जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते...
जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,॥
जो राम को जान लेता है वह स्वयम् राम मय हो जाता है। लेकिन जानना भी इतना आसान नहीं है। मनुष्य तो माया के वशीभूत होकर रहता है ।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
लेकिन आपको वही जानता है, जिस पर आपकी कृपा होती है और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं॥
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी (भगवान की) जड़ स्वरूप अपरा माया है" हमारा मन-बुद्धि माया का बना है, इसलिए हमारे विचार भी माया के अंतर्गत होते है। गुण माया को प्रकृति माया भी कहते है।
परमात्मा की प्राप्ति का असली उपाय है भीतर की लगन , जैसे प्यास लगे तो जल याद आता है, भूख लगे तो अन्न याद आता है, ऐसे भगवान की याद आये । आप पापी, दुराचारी कैसे ही हों, एक भगवान् की लगन लग जाय तो सब ठीक हो जायगा।
एक भगवान् के सिवाय कोई चाहना न हो तो भगवान् मिल जायँगे , कारण कि मनुष शरीर का प्रयोजन ही ईश्वर को प्राप्त करना है सब काम करते हुए भी भीतर लगन ईश्वर की ही रहे ।
हाथ काम मुख राम है, हिरदै साची प्रीत।
दरिया गृहस्थी साध की, याही उत्तम रीत॥
भगवान का दर्शन कब होता है ? पहले यह सिद्धांत समझ लीजिए । भगवान का दर्शन होता है तब जब साधना द्वारा मन बुद्धि अन्तःकरण शुद्ध होकर दिव्यातिदिव्य बन जाते हैं क्योंकि भगवान दिव्य हैं और उनका ग्रहण दिव्य इन्द्रियों द्वारा ही सम्भव है।मायिक इन्द्रियों द्वारा भगवान अग्राह्य हैं । इन सब से परे हैं । दर्शन एकमात्र तभी होगा जब अन्तःकरण शुद्ध होकर दिव्य बनता है। और दर्शन होते ही तत्काल प्रभाव से माया निवृत्ति हो जाती है । प्रकाश आया कि अंधकार गया । भला अंधकार प्रकाश के सामने कैसे ठहर सकता है । और एक बार दर्शन हुए , दर्शन मतलब परमानंद प्राप्त होना , भगवदप्राप्त हो जाना , माया निवृत्ति हो जाना , दुःख निवृत्ति हो जाना , स्वयं भगवद्मय बन जाना , दैहिक दैविक भौतिक तापों से मुक्त हो जाना।
ॐ तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूर्यः।
फिर कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं । क्योंकि तब जीव के मन बुद्धि चित्त कार्य नहीं करते बल्कि स्वयं भगवान कार्य करते हैं । भगवान के दर्शन कोई ऐसी वैसी चीज़ नहीं है कि एक बार हुई या बार बार होती रहेगी । फिर माया से आबद्ध होंगे फिर दर्शन होंगे , फिर माया जाएगी , फिर माया आएगी फिर जाएगी । न न वह तो एक बार भगवान का आना हुआ कि माया वहाँ टिक तक नहीं सकती । तीन तत्व हैं । ब्रह्म ,जीव , माया । चित्त शक्ति , तटस्था शक्ति ,और माया शक्ति । तटस्था शक्ति यही चित्त शक्ति और माया शक्ति के बीच में है ।भगवान और माया यह दो विपरीत शक्तियाँ हैं । भगवान की ही शक्ति है माया । लेकिन भगवान प्रकाश के समान हैं और माया अंधकार के । यह अंधकार प्रकाश का ही अंश है । अगर प्रकाश न हो तो अंधकार का कोई अस्तित्व ही न हों । तो जैसे ही दर्शन होगा त्वरित रूप से माया चली जायेगी । ऐसा नहीं है कि जब तक लोहा पारस के संसर्ग में है तभी तक वह सोना बना रहेगा । पारस ने अपना काम कर दिया है ,अब चाहे पारस को लोहे के सम्पर्क से हटा दो तब भी वह सोना बना रहेगा । दूध से मक्खन बन चुका है ,अब वह दुबारा दूध नहीं बन सकता ।
सुख खोजन को जग चला सुख नहि हाट बिकात' ।
सुख के लिए प्रयास करते रहने पर भी सुख नहीं मिलता । अथवा कम मिलता है । जितना चाहिये उतना नहीं मिलता । और दुख के लिए कोई प्रयास नहीं करता फिर भी दुख मिलता ही रहता है । हर कोई दुखी होता है ।
कहते हैं गर्भ में जीव को बहुत कष्ट मिलता है । और उसके बाद जन्म के समय असहनीय पीड़ा होती है । इसी तरह मृत्यु के समय भी असहनीय पीड़ा होती है । गोस्वामीजी ने कहा भी है।
जनमत मरत दुसह दुख होई ।
गर्भ के समय और जन्म के समय की पीड़ा किसी को याद नहीं रहती और मर जाने के बाद मरते समय की पीड़ा भी चली जाती है ।
लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच का समय जो जीवन कहलाता है । इसमें जीव को कितनी पीड़ा होती है । कभी काम न बनने से, कभी बने हुए काम के बिगड़ जाने से पीड़ा होती है । मनोनुकूल काम न होने से पीड़ा होती है । कभी किसी के बिछुड़ने से तो कभी किसी के मिलने से पीड़ा होती है । कभी रोग से, कभी शोक-संताप से पीड़ा होती है । जीवन में पीड़ा अथवा दुख के कितने अवसर हैं ।
यदि जीवन के सुख, शांति के अवसरों की तुलना दुख और अशांति के अवसरों से की जाए तो यही सामने आएगा कि सुख-शांति के अवसर कम और दुख-अशांति के अवसर ही ज्यादा है । जीवन में भटकाव बहुत है । स्थिरता कम है ।
दुख से सदा-सदा के लिए छूट जाने के लिए ही भगवान के शरणागति की जरूरत है । भक्ति की जरूरत है । साधु, संत और सदग्रंथ कहते हैं कि बिना राम जी से जुड़े जीवन में दुख का अंत नहीं है । भटकाव रुकने वाला नहीं है । सच्ची शांति मिलने वाली नहीं है । इसलिए भगवान राम से जुड़ने की जरूरत है । सच्चे मन से यदि कोई राम जी से जुड़ जाय तो फिर अशांति कहाँ ? और दुख कहाँ ?
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
इसलिए दर्शन होने के पश्चात माया निवृत्ति हो गयी , अनंतानंत जन्मों के पाप और पुण्य दोनों भस्म हो गए , वह भगवदप्राप्त महापुरुष बन गया , वह बुद्ध बन गया , वह महावीर बन गया अब दुबारा वह अबुद्ध नहीं बन सकता या वह दुबारा महाकायर नहीं बन सकता ।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
अरे बड़े बड़े ब्रहर्षि महर्षि साधना कर कर के हार जाते हैं उनको दर्शन नहीं होते। इसीलिए मेरे भाई अंत के भरोसे में ना रहना यह जिह्वा कब फिसल जाए पता नहीं। इसलिए आज से ही अभ्यास करना शुरू कर दो। पैर में कांटा चुभते ही मैया दईया चिल्लाते हैं। पर यदि हर बात में राम का नाम निकले यही तो कल्याण का मार्ग है।
यह बात अलग है कि अजामिल ने अपने बेटे के नाम से अभ्यास कर रखा था पर निकला अंतिम समय में भगवान का नाम ही तो अंत में अजामिल के मुख से धोखे से निकला नारायण नाम उसके पापों से छुटकारा दिला मुक्ती प्रदान करा दिया।
क्रियाओं के द्वारा भगवान् पर कब्जा नहीं कर सकते , कितनी ही योग्यता प्राप्त कर लें, उनपर अधिकार नहीं जमा सकते , कारण कि इनके द्वारा अधिकार उसी पर होता है, जो इनसे कमजोर होता है ।
सौ रुपयों के द्वारा हम उसी चीज पर कब्जा कर सकते हैं, जो सौ रुपयों से कम कीमतकी है, कोई चीज सौ रूपये की है तो हम एक सौ पचीस रुपये देकर उस चीज पर कब्जा कर सकते हैं ।
अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ, उनके बिना न रह सको, तो बड़े-बड़े पण्डित और बड़े-बड़े विरक्त तो रोते रहेंगे, पहले आपको भगवान् मिलेंगे। आप भगवान् के बिना रह नहीं सकोगे तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे।
भक्ति करना चाहते हैं, सबसे पहले अपनी सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करना चाहिए, जब तक ये कामनाएं रहती हैं, तब तक भगवान की भक्ति नहीं हो सकती है
सांसारिक वस्तुएं भोग हैं और जब तक भोग का अंत नहीं होगा, तब तक व्यक्ति भगवान की भक्ति में मन नहीं लगा पाएगा। उदाहरण के लिए कि कोई बच्चा खिलौने से खेलने में व्यस्त रहता है और अपनी मां को याद नहीं करता है। जब उसका मन खिलौने से भर जाता है या उसका खेल खत्म हो जाता है, तब उसे मां की याद आती है। यही स्थिति हमारी भी है।
जब तक हमारा मन सांसारिक वस्तुओं और कामवासना के खिलौने में उलझा रहेगा, तब तक हमें भी अपनी मां यानी परमात्मा का ध्यान नहीं आएगा। भगवान को पाने के लिए, भक्ति करने के लिए हमें भोग-विलास से दूरी बनानी पड़ती है।
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