अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥ तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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हे श्री रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥

 किसी भी जीव को तीन तरह के दुःख होते हैं। इसके लिए संस्कृत शब्द है ‘त्रि-ताप-यातना’। ये तीन तरह के दुःख हैं:

१. आध्यात्मिक,

२. अधिभौतिक,

३. अधिदैविक।

आध्यात्मिक (अध्यात्म वाला नहीं) का अर्थ है वो दुःख जो ख़ुद के शरीर के कारण जन्मते हैं। जैसे कभी हम बीमार हो जाते हैं, कभी हमें चोट लग जाती है। कभी हम दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं। कभी हमारा मन हमें जीने नहीं देता। हमें तरह तरह के मानसिक दुःख होते हैं। ये सब आध्यात्मिक दुःख हैं।

अधिभौतिक दुःख वो हैं जो दूसरों के कारण हमें मिलते हैं। हो सकता है कि कोई हमारे साथ छल करे। या कभी कोई हमें चोट पहुँचाये, हमें मारे। या जाने अनजाने किसी की बातें हमें चुभ जाएँ। या कभी अचानक किसी प्रिय की मृत्यु की खबर आ जाए। ये सारे दुःख दूसरों पर निर्भर हैं और अधिभौतिक कहलाते हैं।

अधिदैविक वो दुःख हैं जो दैवीय कारण या प्राकृतिक कारण से मिलते हैं। कहीं सूखा पड़ सकता है, या अचानक तूफ़ान आ जाता है। कभी किसी जगह बाढ़ आ जाती है। तो कहीं भूकंप। ये सारे प्राकृतिक कारणों, या उन कारणों से जन्मे दुःख हैं जिन पर हमारे सीधा नियंत्रण नहीं है। अतः इन्हें अधिदैविक कहा जाता है।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेत्॥

आत्मा के लिए आत्म-विनाश के नरक की ओर ले जाने वाले तीन द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ। इसलिए मनुष्य को इन तीनों का परित्याग कर देना चाहिए।

अब श्रीकृष्ण आसुरी प्रवृत्ति की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं तथा काम, क्रोध और लोभ को इसके तीन कारण बताते हैं। 

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

 हे वृष्णिवंशी, श्रीकृष्ण! इच्छा न होते हुए भी मनुष्य पापजन्य कर्मों की ओर क्यों प्रवृत्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है।

 अर्जुन ने उनसे पूछा था कि लोग अनिच्छा से भी, मानो बलपूर्वक पाप करने के लिए क्यों प्रेरित होते हैं। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया था कि यह काम ही है, जो बाद में क्रोध में परिवर्तित हो जाता है, तथा संसार का सर्वभक्षी शत्रु है। लोभ भी काम का ही एक रूप है।

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषुपजायते।

सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

इन्द्रिय विषयों का चिन्तन करते समय मनुष्य उनमें आसक्ति उत्पन्न करता है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

आसक्ति अपने आप में बिलकुल हानिरहित लगती है। लेकिन समस्या यह है कि आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है। अगर कोई शराब के प्रति आसक्त है, तो मन में बार-बार शराब की इच्छा आती है। अगर कोई सिगरेट के प्रति आसक्ति रखता है, तो मन में सिगरेट पीने के आनंद के विचार बार-बार आते हैं, जिससे सिगरेट पीने की लालसा पैदा होती है। इस तरह आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है।

एक बार इच्छा विकसित हो जाने पर, यह दो और समस्याओं को जन्म देती है - लालच और क्रोध। लालच इच्छा की पूर्ति से आता है। 

जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥

 सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई- ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है॥

 यदि आप इच्छा को संतुष्ट करते हैं, तो यह लालच की ओर ले जाती है। इस प्रकार इच्छा को संतुष्ट करके कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है:

यत् पृथिव्यां वृहि-यवं हिरण्यं पशव: स्त्री: न दुह्यन्ति।

मन:-प्रीतिम पुंस: काम-हतस्य ते...॥

यदि किसी व्यक्ति को संसार की सारी सम्पत्ति, विलासिता और विषय-वस्तु मिल जाए, तो भी उसकी इच्छाएँ तृप्त नहीं होंगी। इसलिए, इसे दुख का कारण जानकर, बुद्धिमान व्यक्ति को इच्छा का त्याग कर देना चाहिए।

  काम, क्रोध और लोभ मिलकर ही वे आधार हैं, जिनसे आसुरी दुर्गुण विकसित होते हैं। ये मन में पनपते हैं तथा अन्य सभी दुर्गुणों को जड़ जमाने के लिए उपयुक्त भूमि बनाते हैं। परिणामस्वरूप, श्रीकृष्ण इन्हें नरक का द्वार बताते हैं तथा आत्म-विनाश से बचने के लिए इनसे दूर रहने की दृढ़तापूर्वक सलाह देते हैं। कल्याण की इच्छा रखने वालों को इन तीनों से डरना सीखना चाहिए तथा अपने व्यक्तित्व में इनकी उपस्थिति से सावधानीपूर्वक बचना चाहिए।

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