महात्मा बुद्ध का ज्ञान और यशोधरा का त्याग
The knowledge of Mahatma Buddha and the sacrifice of Yashodhara |
गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्चा, उनका बेटा राहुल एक ही दिन का था।
जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वभावत:। और उसके एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्या तुम्हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्या तुम सोचते हो कि मैं तुम्हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं।
अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगाकर तुम्हें भेज सकते है, तो सत्य की खोज पर नहीं भेज सकते?तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्लाती हूं, रूकावट डालती हूं।
कहते है बुद्ध से बहुत लोगों ने बहुत तरह के प्रश्न पूछे होंगे। मगर जिंदगी में एक मौका था जब वे चुप रह गए। जवाब न दे पाये। और यशोधरा ने एक के बाद एक तीर चलाए। और यशोधरा ने कहा कि मैं तुमसे दूसरी यह बात पूछती हूं कि जो तुमने जंगल में जाकर पाया, क्या तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो कि वह यहीं नहीं मिल सकता था?
यह भी भगवान बुद्ध कैसे कहें कि यहीं नहीं मिल सकता था। क्योंकि सत्य तो सभी जगह है। और भ्रम वश कोई अंजान कह दे तो भी कोई बात मानी जाये, अब तो उन्होंने खुद सत्य को जान लिया है, कि वह जंगल में मिल सकता है, तो क्या बाजार में नहीं मिल सकता। पहले बाजार में थे तब तो लगता था सत्य तो यहां नहीं है। वह तो जंगल में ही है। वह संसार में कहां वह तो संसार के छोड़ देने पर ही मिल सकता है। पर सत्य के मिल जाने के बात तो फिर उसी संसार और बाजार में आना पड़ा तब जाना यहां भी जाना जा सकता था सत्य का नाहक भागे। पर यहां थोड़ा कठिन जरूर है, पर ऐसा कैसे कह दे की यहां नहीं है। वह तो सब जगह है। भगवान बुद्ध के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने आंखे झुका ली।
और तीसरा प्रश्न जो यशोदा ने चोट की, शायद यशोधरा समझ न सकी की बुद्ध पुरूष का यूं चुप रह जाना अति खतरनाक है। उस पर बार-बार चोट कर अपने आप को झंझट में डालने जैसा है, बुद्धों के पास क्या होता है। ध्यान-ध्यान-ध्यान और सन्यास। सो इस आखरी चोट में यशोदा उलझ गई।
तीसरी बात उसने कही, राहुल को सामने किया और कहा कि ये तेरे पिता है। ये देख, ये जो भिखारी की तरह खड़ा है, हाथ में भिक्षा पात्र लिए। यही है तेरे पिता। ये तुझे पैदा होने के दिन छोड़ कर कायरों की तरह भाग गये थे। अंधेरे में अपना मुहँ छूपाये। जब तू मात्र के एक दिन का था। अभी पैदा हुआ नवजात। अब ये लौटे है, तेरे पिता, देख ले इन्हें जी भर कर। शायद फिर आये या न आये। तुझे मिले या न मिले। इनसे तू अपनी वसीयत मांग ले। तेरे लिए क्या है इनके पास देने के लिए। वह मांग ले। यह बड़ी गहरी चोट थी।
बुद्ध के पास देने को था ही क्या। यशोधरा प्रतिशोध ले रही थी बारह वर्षों का। उसके ह्रदय के घाव जो नासूर बन गये थे। बह रहा था पीड़ा और संताप का मवाद। नहीं सूखा था वो जख्म जो बुद्ध उस रात दे कर चले गये थे। लेकिन उसने कभी सोचा भी नहीं था कि ये घटना कोई नया मोड़ ले लेगी। वह तो भाव में बही जा रही थी। बात को इतने आगे तक खींच लिया था अब उस का तनाव उसकी तरफ वापस लौटेगा। इस की और उसका ध्यान गया ही नहीं। भगवान जो इतनी देर से शांत बैठे थे उनके चेहरे पर मंद हंसी आई, यशोधरा का क्रोध और भभक उठा। उसे इस बात का एहसास भी नहीं हो रहा था कि वह बंद रही है मकड़ी की तरह अपने ही ताने बाने में। भगवान ने तत्क्षण अपना भिक्षा पात्र सामने खड़े राहुल के हाथ में दे दिया। यशोधरा कुछ कहें या कुछ बोले। यह इतनी जल्दी हो गया। कि उसकी कुछ समझ में नहीं आया। इस के विषय में तो उसने सोचा भी नहीं था। भगवान ने कहा, बेटा मेरे पास देने को कुछ और है भी नहीं, लेकिन जो मैंने पाया है वह तुझे दूँगा। जिस सब के लिए मैने घर बार छोड़ा तुझे, तेरी मां, और इस राज पाट को छोडा़, और आज मुझे वो मिल गया है। मैं खुद चाहूंगा वही मेरे प्रिय पुत्र को भी मिल जाये। बाकी जो दिया जा सकता है। क्षणिक है। देने से पहले ही हाथ से फिसल जाता हे। बाकी रंग भी कोई रंग है। संध्या के आसमान की तरह, जो पल-पल बदलते रहते है। में तो तुझे ऐसे रंग में रंग देना चाहता हूं जो कभी नहीं छुट सकता। तू संन्यस्त हो जा।
बारह वर्ष के बेटे को संन्यस्त कर दिया। यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। उसने कहा ये आप क्या कर रहे है।
पर बुद्ध ने कहा, जो मेरी संपदा है वही तो दे सकता हूं। समाधि मेरी संपदा है, और बांटने का ढंग संन्यास है। और यशोधरा, जो बीत गई बात उसे बिसार दे। आया ही इसलिए हूं कि तुझे भी ले जाऊँ। अब राहुल तो गया। तू भी चल। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ हूं। उसकी तू भी मालिक हो जा।
और सच में ही यशोधरा बुद्ध ने अपने बेटे राहुल को भिक्षा पात्र दिया । गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्चा, उनका बेटा राहुल एक ही दिन का था। जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वभावत:। और उसके एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्या तुम्हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्या तुम सोचते हो कि मैं तुम्हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं।
अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगाकर तुम्हें भेज सकते है, तो सत्य की खोज पर नहीं भेज सकते?तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्लाती हूं, रूकावट डालती हूं।
कहते है बुद्ध से बहुत लोगों ने बहुत तरह के प्रश्न पूछे होंगे। मगर जिंदगी में एक मौका था जब वे चुप रह गए। जवाब न दे पाये। और यशोधरा ने एक के बाद एक तीर चलाए। और यशोधरा ने कहा कि मैं तुमसे दूसरी यह बात पूछती हूं कि जो तुमने जंगल में जाकर पाया, क्या तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो कि वह यहीं नहीं मिल सकता था?
यह भी भगवान बुद्ध कैसे कहें कि यहीं नहीं मिल सकता था। क्योंकि सत्य तो सभी जगह है। और भ्रम वश कोई अंजान कह दे तो भी कोई बात मानी जाये, अब तो उन्होंने खुद सत्य को जान लिया है, कि वह जंगल में मिल सकता है, तो क्या बाजार में नहीं मिल सकता। पहले बाजार में थे तब तो लगता था सत्य तो यहां नहीं है। वह तो जंगल में ही है। वह संसार में कहां वह तो संसार के छोड़ देने पर ही मिल सकता है। पर सत्य के मिल जाने के बात तो फिर उसी संसार और बाजार में आना पड़ा तब जाना यहां भी जाना जा सकता था सत्य का नाहक भागे। पर यहां थोड़ा कठिन जरूर है, पर ऐसा कैसे कह दे की यहां नहीं है। वह तो सब जगह है। भगवान बुद्ध के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने आंखे झुका ली।
और तीसरा प्रश्न जो यशोदा ने चोट की, शायद यशोधरा समझ न सकी की बुद्ध पुरूष का यूं चुप रह जाना अति खतरनाक है। उस पर बार-बार चोट कर अपने आप को झंझट में डालने जैसा है, बुद्धों के पास क्या होता है। ध्यान-ध्यान-ध्यान और सन्यास। सो इस आखरी चोट में यशोदा उलझ गई।
तीसरी बात उसने कही, राहुल को सामने किया और कहा कि ये तेरे पिता है। ये देख, ये जो भिखारी की तरह खड़ा है, हाथ में भिक्षा पात्र लिए। यही है तेरे पिता। ये तुझे पैदा होने के दिन छोड़ कर कायरों की तरह भाग गये थे। अंधेरे में अपना मुहँ छूपाये। जब तू मात्र के एक दिन का था। अभी पैदा हुआ नवजात। अब ये लौटे है, तेरे पिता, देख ले इन्हें जी भर कर। शायद फिर आये या न आये। तुझे मिले या न मिले। इनसे तू अपनी वसीयत मांग ले। तेरे लिए क्या है इनके पास देने के लिए। वह मांग ले। यह बड़ी गहरी चोट थी।
बुद्ध के पास देने को था ही क्या। यशोधरा प्रतिशोध ले रही थी बारह वर्षों का। उसके ह्रदय के घाव जो नासूर बन गये थे। बह रहा था पीड़ा और संताप का मवाद। नहीं सूखा था वो जख्म जो बुद्ध उस रात दे कर चले गये थे। लेकिन उसने कभी सोचा भी नहीं था कि ये घटना कोई नया मोड़ ले लेगी। वह तो भाव में बही जा रही थी। बात को इतने आगे तक खींच लिया था अब उस का तनाव उसकी तरफ वापस लौटेगा। इस की और उसका ध्यान गया ही नहीं। भगवान जो इतनी देर से शांत बैठे थे उनके चेहरे पर मंद हंसी आई, यशोधरा का क्रोध और भभक उठा। उसे इस बात का एहसास भी नहीं हो रहा था कि वह बंद रही है मकड़ी की तरह अपने ही ताने बाने में। भगवान ने तत्क्षण अपना भिक्षा पात्र सामने खड़े राहुल के हाथ में दे दिया। यशोधरा कुछ कहें या कुछ बोले। यह इतनी जल्दी हो गया। कि उसकी कुछ समझ में नहीं आया। इस के विषय में तो उसने सोचा भी नहीं था। भगवान ने कहा, बेटा मेरे पास देने को कुछ और है भी नहीं, लेकिन जो मैंने पाया है वह तुझे दूँगा। जिस सब के लिए मैने घर बार छोड़ा तुझे, तेरी मां, और इस राज पाट को छोडा़, और आज मुझे वो मिल गया है। मैं खुद चाहूंगा वही मेरे प्रिय पुत्र को भी मिल जाये। बाकी जो दिया जा सकता है। क्षणिक है। देने से पहले ही हाथ से फिसल जाता हे। बाकी रंग भी कोई रंग है। संध्या के आसमान की तरह, जो पल-पल बदलते रहते है। में तो तुझे ऐसे रंग में रंग देना चाहता हूं जो कभी नहीं छुट सकता। तू संन्यस्त हो जा।
बारह वर्ष के बेटे को संन्यस्त कर दिया। यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। उसने कहा ये आप क्या कर रहे है।
पर बुद्ध ने कहा, जो मेरी संपदा है वही तो दे सकता हूं। समाधि मेरी संपदा है, और बांटने का ढंग संन्यास है। और यशोधरा, जो बीत गई बात उसे बिसार दे। आया ही इसलिए हूं कि तुझे भी ले जाऊँ। अब राहुल तो गया। तू भी चल। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ हूं। उसकी तू भी मालिक हो जा।
और सच में ही यशोधरा ने सिद्ध कर दिया कि वह क्षत्राणी थी। तत्क्षण पैरों में झुक गई और उसने कहा, मुझे भी दीक्षा दें। और दीक्षा लेकर भिक्षुओं में, संन्यासियों में यूं खो गई कि फिर उसका कोई उल्लेख नहीं है। पूरे धम्म पद में कोई उल्लेख नहीं आता। हजारों संन्यासियों कि भीड़ में अपने को यूँ मिटा दिया। जैसे वो है ही नहीं। लोग उसके त्याग को नहीं समझ सकते। अपने मान, सम्मान, अहंकार को यूं मिटा दिया की संन्यासी भूल ही गये की ये वही यशोधरा है। भगवान बुद्ध की पत्नी। बहुत कठिन तपस्या थी यशोधरा की। पर वो उसपर खरी उतरी। उसकी अस्मिता यूं खो गई जैसे कपूर। बौद्ध शास्त्रों में इस घटना के बाद उसका फिर कोई उल्लेख नहीं आता। कैसे जीयी, कैसे मरी, कब तक जीयी, कब मरी, किसी को कुछ पता नहीं। हां राहुल का जरूर जिक्र आता है बौद्ध शास्त्रों में जब उसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ, शायद वह सोलह साल का था। उस रात उसे मार ने डराया, वह संन्यासियों की कतार में बहुत दूर सोता था। एक साधारण सन्यासी की तरह। उस रात वह जब मार ने उसे डराया, तब वह गंध कुटी के बाहर आ कर सो गया। भगवान बुद्ध की कुटिया को गंध कुटी कहते थे। उसी रात राहुल ब्रह्म ज्ञान को उपलब्ध हुआ। मात्र राहुल का भी बौद्ध ग्रंथों में यही वर्णन आता है। कठिन था जीवन, रोज-रोज भिक्षा मांग कर खानी होती थी। और जब आप अति विशेष हो तो आपको अपनी अति विशेषता को छोड़ना अति कठिन है। यशोधरा और राहुल ने छोड़ा, उन संन्यासियों की भिड़ में ऐसे गुम हो गये। यूं लीन हो गये, यूं डूब गये, इसको कहते है ज्ञान। कि आने के पद चाप भी आप न देख सके कोई ध्वनि भी न हुई, कोई छाया तक नहीं बनी। तभी कोई अपने घर आ सकता है। बेण्ड बाजा बजा कर केवल आने का भ्रम पैदा कर देना है
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