गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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इस मन से हम जो भी सोचते हैं या सोच सकते हैं, वह सब माया ही है। अथवा ये कहें इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना।

 उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो- एक अविद्या दुष्ट दोषयुक्त है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक विद्या जिसके वश में गुण है और जो जगत्‌ की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है।

मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो, ज्ञानी कहलाने पर भी अज्ञानी है, दुनिया के सारे शास्त्र केवल मनुष्य के लिए ही बने है और इसके बाद भी ज्ञान की धारा का प्रवाह अवरुद्ध दिखाई पड़ता है।

इसका ये अर्थ हुआ कि जिसे हम विधा समझ रहे है वास्तव में वह तो केवल मात्र सूचना एकत्र करने का जरिया है, इससे विधा का सीधा कोई सम्बन्ध साबित नहीं होता है, सभी शास्त्रों में एक बात ऊभर कर सामने आती है कि शरीर स्थूल है और पाँच तत्वों से मिलकर बना हुआ है, इन्द्रियाँ शरीर से शूक्ष्म है और शक्तिवान है, मन इन्द्रियों से शूक्ष्म एवं बलवान है।

प्राण (परा-शक्ति,चेतना) मन से शूक्ष्म और बलवान है, प्राण से शूक्ष्म एवं बलवान स्वयं आत्मा अर्थात परर्ब्रह्म, परमेश्वर का प्रतिनिधि है, शरीर की चेतना शक्ति प्राण है और यही इस शारीर का संचालक भी है।

 शरीर रथ है ,इन्द्रियाँ अश्व ,मन सारथि और प्राण रथी है, आत्मा लक्ष्य है प्राण का और प्राण का स्वभाव है अध्यात्म यानि आत्मा की अधीनता या आत्मा के साथ मेल।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परम् ।

जीवभूतं महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥

ऐसी है मेरी अपरा शक्ति। किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इससे परे मेरी एक श्रेष्ठ शक्ति है। यह जीव शक्ति है , जिसमें वे देहधारी आत्माएँ सम्मिलित हैं जो इस संसार में जीवन का आधार हैं।

श्री कृष्ण बताते हैं कि आठ गुना प्रकृति से परे, भौतिक ऊर्जा, जिसे वे निम्नतर कहते हैं; एक और है जो कहीं अधिक श्रेष्ठ है। यह ऊर्जा निर्जीव पदार्थ की तुलना में पूरी तरह से पारलौकिक है। यह उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा है, जीव शक्ति , जिसमें दुनिया की सभी जीवित आत्माएँ शामिल हैं।

अपरा और परा शक्ति परम पुरुषोत्तम की महिमा और महिमा (स्वभाव , शक्ति) है जो संपूर्ण एकीकृत ब्रह्मांड है। अपरा प्रकृति विशाल दृश्यमान ब्रह्मांड है। इसे क्षर-विराट, महाब्रह्म , माया" भी कहा जाता है। 

यह आठ गुना है: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और तीन गुण: सत्व, रजस और तम।

परा और अपरा प्रकृति के बीच के अंतर को समझें।पानी से भरा एक घड़ा है, और उसमें सूर्य का गोला प्रतिबिम्बित हो रहा है। यहाँ घड़ा और पानी अपरा प्रकृति- निम्न प्रकृति हैं, और पानी में चमकता हुआ सूर्य का प्रतिबिम्बित गोला परा प्रकृति, उच्च प्रकृति है। घड़ा शरीर का प्रतीक है, पानी मन का, और प्रतिबिम्बित सूर्य व्यक्तिगत आत्म (अहंकार) का प्रतीक है, जिसके द्वारा मनुष्य यह सोचकर भ्रमित हो जाता है कि वह एक अलग और वास्तविक व्यक्तित्व है। आकाश में चमकता हुआ असली सूर्य आत्मा, पुरुष, भगवान है। जब घड़ा और पानी नष्ट हो जाते हैं, तो सूर्य पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपनी प्राचीन महिमा में चमकता है।इसलिए शरीर के नष्ट हो जाने से आत्मा पर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि आत्मा शाश्वत है।

ज्ञानी व्यक्ति बर्तन, पानी और प्रतिबिंब को छोड़कर, वास्तविक स्वयं प्रकाशमान सूर्य को देखता है। इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति भी शरीर, मन और अहंकार में आसक्त नहीं होता, जो कि उसका व्यक्तिगत स्वरूप है। वह आत्मा की शरण लेता है जो इन तीनों से भिन्न है, उसी प्रकार जैसे आकाश में स्थित सूर्य जल में प्रतिबिंबित सूर्य से सर्वथा पृथक है।

सारे परिवर्तन घड़े के पानी और उसमें पड़ने वाले प्रतिबिंब से संबंधित हैं। असली सूर्य नहीं बदलता। घड़ा बड़ा हो या छोटा, पानी शुद्ध हो या गंदा। इससे सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी तरह मनुष्य के शरीर और मन में होने वाले परिवर्तन आत्मा को प्रभावित नहीं करते। भगवान की परा और अपरा प्रकृति में सभी प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं, लेकिन भगवान, पुरुष, उनसे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होते। तत्व (अपरा प्रकृति) जड़ हैं। अद्वैतवादी अवधारणा के अनुसार, दोनों प्रकृतियाँ मिथ्या हैं। जो वास्तविक है वह आत्मा है। आत्मा तक पहुँचने के लिए साधक को निम्न और उच्च प्रकृति दोनों को छोड़ना पड़ता है। बेशक, जीवन तत्व, व्यक्तित्व अवस्था, स्थूल जड़ पदार्थ से श्रेष्ठ है। लेकिन यह भी प्रकृति का एक घटक हिस्सा है और वास्तविकता का गुण नहीं दावा कर सकता। एक सपने में आदमी सपने की चट्टानों और पेड़ों से श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन जागृत आदमी के लिए स्वप्न-मनुष्य और स्वप्न जगत दोनों पूरी तरह से मिथ्या हैं। इस प्रकार हम उस एक परम सत्य तक पहुँचते हैं जो परा और अपरा प्रकृति में स्थित है, जो पुरुष के नियंत्रण में है। यह जानते हुए कि वैयक्तिक अहंकार और संसार दोनों ही मिथ्या हैं, साधक को परम ब्रह्म की शरण लेनी चाहिए।

अब प्रश्न यह उठता है कि परा प्रकृति क्या है?

 यह जीवन तत्व है। इसी से ब्रह्माण्ड चलता है। यह अपरा प्रकृति से श्रेष्ठ है।

भारत के कई महान दार्शनिकों ने अपने दृष्टिकोण दिए हैं और ईश्वर और जीव, व्यक्तिगत आत्मा के बीच के संबंध का वर्णन किया है। उदाहरण के लिए, अद्वैतवादी कहते हैं: 

  जीवो ब्रह्मैव नापरः

 “आत्मा ही ईश्वर है।” लेकिन यह अवधारणा कई सवालों को जन्म देती है, जैसे-

आत्मा स्वयं भगवान कैसे हो सकती है? भगवान सबसे शक्तिशाली हैं और माया उनकी अधीनस्थ शक्ति है। आत्मा हमेशा माया से अभिभूत रहती है । तो क्या माया भगवान से भी अधिक शक्तिशाली है?

एतद्योनिनि भूतानि सर्वानितुपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥

जान लो कि सभी जीव मेरी इन दो शक्तियों से प्रकट होते हैं। मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि का मूल हूँ और यह पुनः मुझी में विलीन हो जाती है।

जीवात्मा ईश्वर की दो शक्तियों का प्रकटीकरण है, जीव शक्ति, जो कि सजग आत्मा की ऊर्जा है, और माया, जो कि जड़ भौतिक ऊर्जा या पदार्थ है। भौतिक जगत में, सारा जीवन पदार्थ और आत्मा दोनों का संयोजन है। पदार्थ अपने आप में जड़ या निर्जीव है, और सजग आत्मा को वाहक शरीर की आवश्यकता होती है। इसलिए, दोनों मिलकर एक जीवित प्राणी का निर्माण करते हैं।

आत्मा हमेशा अज्ञान और दुख से ग्रस्त रहती है। उसे अपने अस्तित्व और उद्देश्य के बारे में भी संतों और शास्त्रों से निरंतर याद दिलाने की आवश्यकता होती है। ईश्वर जो सर्वज्ञ है, उसे अज्ञानता से ग्रस्त आत्मा कैसे माना जा सकता है?

वेदों में बार-बार कहा गया है कि ईश्वर इस दुनिया में और उससे परे भी सर्वव्यापी है। इसी तरह, व्यक्तिगत आत्मा को भी किसी भी समय कहीं भी मौजूद रहने में सक्षम होना चाहिए। फिर मृत्यु के बाद स्वर्ग या नर्क जाने का सवाल क्या है?

ईश्वर तो एक ही है, लेकिन आत्माएं अनगिनत हैं। अगर आत्मा ही ईश्वर है, तो ईश्वर तो कई होने चाहिए। इसलिए, अद्वैतवादी दार्शनिकों का यह दावा कि आत्मा ही ईश्वर है, अनिर्णायक है।

द्वैतवादी दार्शनिकों का कथन है कि आत्मा और ईश्वर अलग-अलग हैं।।

 वे कहते हैं कि आत्मा जीव शक्ति ईश्वर की आध्यात्मिक ऊर्जा का एक हिस्सा है। और जैसा कि पहले बताया गया है, माया, भौतिक ऊर्जा भी उनकी अधीनस्थ है। इस प्रकार, ईश्वर सर्वोच्च है; वे निम्न भौतिक और उच्च आध्यात्मिक ऊर्जा दोनों के अधिपति हैं।

धर्मग्रंथों में भी सृष्टि में तीन सत्ताओं के अस्तित्व का उल्लेख है:

क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर:क्षरात्मनं विषते देव एक: तस्याभिध्यानाद योजनात तत्त्वभावाद् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्ति:

अस्तित्व में तीन तत्व हैं: 

1) पदार्थ, जो नाशवान है। 

2) आत्माएँ जो अविनाशी हैं। 

3) ईश्वर, जो पदार्थ और आत्मा दोनों का नियंत्रक है। 

ईश्वर का ध्यान करने, उनसे एक होने और उनके जैसा बनने से आत्मा संसार के भ्रम से मुक्त हो जाती है।"

वेदों में द्वैतवादी और अद्वैतवादी दोनों ही अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। आत्मा और ईश्वर के बीच एकरूपता और भिन्नता की अवधारणा को बरकरार रखा है। इसका मतलब है कि ईश्वर और आत्मा एक हैं, फिर भी एक दूसरे से अलग हैं।

जिसने अपना प्राण आत्मा की और उन्मुख कर लिया है अर्थात जुड़ा हुआ है, आत्म संयुक्त प्राणवान व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, और श्री कृष्ण अर्जुन को बार बार "तू योगी बन कहते है, इसका अर्थ हुआ कि यदि किसी जीव को अपने लक्ष्य आत्म-मिलन तक पहुंचना है, तो उसे आत्मोन्मुख होना पड़ेगा।

माया क्या है? माया की परिभाषा और उसके प्रकार?

मैं अरु मोर तोर तैं माया।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥

मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥ इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना।

 जैसे एक कुल्हाड़ी। कुल्हाड़ी अपने आप कुछ नहीं कर सकती। वैसे ही माया अपने आप कुछ नहीं कर सकती। जब लकड़हारा उस कुल्हाड़ी को उठा कर तने पर प्रहार करता है। तब वह कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर काम करती हैं।

 एक उदाहरण से समझिए, सूर्य की किरण जल (तालाब) में पड़ती हैं।

तो ये किरण कहाँ है? जल में हैं। तो जल में सूर्य नहीं है। सूर्य ऊपर है और किरण नीचे है। यह किरण ऊपर नहीं जा सकती क्योंकि वो नीचे है। लेकिन सूर्य के बिना किरण तालाब पर नहीं पड़ सकती। किरण का अपना अस्तित्व पृथक (अलग) नहीं हैं। सूर्य से ही किरण का अस्तित्व है।

जैसे किरण का अपना अलग अस्तित्व नहीं है, वैसे ही माया का अपना अलग अस्तित्व नहीं है। जैसे किरण जल में रहती है, सूर्य के बिना, वैसे ही माया भी रहती है भगवान के बिना।

यह संसार भगवान और माया दोनों के मिलन से बना है। यह माया के अंदर भगवान व्याप्त हुए है। तुलसीदस कहते है

 घट-घट व्यापक राम

अर्थात राम एक एक कण में व्यापक/व्याप्त है।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।

चेतन अमल सहज सुख रासी॥

अर्थात राम माया के एक एक कण में व्यापक है। अर्थात भगवान माया के साथ रहते हैं, माया के एक-एक कण में रहते हैं। भगवान माया में व्याप्त है। ऊपर दिए गए उदाहरण में किरण को माया बतया। ये किरण में सूर्य की शक्ति है।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

सनातन अंश हैं. एक दिन अंश हुए ऐसा नही. तो वेद भी कह रहा है अंश है, वेदांत भी कह रहा है अंश है, स्मृतियाँ भी कह रही है, गीता भी कह रही है, भागवत भी कह रही है।

 यह आत्मा और भगवान के साथ एक जगह पर रहते है। अर्थात भगवान सभी जीव (आत्मा) के अंदर रहते है।

माया के प्रकार? माया दो प्रकार की होती हैं!

१. जीव-माया या अपरा या अविद्या माया।

२. गुण माया या योग माया या विद्या माया

यह जीव माया भी दो प्रकार की होती हैं।

१. अवर्णात्मिका:- माया ने जीव (आत्मा) का अपना स्वरूप भुलाया। हम आत्मा है यह भुला दिया।

२. विक्षेपात्मिका:- माया ने संसार में आसक्ति करा दी। अर्थात माया ने संसार में हमारे मन को लगा दिया।

यह जीव-माया को अपरा या अविद्या माया भी कहते हैं। 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥

 "पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी (भगवान की) जड़ स्वरूप अपरा माया है" हमारा मन-बुद्धि माया का बना है, इसलिए हमारे विचार भी माया के अंतर्गत होते है।

ऐसा भी कह सकते हैं कि -

परा विद्या वह है जिसके द्वारा परलोक यानी स्वर्गादि लोकों के सुख-साधनों के बारे में जाना जा सकता है, इन्हीं विद्याओं के जरिए इन्हें पाने के मार्ग भी पता किए जाते हैं। अपरा : जिसमें जानने वाला और जाना जाने वाला अलग-अलग होता है। इसमें सभी ज्ञान चाहे वह संसार के विषय में हो, वह ब्रह्म के विषय में आ जाता

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

गुण माया को प्रकृति माया भी कहते है। "मेरी (भगवान की) यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण है, तो ये माया चली जाएगीं।" गुण माया यह भगवान की शक्ति हैं, यह भगवान की शक्ति पाकर अपना काम करती हैं। तो क्योंकि हम जीव (आत्मा) की शक्ति वाले है, हमारी शक्ति भगवान की शक्ति से काम है इसलिए माया को हम नहीं हटा सकतें। इसलिए हमे केवल मे भगवान के शरण में जाना होगा।

मत्त: परतं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगण इव॥

हे अर्जुन! मुझसे बढ़कर कुछ भी नहीं है। सब कुछ मुझमें ही स्थित है, जैसे धागे में पिरोये हुए मोती।


यहाँ भगवान श्री कृष्ण इस ब्रह्मांड में अपने प्रभुत्व और अपनी सर्वोच्च स्थिति के बारे में बताते हैं। वे ही वह आधार हैं जिस पर यह पूरी सृष्टि विद्यमान है; वे ही रचयिता, पालनहार और संहारक हैं। धागे में पिरोए गए मोतियों की तरह, जो अपनी जगह पर हिल सकते हैं, भगवान ने प्रत्येक आत्मा को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्र इच्छा दी है, फिर भी उनका अस्तित्व उनसे बंधा हुआ है।


न तत्समश्चाभ्यधैश्च दृश्यते

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते


ईश्वर के बराबर कुछ भी नहीं है, न ही उससे श्रेष्ठ कुछ भी है।


इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे अपने मूल रूप में, जो अर्जुन के सामने खड़े थे, परम सत्य हैं। मैं, मेरा और मैं शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के स्वयं भगवान, सर्वोच्च भगवान होने के बारे में कई लोगों के संदेह को दूर कर दिया है। कई लोग मानते हैं कि एक और उच्चतर निराकार सत्ता है, 


ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद विग्रहः।

अनादिरादिर गोविंदः सर्व कारण कारणम्॥


श्री कृष्ण परमपिता परमेश्वर हैं, जो शाश्वत, सर्वज्ञ और अनंत आनंदस्वरूप हैं। उनका कोई आदि और अंत नहीं है, वे सभी के मूल हैं और सभी कारणों के कारण हैं।


इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥


तर्क दिया जा सकता है कि जब कृष्ण इस पृथ्वी पर विद्यमान थे और सबों के लिए दृश्य थे तो अब वे सबों के समक्ष क्यों नहीं प्रकट होते? 

किन्तु वास्तव में वे हर एक के समक्ष प्रकट नहीं थे , जब कृष्ण विद्यमान थे तो उन्हें भगवान् रूप में समझने वाले व्यक्ति थोड़े ही थे , जब कुरु सभा में शिशुपाल ने कृष्ण के समाध्यक्ष चुने जाने पर विरोध किया तो भीष्म ने कृष्ण का समर्थन किया और उन्हें परमेश्र्वर घोषित किया , इसी प्रकार पाण्डव तथा कुछ अन्य लोग उन्हें परमेश्र्वर के रूप में जानते थे, किन्तु सभी ऐसे नहीं थे , अभक्तों तथा सामान्य व्यक्ति के लिए वे प्रकट नहीं थे , इसीलिए भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि उनके विशुद्ध भक्तों के अतिरिक्त अन्य सारे लोग उन्हें अपनी तरह समझते हैं , वे अपने भक्तों के समक्ष आनन्द के आगार के रूप में प्रकट होते थे, किन्तु अन्यों के लिए, अल्पज्ञ अभक्तों के लिए, वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से आच्छादित रहते थे।


हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥


“हे भगवान! आप समग्र ब्रह्माण्ड के पालक हैं और आपकी भक्ति सर्वोच्च धर्म है , अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मेरा भी पालन करें , आपका दिव्यरूप योगमाया से आवृत है , ब्रह्मज्योति आपकी अन्तरंगा शक्ति का आवरण है ,कृपया इस तेज को हटा ले क्योंकि यह आपके सच्चिदानन्द विग्रह के दर्शन में बाधक है ” भगवान् अपने दिव्य सच्चिदानन्द रूप में ब्रह्मज्योति की अन्तरंगाशक्ति से आवृत हैं, जिसके फलस्वरूप अल्पज्ञानी निर्विशेषवादी परमेश्र्वर को नहीं देख पाते ।

भगवान् कृष्ण न केवल अजन्मा हैं, अपितु अव्यय भी हैं ,वे सच्चिदानन्द रूप हैं और उनकी शक्तियाँ अव्यय हैं ।

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