विश्वमोहिनी का स्वयंवर, शिवगणों तथा भगवान्‌ को शाप और नारद का मोहभंग

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड

विश्वमोहिनी का स्वयंवर, शिवगणों तथा भगवान्‌ को शाप और नारद का मोहभंग


चौपाई :

जेहि दिसि बैठे नारद फूली।

सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥

पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।

 देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥

भावार्थ:-

जिस ओर नारदजी (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिवजी के गण मुसकराते हैं॥1॥


धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला।

कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा।

 नृपसमाज सब भयउ निरासा॥2॥

भावार्थ:-

कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमंडली निराश हो गई॥2॥


मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी

मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥

तब हर गन बोले मुसुकाई।

निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥3॥

भावार्थ:-

मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब शिवजी के गणों ने मुसकराकर कहा- जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!॥3॥


अस कहि दोउ भागे भयँ भारी।

बदन दीख मुनि बारि निहारी॥

बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा।

तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥4॥

भावार्थ:-

ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दिया-॥4॥


दोहा :

होहु निसाचर जाइ तुम्ह, कपटी पापी दोउ।

हँसेहु हमहि सो लेहु फल, बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥।135॥

भावार्थ:-

तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना।135॥


चौपाई :

पुनि जल दीख रूप निज पावा।

तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥

फरकत अधर कोप मन माहीं।

सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥

भावार्थ:-

मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले॥1॥


देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई।

जगत मोरि उपहास कराई॥

बीचहिं पंथ मिले दनुजारी।

संग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥

भावार्थ:-

(मन में सोचते जाते थे-) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थीं॥2॥


बोले मधुर बचन सुरसाईं।

मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥

सुनत बचन उपजा अति क्रोधा।

 माया बस न रहा मन बोधा॥3॥

भावार्थ:-

देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा- हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा॥3॥


पर संपदा सकहु नहिं देखी।

तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु।

सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥

भावार्थ:-

(मुनि ने कहा-) तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया॥4॥


दोहा :

असुर सुरा बिष संकरहि, आपु रमा मनि चारु।

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह, सदा कपट ब्यवहारु॥136॥


भावार्थ:-

असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥136॥

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