धर्म-मर्यादा का ज्ञान
knowledge of religious norms
बोधिसत्त्व एक दिन सुंदर कमल के तालाब के पास बैठे वायु-सेवन कर रहे थे। कमल की मनोहारी छटा ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया , तो वे चुप बैठे न रह सके। उठे और सरोवर में उतरकर निकट से जलज का पान कर तृप्ति लाभ करने लगे।
तभी किसी देवकन्या का स्वर सुनाई पड़ा , "तुम बिना कुछ दिए ही इन कमल पुष्पों की सुरभि का सेवन कर रहे हो। यह चौर कर्म है। तुम गंध चोर हो !"
तथागत उसकी बात सुनकर स्तंभित रह गए। तभी एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल - पुष्प तोड़ने लगा। बड़ी देर तक उस व्यक्ति ने पुष्पों को तोड़ा - मरोड़ा , पर रोकना तो दूर किसी ने उसे मना तक भी न किया ! !!
तब बुद्धदेव ने उस कन्या से कहा , "देवी ! मैंने तो केवल गंधपान ही किया था। पुष्पों का अपहरण तो नहीं किया था। तोड़े भी नहीं , फिर भी तुमने मुझे चोर कहा ! और यह मनुष्य कितनी निर्दयता के साथ फूलों को तोड़कर तालाब को अस्वच्छ तथा असुंदर बना रहा है , तुम इससे कुछ क्यों नहीं कहतीं ?"
तब वह देवकन्या गंभीर होकर कहने लगी , "तपस्वी ! लोभ तथा तृष्णाओं में डूबे संसारी मानव धर्म तथा अधर्म में भेद नहीं कर पाते ! वह संसारी मानव अज्ञान के वश है। अतः उन पर धर्म की रक्षा का भार नहीं है।
किंतु आप तो धर्मरत हैं , सत्य - असत्य के ज्ञाता हैं। नित्य अधिक से अधिक पवित्रता तथा महानता के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। आपका तनिक - सा पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है। एक धर्मरक्षक होते हुए भी आप ऐसा कर रहे थे , इसीलिए आपको मैंने चोर कहा ! अब बोधिसत्व को अपना अपराध बोध हो चुका था। वे नतमस्तक थे , और शर्मिंदा भी ! !!
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