भगवान् श्रीराम की शरणागतवत्सलता सुप्रसिद्ध है। जब राक्षसराज विभीषण भगवान् की शरण में जाते हैं और जब सम्मति पूछे जाने पर सेनापति सुग्रीव विभीषण को बाँधकर रखने की राय देते हैं, तब भगवान् श्रीराम, नीति की दृष्टि से सुग्रीव की सम्मति का सम्मान करते हुए अपना प्रण सुनाते हैं-
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारि।
मम पन सरनागत भयहारी।।
इसके बाद विभीषण आदरपूर्वक श्रीराम के सामने लाये जाते हैं और श्रीराम उनकी सच्ची शरणागति पर मुग्ध होकर, इच्छा न रहने पर भी उन्हें लंकाधिपति बना देते हैं। केवल मुहँ से ही ‘लंकेश’ नहीं कहते, परंतु ‘मोर दरसु अमोघ जग माहीं’ कहकर अपने हाथ से उनका राजतिलक भी कर देते हैं। सुग्रीव को यहाँ बड़ा आश्चर्य होता है। वे सेनापति की हैसियत से सोचते हैं कि अभी लंका पर विजय तो मिली ही नहीं, पहले ही विभीषण को ‘लंकेश’ बनाकर श्रीराम ने भारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ली है।
इससे सुग्रीव राजनीति-कुशलता से बड़े ही विनम्रभाव से श्रीराम से एकान्त में पूछते हैं- ‘नाथ ! विभीषण को तो शरणागति का फल मिल गया, परंतु हे स्वामिन् ! यदि कल इसी प्रकार रावण शरण में आ जाय तो फिर क्या लंका का राज्य उसे नहीं दिया जायगा ? दिया जायगा तो स्वामी के वचन कैसे रहेंगे और यदि नहीं दिया जायगा तो रावण को संतोष कैसे होगा ?’
भगवान् श्रीराम सुग्रीव का आशय समझकर हँसते हुए कहते हैं- ‘मित्र ! राम का व्रत यही है कि वह जो कुछ एक बार कह देता है उसे पलटता नहीं। लंका तो विभीषण की ही होगी, यदि रावण आयेगा तो उसके लिये अवध तैयार है’-
बात कही जो कही सो कही, जो कही सो कही फिरि फेरि न आनन।
जो दसकंधर आन मिलै, गढ़ लंक विभीषन, अवध दसानन।।
भरतहिं बंधु समेत कलाप, करूँ निज बास मैं हौं गिरि कानन।
पै नहिं पावहिं लंक अबास, कहौं सतिभाव नरेस दसानन।।
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