भगवान श्रीकृष्ण की महिमा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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श्रीमहादेवजीने कहा- देवि ! महर्षि वेदव्यास ने विष्णुभक्त महाराज अम्बरीष से जिस रहस्य का वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें भी बतला रहा हूँ।

एक समय की बात है, राजा अम्बरीष बदरिकाश्रम गये। वहाँ परम जितेन्द्रिय महर्षि वेदव्यास विराजमान थे। राजा ने विष्णु-धर्म को जानने की इच्छा से महर्षि को प्रणाम करके उनका स्तवन करते हुए कहा-

भगवन् ! आप विषयों से विरक्त हैं। मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! जो परमपरः, उद्वेगशून्य- शान्त है, जो सच्चिदानन्द- स्वरूप और परब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे 'परम आकाश' कहा गया है, जो इस भौतिक जड आकाश से सर्वथा विलक्षण है, जहाँ किसी रोग-व्याधि का प्रवेश नहीं है तथा जिसका साक्षात्कार करके मुनिगण भवसागर से पार हो जाते हैं, उस अव्यक्त परमात्मा में मेरे मन की नित्य स्थिति कैसे हो ?

वेदव्यासजी बोले- राजन् ! तुमने अत्यन्त गोपनीय प्रश्न किया है, जिस आत्मानन्द के विषय में मैंने अपने पुत्र शुकदेव को भी कुछ नहीं बतलाया था, वही आज तुमको बता रहा हूँ; क्योंकि तुम भगवान्‌ के प्रिय भक्त हो। 

पूर्वकाल में यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जिसके रूप में स्थित रहकर अव्यक्त और अविकारी स्वरूप से प्रतिष्ठित था, उसी परमेश्वर के रहस्य का वर्णन किया जाता है, सुनो - 

प्राचीन समय में मैंने फल, मूल, पत्र, जल, वायु का आहार करके कई हजार वर्षों तक भारी तपस्या की। इससे भगवान् मुझपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने ध्यान में लगे रहनेवाले मुझ भक्त से कहा- 

'महामते ! तुम कौन-सा कार्य करना अथवा किस विषय को जानना चाहते हो? मैं प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे कोई वर माँगो। संसार का बन्धन तभी तक रहता है, जबतक कि मेरा साक्षात्कार नहीं हो जाता; यह मैं तुमसे सच्ची बात बता रहा हूँ। 'यह सुनकर मेरे शरीर में रोमाञ्च हो आया; मैंने श्रीकृष्ण से कहा- 'मधुसूदन ! मैं आपही के तत्त्व का यथार्थरूप से साक्षात्कार करना चाहता हूँ।

नाथ ! जो इस जगत्‌ का पालक और प्रकाशक है; उपनिषदों में जिसे सत्यस्वरूप परब्रह्म बतलाया गया है; आपका वही अद्भुत रूप मेरे समक्ष प्रकट हो- यही मेरी प्रार्थना है।

श्रीभगवान् ने कहा- महर्षे! मेरे विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। कोई मुझे 'प्रकृति' कहते हैं, कोई ईश्वर मानते हैं, कोई धर्म। किन्हीं-किन्हीं के मत में मैं सर्वथा भयरहित मोक्षस्वरूप हूँ। कोई भाव (सत्तास्वरूप) मानते हैं और कोई-कोई कल्याणमय सदाशिव बतलाते हैं। इसी प्रकार दूसरे लोग मुझे वेदान्तप्रतिपादित अद्वितीय सनातन ब्रह्म मानते हैं। 

किन्तु वास्तव में जो सत्तास्वरूप और निर्विकार है, सत्-चित् और आनन्द ही जिसका विग्रह है तथा वेदों में जिसका रहस्य छिपा हुआ है, अपना वह पारमार्थिक स्वरूप आज तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ, देखो राजन् !

भगवान्‌ के इतना कहते ही मुझे एक बालक का दर्शन हुआ, जिसके शरीर की कान्ति नील मेघ के समान श्याम थी। वह गोपकन्याओं और ग्वाल बालों से घिरकर हँस रहा था। वे भगवान् श्यामसुन्दर थे, जो पीत वस्त्र धारण किये कदम्ब की जड़ पर बैठे हुए थे। उनकी झाँकी अद्भुत थी। उनके साथ ही नूतन पल्लवों से अलङ्कृत 'वृन्दावन' नामवाला वन भी दृष्टिगोचर हुआ। इसके बाद मैंने नील कमल की आभा धारण करनेवाली कलिन्दकन्या यमुना के दर्शन किये।

फिर गोवर्धन पर्वत पर दृष्टि पड़ी, जिसे श्रीकृष्ण तथा बलराम ने इन्द्र का घमंड चूर्ण करने के लिये अपने हाथों पर उठाया था। वह पर्वत गौओं तथा गोपों को बहुत सुख देनेवाला है। गोपाल श्रीकृष्ण अबलाओं के साथ बैठकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वेणु वजा रहे थे, उनके शरीर पर सब प्रकार के आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका दर्शन करके मुझे वड़ा हर्ष हुआ। 'मुने ! तुमने जो इस दिव्य सनातनरूप का दर्शन किया है, यही मेरा निष्कल, निष्क्रिय, शान्त और सच्चिदानन्दमय पूर्ण विग्रह है। इस कमललोचनस्वरूपसे बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट तत्त्व नहीं है। वेद इसी स्वरूप का वर्णन करते हैं। यही कारणों का भी कारण है। यही सत्य, परमानन्दस्वरूप, चिदानन्दघन, सनातन और शिवतत्त्व है। तुम मेरी इस मथुरापुरी को नित्य समझो। यह वृन्दावन, यह यमुना, ये गोपकन्याएँ तथा ग्वाल-बाल सभी नित्य है। यहाँ जो मेरा अवतार हुआ है, यह भी नित्य है। इसमें संशय न करना। राधा मेरी सदा की प्रियतमा हैं। मैं सर्वज्ञ, परात्पर, सर्वकाम, सर्वेश्वर तथा सर्वानन्दमय परमेश्वर हूँ। मुझमें ही यह सारा विश्व, जो माया का विलासमात्र है, प्रतीत हो रहा है।'

तब मैंने जगत्‌ के कारणों के भी कारण भगवान से कहा- 'नाथ ! ये गोपियाँ और ग्वाल कौन हैं? तथा यह वृक्ष कैसा है ?' तब वे बड़े प्रेमसे बोले-

'मुने ! गोपियों को श्रुतियाँ समझो तथा देवकन्याएँ भी इनके रूप में प्रकट हुई हैं। तपस्या में लगे हुए मुमुक्षु मुनि ही इन ग्वाल- बालों के रूप में दिखायी दे रहे हैं। ये सभी मेरे आनन्दमय विग्रह हैं। यह कदम्ब कल्पवृक्ष है, जो परमानन्दमय श्रीकृष्ण का एकमात्र आश्रय बना हुआ है तथा यह पर्वत भी अनादिकाल से मेरा भक्त है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि दूषित चित्त- वाले मनुष्य मेरी इस उत्कृष्ट, सनातन एवं मनोरम पुरी को, जिसकी देवराज इन्द्र, नागराज अनन्त तथा बड़े-बड़े मुनीश्वर भी स्तुति करते हैं, नहीं जानते।

यद्यपि काशी आदि अनेकों मोक्षदायिनी पुरियाँ विद्यमान हैं, तथापि उन सबमें मथुरापुरी ही धन्य है; क्योंकि यह अपने क्षेत्र में जन्म, उपनयन, मृत्यु और दाह-संस्कार- इन चारों ही कारणों से मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करती है। जब तप आदि साधनों के द्वारा मनुष्यों के अन्तःकरण शुद्ध एवं शुभ सङ्कल्प से युक्त हो जाते हैं और वे निरन्तर ध्यानरूपी धन का संग्रह करने लगते हैं, तभी उन्हें मथुरा की प्राप्ति होती है।

मथुरावासी धन्य हैं, वे देवताओं के भी माननीय हैं, उनकी महिमा की गणना नहीं हो सकती। मथुरावासियों के जो दोष हैं; वे नष्ट हो जाते हैं; उनमें जन्म लेने और मरने का दोष नहीं देखा जाता। जो निरन्तर मथुरापुरी का चिन्तन करते हैं, वे निर्धन होने पर भी धन्य हैं; क्योंकि मथुरा में भगवान् भूतेश्वर का निवास है, जो पापियों को भी मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् भूतेश्वर मुझको सदा ही प्रिय हैं; क्योंकि वे मेरी प्रसन्नता के लिये कभी भी मथुरापुरी का परित्याग नहीं करते। जो भगवान् भूतेश्वर को नमस्कार, उनका पूजन अथवा स्मरण नहीं करता, वह मनुष्य दुराचारी है। जो मेरे परम भक्त शिव का पूजन नहीं करता, उस पापी को किसी तरह मेरी भक्ति नहीं प्राप्त होती। ध्रुव ने बालक होने पर भी जहाँ मेरी आराधना करके उस परम विशुद्ध स्थान को प्राप्त किया, जो उसके बाप-दादों को भी नहीं नसीब हुआ था; वह मेरी मथुरापुरी देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। वहाँ जाकर मनुष्य यदि लँगड़ा या अंधा होकर भी प्राणोंका परित्याग करे तो उसकी भी मुक्ति हो जाती है।

महामना वेदव्यास ! तुम इस विषय में कभी सन्देह न करना। यह उपनिषदों का रहस्य है, जिसे मैंने तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है।'

जो मनुष्य पवित्र होकर भगवान्‌ के श्रीमुख से कहे हुए इस अध्याय का भक्तिपूर्वक पाठ या श्रवण करता है, उसे भी सनातन मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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