भरत जी ने प्रभु श्रीराम से संतों और असंतों का लक्षण पूछा है। भरत जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु श्रीराम ने पहले संतों का लक्षण बताया फिर असंतों का लक्षण बताते हुए जो दूसरों से द्रोह करते हैं और परायी स्त्री, पराये धन की चाह में रहते हैं तथा परायी निन्दा में आसक्त रहते हैं वे पापी और पापमय मनुष्य नर शरीर होते हुए भी राक्षस ही हैं।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतिह य:।
अघायुरिन्द्रियरामो मोघं पार्थ स जीवति॥
भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि -
हे पार्थ! जो लोग वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ के चक्र में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करते, वे पापी हैं। वे केवल अपनी इन्द्रियों के सुख के लिए जीते हैं; वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ है।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
जैसे रथ के पहिये का छोटा सा अंश भी टूट जाने पर रथक्षके समस्त अङ्गों को एवं उस पर बैठे रथी और सारथि को धक्का लगता है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धिब्रह्राक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सवगतं ब्रह्ना नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
इस प्रकार सृष्टि चक्र की स्थिति यज्ञ पर निर्भर बतलाकर और परमात्मा को यज्ञ में प्रतिष्ठित कहकर अब उस यज्ञ रूप स्वधर्म के पालन की अवश्य कर्तव्यता सिद्ध करने के लिये उस सृष्टि चक्र के अनुकूल न चलने वाले की यानी अपना कर्तव्य पालन न करने वाले की निन्दा करते हैं।
सृष्टिचक्र के अनुसार नहीं चलता वह समष्टि सृष्टि के संचालन में बाधा डालता है।संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं। जैसे शरीर का अङ्गों के साथ और अङ्गों का शरीर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है ऐसे ही संसारका व्यक्ति के साथ और व्यक्ति का संसार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब व्यक्ति कामना ममता आसक्ति और अहंता का त्याग करके अपने कर्तव्य का पालन करता है तब उससे सम्पूर्ण सृष्टि में स्वतः सुख पहुँचता है।
इन्द्रियारामः जो मनुष्य कामना ममता आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियों के द्वारा भोग भोगता है उसे यहाँ भोगों में रमण करने वाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशु से भी नीचा है क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता प्रत्युत पहले किये गये पापों का ही फल भोगकर निर्मलता की ओर जाता है परन्तु इन्द्रियाराम मनुष्य नये नये पाप करके पतन की ओर जाता है और साथ ही सृष्टिचक्र में बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टि को दुःख पहुँचाता है।
मोघं पार्थ स जीवति।
अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य की सभ्य भाषा में निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई।
लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती।
कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥
जैसे भगवान् श्रीराम के वनवास के समय अयोध्यावासियों के चित्रकूट आने पर कोल किरात भील आदि जंगली लोगों ने उनसे कहा था कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते यही हमारी बहुत बड़ी सेवा है। ऐसे ही अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य कम से कम सृष्टिचक्र में बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है।
कबीर हरि की भगति करि, तजि विषया रस चोज।
बार बार नहीं पाइए, मनुशा जन्म की मौज॥
कबीर जी कहते हैं कि हरि की - ईश्वर परमात्मा - निरंकार प्रभु की भक्ति करो। संसार के रस भोग (रुप ,रस, गंध, शब्द, एवं स्पर्श) यदि विषय का रुप ले लें - विकार बन जाएं - अर्थात हमारा सारा ध्यान इन विषयों पर ही केंद्रित होने लगे - तो उनका त्याग करने की कोशिश करो - क्योंकि मनुष्य जन्म बार बार नहीं मिलता इसलिए इस जन्म में ही अपने जीवन का ध्येय पूरा कर लो और इसे सफल बना लो।
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर:।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुंठप्रियदर्शनम् ॥
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