भगवान भोलेनाथ राम जी को अतर्क्य अर्थात् तर्क से परे कहते हैं तो आखिर तर्क्य क्या है?
तर्क्य और अतर्क्य में क्या अंतर है?
गोस्वामी जी इसका उत्तर यहीं इसी चौपाई में दे दिए हैं कि तर्क्य क्या है और अतर्क्य क्या है।।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी
तर्क्य के तीन सहयोगी हैं।
बुद्धि , मन ,वाणी , और तर्क्य वही है जो हमारे बुद्धि, मन और वाणी के सीमा में हो।
भगवान श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -
तेषां सततंयुक्तानां भजतां प्रीति निर्भयम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयन्ति ते॥
जिनका मन सदैव प्रेमपूर्वक मुझमें एकाग्र रहता है, उन्हें मैं दिव्य ज्ञान देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकते हैं।
ईश्वर का दिव्य ज्ञान हमारी बुद्धि की उड़ान से प्राप्त नहीं होता। चाहे हमारे पास कितनी भी शक्तिशाली मानसिक मशीन क्यों न हो, हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि हमारी बुद्धि भौतिक ऊर्जा से बनी है। इसलिए, हमारे विचार, समझ और ज्ञान भौतिक क्षेत्र तक ही सीमित हैं।
ईश्वर और उनका दिव्य क्षेत्र हमारी भौतिक बुद्धि के दायरे से पूरी तरह परे है। हमारे वेद एवं शास्त्र जोरदार ढंग से घोषणा करते हैं।
यस्य मतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः
अविज्ञातं विज्ञातमविजानतम्
जो लोग सोचते हैं कि वे अपनी बुद्धि से ईश्वर को समझ सकते हैं, उन्हें ईश्वर की कोई समझ नहीं है। केवल वे ही ईश्वर को सही मायने में समझ सकते हैं जो सोचते हैं कि वह उनकी समझ के दायरे से परे है।
बुद्धियोग यह दो शब्दों के संयोजन से बना है; बुद्धि+योग। 'योग' शब्द युज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है- 'जुड़ना'। किससे से जुड़ना?
उस परमात्मा से जो आत्म रूप में हमारे भीतर ही सूक्ष्म रूप में निवास करता है। सारतः बुद्धि का परमात्मा से संयोग ही 'बुध्दियोग' है।
बुध्दियोग के विषय में श्री कृष्ण जी गीता में कहते है-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।
हे अर्जुन! अपनी मन और बुध्दि को मुझमें ही लगा। तब निश्चय ही तू मुझमें निवास करेगा। इसमें कोई संशय नहीं।
यहाँ अर्जुन को बुध्दियोग के लिए प्रेरित किया जा रहा है, और इस माध्यम से समस्त मानव समाज को भी। परंतु आज समाज की यह विडंबना है कि हम अपनी बुध्दि को ईश्वर के साथ जोड़ने के बजाय बाह्य संसार में या केवल कर्मकांड तक ही सीमित रखे हुए है।
बुद्धियोग से तात्पर्य हुआ परमात्मा की प्राप्ति हेतु सदैव समता में रहकर कर्तव्य कर्म करना । बुद्धि योग को कर्मयोग भी कहा जाता है ।
अपनी सारी सोच, मन, बुद्धि व ध्यान को संसार की ओर ही लगा रहे हैं। किंतु यह सब हमें न वास्तविक शांति-सुख प्रदान करता है और न ही जीवन का वास्तविक लक्ष्य! इसीलिए आवश्यक है कि हम कृष्ण जी द्वारा बताए गए यथार्थ ज्ञान की ओर उन्मुख हो और जीवन के ध्येय को प्राप्त करें।
स एषा नेति नेत्यात्मा गृह्योः
कोई भी व्यक्ति बुद्धि पर आधारित स्व-प्रयास से ईश्वर को कभी नहीं समझ सकता।
भगवान राम हमारी बुद्धि, मन और वाणी की सीमा से परे हैं।
अब, यदि भगवान को जानने के विषय पर ये कथन स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि उन्हें जानना संभव नहीं है, तो फिर किसी के लिए भी ईश्वर-साक्षात्कार कैसे संभव हो सकता है?
श्रीकृष्ण यहाँ बताते हैं कि भगवान का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है। वे कहते हैं कि यह भगवान ही हैं जो आत्मा को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं, और जो भाग्यशाली आत्मा उनकी कृपा प्राप्त करती है, वह उन्हें जानने में सक्षम होती है। यजुर्वेद में कहा गया है।
तस्य नो रस्व तस्य नो धेहि।
भगवान के चरण कमलों से निकले अमृत में स्नान किए बिना कोई भी उन्हें नहीं जान सकता।" इस प्रकार, भगवान का सच्चा ज्ञान बौद्धिक व्यायाम का परिणाम नहीं है, बल्कि ईश्वरीय कृपा का परिणाम है। श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह भी उल्लेख करते हैं कि वे अपनी कृपा के प्राप्तकर्ता को मनमाने तरीके से नहीं चुनते हैं।
बल्कि, वे इसे उन लोगों को प्रदान करते हैं जो भक्ति में अपने मन को उनके साथ जोड़ते हैं। वे आगे बताते हैं कि जब हमें ईश्वरीय कृपा मिलती है तो क्या होता है।
जिसे तर्कों से जाना जा सकता है।
और जो हमारे ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंद्रियों से, हमारे बुद्धि से, हमारे मन से परे है, पहुंच के बाहर हो उस पर तर्क करने से कोई लाभ है क्या?
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