सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥ जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥

भगवान को छोड़कर किया गया सभी कर्म धर्म जप तप क्रिया या यहाँ तक कि श्वास लेना भी पाप ही की श्रेणी में आता है । और उनके निमित्त किया गया सभी कर्म पुण्य की श्रेणी में आता है । हमारा मानना है कि अपने कर्तव्य पथ से भागना और दूसरों की निजता का हनन करना ही पाप है और अपने कर्तव्यों का पालन सम्पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करना ही पुण्य है।

परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

अर्थात - परोपकार पुण्य है और दूसरों को किसी भी प्रकार से पीड़ा देना, दुःख देना पाप है। मैं तो यही समझता हूँ ।यदि आज के कथाकार पाप पुण्य का अलग-अलग विश्लेषण करते हैं। अब आप ये सोच रहे होंगे कि सब मे अलग अलग विचार क्यों है। तो में आपको एक कहानी सुनाता हूं।

एक बार चार मित्र स्कूल में देरी से पहुचे तो उन सब ने सोचा कि अगर अध्यापक पुछेगा तो हम बोल देंगे कि बस का टायर पंचर हो गया था। और जब वो स्कूल में गये तो ऐसा ही हुई अध्यापक ने उनसे पूछा आज फिर से समय पर क्यों नही आये तो उन्होंने बोल दिया कि टायर पंचर हो गया था। तो अध्यापक ने कहा कि ठीक है और उन चारों को अलग अलग कमरे में बैठा दिया और एक एक के पास जा कर पूछा कि कौन से टायर में पंचर हुआ था। तो उन सब का अलग जवाब था कोई अगले टायर में बताता तो कोई पिछले टायर में, अब अध्यापक इस तरह से पूछेगा ये तो उन्होंने सोचा नही था इसलिए उन सब के जवाब अलग थे और उनकी झूट पकड़ी गयी। अब यही हाल है उन सब अलग-अलग किताबो और अल्पज्ञानी कथाकारों का है। 

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। 

कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥

जाकें नख अरु जटा बिसाला।

सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥

जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥

लेकिन इस कहानी का ग़लत अर्थ मत लगाइए। हमारा कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी किताब का गहन अध्ययन कीजिए, उसमें डुबकी जितनी बार लगायेंगे कुछ अलग ही लेकर आयेंगे। हमारा मानना है कि पाप पुण्य के चक्कर में पडो ही मत क्योंकि यह अत्यंत ही गूढ़ है । जो तुम्हारे लिए पाप है , वही किसी के लिए पुण्य है । इसीलिए कहा कि -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज ।

एकमात्र मेरी शरण मे आ जा , सभी पाप पुण्य छोड़कर , धर्म कर्म छोड़कर । शरण अर्थात जो मेरे निमित हो । जो आनंद प्राप्ति के निमित्त हो , जो भगवदप्राप्ति के निमित हो , जो निवृत्तिमार्ग के निमित्त हो , जो श्रेय मार्ग के निमित्त हो । जो कुछ खा रहे हैं , कर रहे हैं , सोच रहे हैं सब उनको अर्पण करते हुए और उनके निमित्त करते चलो ,सब भगवन्नमय होता जाएगा । बस सब में भगवदभावना धारण कर अपना कार्य करना है । लक्ष्य एक ही रहे वह है आनंदप्राप्ति , भगवदप्राप्ति , भगवान से प्रेम । भगवान हमारे सारे पापों का और  कर्मों का नाश करते हैं , यह सत्य है l लेकिन कब करते हैं ?  जब भगवान के प्रति हम पूर्ण शरणागति हो जाते हैं । अपना सब कुछ , खुद को भी समर्पित कर देते हैं l अपना एक - एक कार्य एक एक सब कुछ भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं l लेकिन यह शरणागत ही तो आसान नहीं है l जिस दिन यह शरणागत पूर्ण रूप से हो जाएगी उस दिन हम भागवद्प्राप्त हो जाएंगे यानी कि  भगवान की सारी शक्तियों का समावेश हममें (भगवद् प्राप्त व्यक्ति में ) हो जाएगा l भगवत प्राप्ति के पश्चात हम सभी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाएंगे  । लेकिन जब तक हमारी भागवत प्राप्त की अवस्था नहीं आती है तब तक हम कर्मों के बंधन से छुटकारा नहीं पा सकते हैं और इन्हीं कर्मों के बंधन में फंसकर हमें बार-बार जन्म लेना पड़ेगा और अपने भोगों ( सुख- दुख) को भोगना पड़ेगा । कर्मों का सिद्धांत अकाट्य है । कर्म के फल को भोगना ही पड़ेगा । कर्म से ही सृष्टि चल रही है । आज के हमारे कर्म ( पाप - पुण्य ) ही भविष्य की नींव का निर्माण करते हैं । यही प्रारब्ध ( भाग्य - दुर्भाग्य ) बनकर जीव के साथ अनंतानंत जन्मों के साथ लगे रहते हैं । 

भगवान अपने भक्तों के अनंतानंत जन्मों के क्रियमाण , संचित और प्रारब्ध सभी क्षण मात्र में नष्ट कर देते हैं । लेकिन किसका ? जो उनकी शरण में चला गया ।  शरण का मतलब ? भगवदप्राप्त हो जाना । शुभाशुभ कर्मों से निवृत्त हो जाना ।भगवदप्राप्त सन्त बन जाना ,माया से उत्तीर्ण हो जाना । मन्दिर में जाना और थोड़ी देर के लिए भगवान के सामने नतमस्तक हो कर श्लोकों के माध्यम से यह कह देना कि भगवान मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ" यह शरणागति नहीं है । शरणागति का अर्थ है कुछ न करना । मन बुद्धि सबका समर्पण । उसका उपयोग ही नहीं करना । 

वह स्थिति कब आयेगी ? जब पूर्ण समर्पण होगा भगवान के क्षेत्र में । जब आनंद इतना मिलने लगेगा कि कुछ करना शेष नहीं रह जाएगा । तब भगवान की कृपा से हमारे अनंतानंत जन्मों के शुभ अशुभ कर्म अर्थात पाप और पुण्य नष्ट हो जाते हैं , पंचक्लेश, त्रिदोष इत्यादि सब नष्ट हो जाते हैं । 

अब पंच क्लेश क्या है ?

अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पञ्च कलेशा: ।।

योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश पाँच क्लेश हैं। । भाष्यकर व्यास ने इन्हें विपर्यय कहा है और इनके पाँच अन्य नाम बताए हैं- तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र।

त्रिदोष तीन जैविक ऊर्जाओं या सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थात् वात, पित्त और कफ, जो हमारी शारीरिक और मानसिक कार्यप्रणाली को नियंत्रित करते हैं।

 अपना मन बुद्धि होता ही नहीं तो कर्म क्या करेंगे बिचारे । उनके मन और बुद्धि के माध्यम से भगवान ही कर्म करते हैं । 

 इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि -

अहं त्वं सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।

सभी पापों को नष्ट करके मुक्त कर दूँगा । लेकिन इसके पहले क्या बोले है यह भी तो देखिए -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

मामेकं - केवल मेरी "ही" शरण में आ जाओ । 

जननी जनक बंधु सुत दारा ।

तनु धनु भवन सुहृदु परिवारा॥

सब कर ममता ताग बटोरी  । 

मम पद मनहिं बाँधि बर डोरी॥

  प्रभु श्री राम  विभीषण को  समझाते हुए कहते हैं कि माता,पिता ,भाई, पुत्र, पति-पत्नी, शरीर,धन मकान,यार-दोस्त एवं कुटुम्बीजन,  इन सबके ममता  के धागे बटकर (गूँथ कर )  उस डोरी को मेरे चरणों में लगा दो।  अर्थात इन सबके प्रति कर्त्तव्य पालन करते हुए मन मेरे चरणों में लगा रहे।  इसका तात्पर्य है कि सभी पर ममता रखते हुए मोह को त्यागते हुए सभी  के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए प्यार केवल भगवान से करें , क्योंकि सच्चा प्यार केवल उसी के चरणों से ही प्राप्त होगा जिसमें किसी भी प्रकार के धोखे की निमिष मात्र भी आशंका नहीं रहेगी

समदरसी इच्छा कछु नाहीं।

हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

कुछ लोग अभी भी शास्त्रों के उन शब्दों को पकड़कर गलत अर्थ निकाल लेते हैं, जिनमें कहा गया है कि कर्म के बंधन से भी मुक्त हो जाओ। परमात्मा यह नहीं कहता कि कर्म को बंधन मानो। कर्म बंधन हो ही नहीं सकता। मुक्त होना है कर्म के फल की आसक्ति से। इसलिए भगवान यह नहीं बताते हैं कि किस तरह से कर्म करते हुए मुझसे जुड़ जाएं।

जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है।  भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोडऩे की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुडऩे की।

त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक।

भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥

संत   असंतन्ह   के  गुन भाषे।

ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥

इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते॥

सभी शुभ अशुभ कर्म अर्थात क्या पाप है क्या पुण्य है सबका त्याग कर देना है । मतलब ? मतलब पूर्ण शरणागति । तो भगवान अनंतानंत जन्मों के सभी कर्मों को नष्ट कर देंगे भगवदप्राप्ति के पश्चात् । अन्यथा तो कर्मफल भोगने ही पड़ेंगे भले आप परमहंस ही क्यों न बन गए हों । 

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