मुझे समझ नही आता !

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0
Chaitanya Mahaprabhu
Chaitanya Mahaprabhu


 मन कहता है, मुझे पूजा पाठ विधि से नही आता,पुस्तको में क्या लिखा है मुझे समझ नही आता, किन्तु मेरा मन मेरे इष्ट के विभिन्न रुपों के दर्शन से आनंद के सागर में डूबा है। यही मेरी भक्ति है।

 चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे। उन्होंने एक स्थान पर देखा कि सरोवर के किनारे एक ब्राह्मण स्नान करके बैठा है और गीता का पाठ कर रहा है। वह पाठ करने में इतना तल्लीन है कि उसे अपने शरीर का भी पता नहीं है। उसके नेत्रों से आँसू की धारा बह रही है। महाप्रभु चुपचाप जाकर उस ब्राह्मण के पीछे खड़े हो गए।

 पाठ समाप्त करके जब ब्राह्मण ने पुस्तक बन्द की तो महाप्रभु ने सम्मुख आकर पूछा, 'ब्राह्मण देवता ! लगता है कि आप संस्कृत नहीं जानते, क्योंकि श्लोकों का उच्चारण शुद्ध नहीं हो रहा था। परन्तु गीता का ऐसा कौन-सा अर्थ जिसे आप समझते हैं जिसके आनन्द में आप इतने विभोर हो रहे थे ?'

 अपने सम्मुख एक तेजोमय भव्य महापुरुष को देखकर ब्राह्मण ने भूमि में लेटकर दण्डवत किया। वह दोनों हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोला, 'भगवन ! मैं संस्कृत क्या जानूँ और गीता के अर्थ का मुझे क्या पता ? मुझे पाठ करना आता ही नहीं मैं तो जब इस ग्रंथ को पढ़ने बैठता हूँ,मैं नाम जप का अभ्यास करने लगता हूं तब मुझे लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों और बड़ी भारी सेना सजी खड़ी है। 

 दोनों सेनाओं के बीच में एक रथ खड़ा है। रथ पर अर्जुन दोनों हाथ जोड़े बैठा है, और रथ के आगे घोड़ों की रास पकड़े भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं और वे अर्जुन को अपने दिव्य रूप के दर्शन दे रहे है, मै भी उसी दिव्य रूप के दर्शन का आनंद लेकर उन्ही के वशीभूत हो गया हूँ। भगवान और अर्जुन की ओर देख-देखकर मुझे प्रेम से रुलाई आ रही है। गीता और उसके श्लोक तो माध्यम हैं। असल सत्य, भाषा नहीं, भक्ति है और इस भक्ति में मैं जितना गहरा उतरता जाता हूँ मेरा आनन्द बढ़ता जाता है।'

 चैतन्य महाप्रभू बोले'भैया ! तुम्हीं ने गीता का सच्चा अर्थ जाना है और गीता का ठीक पाठ करना तुम्हें ही आता है।' यह कहकर महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को अपने हाथों से पकडकर हृदय से लगा लिया। ऐसा केवल शुद्ध भक्त के ही जीवन मे होता है भक्त वैसे तो पुस्तक पढ़ रहा होता हैं, किन्तु उसके मन मन्दिर में भगवान के विभिन्न रूपो का चित्रण होता रहता है, और वह इतना भाव विभोर होकर उसमें लीन हो जाता हैं, कि वह सब कुछ भूल जाता है।यही भक्ति की पराकाष्ठा है।भक्ति के पथ पर बढ़ने के लिए सबसे पहले हमें नाम जप का अभ्यास करना होगा।"ॐ नमः भगवते वासुदेवाय"'

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top