानते कि गांधी के इरादे खराब हैं।लेकिन इन दिनों उनकी भाषा ऐसी भावनाओं को बढ़ा रही है कि मुस्लिम लीग ताकत के जोर पर पाकिस्तान हासिल करने जा रही है, जबकि खुद उन्होंने गांधी की सार्वजनिक रुप में आलोचना से परहेज किया है।लियाकत अली खान एक बार फिर दोहराया कि हाल में गांधी ने जिन शब्दों का प्रयोग किया, उसका अर्थ निकलता है कि जनता वायसराय और नेताओं के फैसले की ओर ध्यान न दें। इसके स्थान पर वह जो उचित समझें, उसे करें। ऐसे बयानों का मतलब यही निकलता है कि जनता अगर चाहती है कि विभाजन न हो तो वह अपने मुताबिक आगे बढ़े। इस मौके पर सरदार पटेल का कथन विभाजन को लेकर गांधी जी के रुख को समझने में मददगार हो सकता है। बैठक में पटेल ने भरोसा जाहिर किया था , " एक बार जब निर्णय ले लिया जाएगा तो गांधी जी उसे स्वीकार कर लेंगे।" अर्थात पटेल का कथन तो यही संकेत देता है कि सत्ता हस्तांतरण की बैठक में शामिल कांग्रेस नेताओं ने विभाजन के प्रश्न पर गांधी जी की सहमति हासिल नहीं की थी। उन्होंने यह मान लिया था कि निर्णय हो जाने पर गांधी जी इसे मान लेंगे।

गांधी क्यों हुए निरुत्तर ?

   4 जून को माउन्टबेटन और गांधी जी फिर साथ थे। खबर थी कि अपनी प्रार्थना सभा में गांधी जी विभाजन की मुखालफत कर सकते हैं। सतर्क माउन्टबेटन ने उनसे कहा,"इसे माउन्टबेटन योजना गलत कहा जा रहा है। इसे तो गांधी योजना कहा जाना चाहिए।" गांधी जी की सवालिया निगाहों की ओर देखते माउन्टबेटन ने कहा," आप ही ने तो कहा था कि फैसला हिंदुस्तानियों पर छोड़ दीजिए। हर प्रांत की जनता वोट देकर तय करेगी कि किसके साथ रहना है ? यह आपकी ही कही बात तो है।" पर मैं विभाजन कब चाहता था, गांधी जी ने सवाल किया। माउन्टबेटन का जवाब था," अगर कोई ऐसा चमत्कार हो जाये कि विधानसभाएं एकता के पक्ष में वोट दे दें तो विभाजन रुक जाएगा।" और फिर माउन्टबेटन के अगले वाक्य ने गांधी जी के लिए कुछ कहने को नही बाकी रखा," अगर इसके लिए वे सहमत नही हैं तो आप यह तो नही चाहेंगें कि हथियार के जोर पर हम उनके निर्णय का विरोध करें।"

निराशा के वे बोल

 उन दिनों गांधी जी प्रायः दोहराते थे," भले सारे देश में आग भड़क उठे, हम एक इंच भूमि पर भी पाकिस्तान नही बनने देंगे।" कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा विभाजन की मंजूरी देने के बाद गांधी जी गहरी वेदना में थे। उन्हें लगातार महसूस हो रहा था कि कांग्रेस के नेता उनसे दूर होते जा रहे हैं। ऐसी ही एक सुबह एक कार्यकर्ता ने उनसे कहा,"फैसले की इस घड़ी में आपका कहीं जिक्र ही नही है।" उनका जबाब था,"मेरे चित्र को हार पहनाने के लिए हर कोई उत्सुक रहता है। लेकिन सलाह मानने को कोई तैयार नही है।" दिल्ली की हरिजन बस्ती में निवास कर रहे गांधी को बगल की चटाई पर लेटी मनु ने एक रात अपने में ही बुदबुदाते सुना, " आज मेरे साथ कोई नही है। पटेल और नेहरु तक समझते हैं कि जो मैं कह रहा हूँ, वह गलत है और अगर बंटवारे की बात पर समझौता हो जाए तो शांति रहेगी। ये लोग सोचते हैं कि उम्र के साथ मेरी समझ-बूझ भी कम होती जा रही है। हाँ।शायद सब लोग ठीक ही कहते हों और में ही अंधेरे में भटक रहा हूँ।"

गांधी की वो चुप्पी

  क्या इस वक्त तक गांधी जी ने पराजय स्वीकार कर ली थी ? माउंटबेटन के साथ अपनी बैठक में भले उन्होंने विभाजन के प्रति असहमति जाहिर की हो लेकिन उसी 4 जून की शाम प्रार्थना सभा में वे जो कुछ बोले उसने विभाजन का विरोध करने वालों को निराश किया। कितनी ही बार उन्होंने कहा था,"देश के दो टुकड़े होने के पहले उनके दो टुकड़े होंगे।" लेकिन उस शाम स्तब्ध करने वाली खामोशी के बीच लोगों ने गांधी जी को कहते सुना," वायसराय को दोष देने से कोई फायदा नही। अपने आपको देखिए। मन को टटोलिये। तब पता लगेगा। जो हुआ है, उसका कारण क्या है ?

नेहरू,पटेल के रवैए पर लोहिया के सवाल

  विभाजन का फैसला हो चुका था। तीन जून की निर्णायक बैठक में गांधी जी कांग्रेस का पदाधिकारी न होने का हवाला देकर शामिल नहीं हुए थे। लेकिन 14 व 15 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उस विशेष बैठक में वे शामिल थे , जिसमें कांग्रेस ने विभाजन की योजना को मंजूरी दी। विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर डॉक्टर राम मनोहर लोहिया इस बैठक में मौजूद थे। अपनी पुस्तक ' भारत विभाजन के गुनहगार ' में उन्होंने इस बैठक की कार्यवाही का ब्यौरा दिया है। डॉक्टर लोहिया ने लिखा , ' गांधी जी ने हल्की शिकायत की मुद्रा में कहा नेहरु और सरदार पटेल ने उसकी सूचना उन्हें नही दी। गांधी जी अपनी पूरी बात कह पाते इसके पहले आवेश में पंडित नेहरु ने प्रतिवाद किया कि वे उनको बराबर पूरी जानकारी देते रहे हैं। गांधी जी के फिर दोहराने पर कि उन्हें विभाजन की योजना की जानकारी नहीं थी, पंडित नेहरु ने अपनी पहले कही बात को थोड़ा बदल दिया। कहा, नोआखाली इतनी दूर है, कि वे उस योजना के बारे में विस्तार से न बता सके होंगे। विभाजन के बारे में मोटे तौर पर उनको( गांधी जी ) को लिखा था।" इस बैठक में " श्री नेहरु और सरदार पटेल, गांधी जी के प्रति आक्रामक रोष दिखाते रहे।"

अपने हुए बेगाने

    विभाजन के प्रबल विरोधी गांधी जी का निर्णय की घड़ी आने तक विरोध सांकेतिक नजर आता है। बेशक उन्होंने विभाजन को स्वीकार नहीं किया लेकिन उनकी बढ़ती उम्र बीच अलग राह पकड़ते खास अनुयायियों ने क्या उन्हें निराश कर दिया था ? वे अकेले ही किसी आंदोलन और संघर्ष के लिए पर्याप्त थे लेकिन इस मोड़ पर पहुंचने तक उनका क्या खुद में विश्वास डोल चुका था ? मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर से मुलाकात में माउन्टबेटन ने कहा था कि हिन्दुस्तान आने के बाद से उन्होंने कांग्रेस के नेताओं को लगातार अपने नजदीक लाने की कोशिश की। ताकि अगर टकराव की नौबत आये तो उनकी मदद से गांधी को बेअसर कर दूं। लेकिन मुझे बहुत अजीब लगा कि एक तरह वे सभी गांधी के खिलाफ़ और मेरे साथ थे। एक तरह से वे मुझे बढ़ावा दे रहे थे कि मैं उनकी ओर से गांधी का सामना करूँ।" माउंटबेटन का कहा अगर सच है तो यकीनन आजादी की घोषणा और विभाजन के मौके पर गांधी अकेले ही थे। तो क्या गांधी के शिष्यों ने ही उन्हें विभाजन के सवाल पर चुप रहने को मजबूर कर दिया ?

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