कर्म का लेख

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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बहेलिया ने तीर छोड़ा , वह लता वल्लरियों की बाधाओं को चीरता हुआ राजकुमार सुकर्णव के मस्तिष्क पर जा लगा। राजकुमार वही धराशाई हो गए। समस्त अंतापुर रो पड़ा अपने राजकुमार की याद में ! ऐसा कोई प्रजाजन नहीं था , जिसने सुकर्णव की अर्थी देख आँसू ना बनाए हों।

दाह संस्कार संपन्न हुआ। पुत्र शोक अब प्रतिशोध की ज्वाला में भड़क उठा और महाराज वेनुविकर्ण ने कारागृह से बंदी बहेलिया को उपस्थित करने का आदेश दिया। बहेलिया लाया गया। महाराज ने तड़पते हुए पूछा - दुष्ट बहेलिया ! तूने राजकुमार का वध किया है , बोल ! तुझे मृत्युदंड क्यों न दिया जाए ?

बहेलिया ने एक बार सभा भवन में बैठे हर व्यक्ति पर दृष्टि दौड़ाई। फिर राजपुरोहित पर एक क्षण को उसकी दृष्टि ठहर गई। उसे कुछ याद आया। बहेलिए ने कहा - "महाराज ! मेरा इसमें क्या दोष ? मृत्यु ने राजकुमार को मारने का निश्चय किया था , मुझे माध्यम बनाया। मृत्यु ने ही मेरी बुद्धि भ्रमित की , और मैंने राजकुमार को कस्तूरी मृग समझकर तीर छोड़ दिया !

जो दंड आप मुझे देना चाहते हैं , वही दण्ड मृत्यु को दें। चाहें तो राजपुरोहित से पूछ लें ! यह भी तो कहते हैं कि विधाता ने जितनी आयु लिख दी , उसे कोई घटा या बढ़ा नहीं सकता। घटनाएं तो मृत्यु के लिए मात्र माध्यम होती हैं।"

महाराज वेनुविकर्ण का क्रोध विस्मय में बदल गया। उन्होंने राजपुरोहित की ओर दृष्टि डाली , तो लगा कि सचमुच वे भी बहेलिये का मूक समर्थन कर रहे हैं। उन्होंने मृत्यु का आव्हान किया , मृत्यु उपस्थित हुई । महाराज ने उससे पूछा -" आपने राजकुमार को मारने का विधान क्यों रचा ?"*"उनका काल आ गया था ! मृत्यु बोली।"तो फिर काल को बुलाया गया। काल ने कहा - "मैं क्या कर सकता था महामहिम ! राजकुमार के कर्मों का दोष था। कर्मफल से कोई बच नहीं सकता। राजकुमार ही उसके अपवाद कैसे हो सकते थे ?" कर्म की पुकार की गई। उसने उपस्थित होकर कहा -"आर्य श्रेष्ठ ! अच्छा हूँ या बुरा , मैं तो जड़ हूं। मुझे तो आत्म चेतना चलाती है , उसकी इच्छा ही मेरा अस्तित्व है।

आप राजकुमार की आत्मा को ही बुला कर पूछ लें , उन्होंने मुझे क्रियान्वित ही क्यों किया ? " और अंत में राजकुमार की आत्मा बुलाई गई। दंड नायक ने प्रश्न किया - भन्ते ! तुम कर्ता की स्थिति में थे , क्या यह सच है कि तुमने कोई ऐसा कार्य किया , जिसके फलस्वरूप तुम्हें अकाल , काल-कवलित होना पड़ा ?

शरीर के बंधन से मुक्त , आकाश में स्थिर , राजकुमार की आत्मा थोड़ा मुस्कुराई ! फिर गंभीर होकर बोली - "राजन ! पूर्व जन्म में मैंने इसी स्थान पर मांस भक्षण की इच्छा से एक मृग का वध किया था। मृग में मरते समय प्रतिशोध का भाव था , उसी भाव ने व्याध को भ्रमित किया , इसीलिए व्याध का कोई दोष नहीं !

मुझे काल ने नहीं मारा , कर्म ने मारा है ! मनुष्य के कर्म ही उसे मारते और जिलाते हैं , इसीलिए तुम मेरी चिंता छोडो़ , कर्म की गति बड़ी गहन है। अपने कर्मों का हिसाब करो। भावी जीवन की प्रगति और उससे स्वर्ग , मुक्ति , ये सब कर्म की गति पर ही आधारित हैं। सो हे तात !  आप भी अपने कर्म सुधारें !

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