धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है।

 ज्ञान, मोक्ष और वेद इन तीनों शब्दों की व्याख्या को समझने के लिए आवश्यक है। भगवान का कहना है कि ज्ञान से मोक्ष मोक्ष प्राप्त होता है।

 ऐसा वेदों ने वर्णित किया है. सबसे पहले हम वेद के प्रमाण को ही लेते हैं। श्रुति कहती है -

ऋते ज्ञानात् न मुक्ति।

 अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं. भगवद्गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं -

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञज्ज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

हे पार्थ सभी कर्मों का परिसमापन ज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर हो जाता है। उल्लेखनीय है कि अकेले इस चतुर्थ अध्याय में ही भगवान ने लगभग पन्द्रह वार ज्ञान शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने तो यहाँ यह भी कह दिया है कि ‘ज्ञान से पवित्रतर कुछ है ही नहीं।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी शुद्ध नहीं है। जो मनुष्य दीर्घकालीन योग के अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध कर लेता है वह उचित समय पर हृदय में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।

माला फेरता युग फिरा, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका दारी के, मनका मनका फेर॥

 हे मनुष्य तुम अनेक युगों से जप की माला फेरते आ रहे हो, किन्तु मन की शरारतें समाप्त नहीं हुई हैं। अब उन मालाओं को नीचे रख दो, और मन की माला फेरो।

सवाल यह उठता है कि यह ज्ञान है क्या ? गीता के दूसरे अध्याय में सत्य की प्रतिष्ठा और असत्य के मिथयात्व का बोध कराते हुए भगवान अर्जुन को सांख्य के प्रबोध -

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।

बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥

  के बाद योग की शिक्षा देते हैं. आगे सातवें अध्याय में उन्होंने अर्जुन को ज्ञान को विज्ञान सहित और विस्तार से समझाया

 ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यहाँ पर भगवान ने वेदान्त दर्शन की सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान करते हुए यही कहा है कि वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता और नियामक हैं किन्तु माया के वशीभूत जीव उन्हें (भगवान को) अपने ही समान साधारण जीव मान लेता है।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।

अथात् शुद्ध वेदान्त की प्रतिष्ठा ही सनातन भारतीय मेधा की परिसीमा है तथा यही वास्तविक ज्ञान है। इसके द्वारा जीव में - 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ब्रह्मैव नापरम्॥

  स्वामी आदिशंकराचार्य ने कर्मकांड की जड़ता का प्रतिरोध कर वर्तमान युग में इस ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा की। श्रुति के चार महावाक्य -

अहं ब्रह्मास्मि , तत्वमसि , प्रज्ञानं ब्रह्म और अयं आत्मा ब्रह्म

 जीव और ईश्वर के इसी अपार्थक्य की उद्घोषणायें हैं -

माया ईश न आपु कहुं जान कहिय सो जीव।

बंध मोच्छप्रद सर्वपर माया प्रेरक सीव॥

वेदान्त कहता है कि परमब्रह्म जब माया संयुत तो होता है किन्तु इसका उसे बोध रहता है तथा वह ईश्वर कहलाता है. यही ब्रह्म पञ्च महाभूतों से जुडकर संसार और पञ्च कोशों से सम्प्रक्त हो जीव बन जाता है। इस तरह ब्रह्म या चैतन्य ही उपाधियुक्त होकर ईश्वर, संसार या जीव बनता है। तत्वतः इनमें कोई भेद नहीं है। इस ज्ञान को प्राप्त कर जीव परमात्मा से अपने अपार्थक्य की प्रतीति कर लेता है ।

और भी सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीव और ईश्वर में तत्वतः कोई भेद नहीं है। दोनों मायोपहित ही हैं. सूक्ष्म सा अंतर केवल इतना है कि ईश्वर को इसका ज्ञान है जबकि जीव को नहीं है। और यह ज्ञान ही मोक्ष है।

मुक्ति के नाम पर बैकुंठ या स्वर्ग की कल्पना प्राथमिक शिक्षा के सोपान हैं। इनमें भोग की धारणा तो और भी निम्नतर है। यदि स्वर्ग भोग की ही भूमि है तब तो पशु- लोक और स्वर्ग में कोई भेद ही नहीं रहेगा। इससे भी आगे यह बोध महत्वपूर्ण है कि मोक्ष का यह विकल्प मनुष्य के सामने स्वतः खुला हुआ है। इसके लिए वह पराश्रित नहीं है।

 अद्वैत का यह परमोच्च ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपने लीला संवरण के समय भागवत के एकादश स्कंध के २८वें अध्याय में सविस्तार प्रदान किया है। यहाँ उद्धव के यह पूछने पर कि – भगवन्, मारता कौन है, शरीर या आत्मा ? वास्तविकता तो यह समझ आती है कि शरीर जड है अतः उसका मरना निरर्थक है और आत्मा अविनाशी है अतः उसके मरने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता !

इस पर श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि सत्य यही है कि न तो शरीर मरता है और न ही आत्मा. वास्तव में मरता तो मनुष्य का वह अज्ञान है जो आत्मा को शरीर मान रखता है-

यावद्देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः संनिकर्षणम्।

संसारःफलवांसतावदपार्थोऽप्यव्वेकिनः॥

 जिस प्रकार बंधन जीव ने ही स्वीकार किया है उसी तरह मोक्ष का वरण करने की भी उसकी स्वतंत्रता है. यह ज्ञान ही मुक्ति है।

देहात्म बुद्धि - बुद्धि सात्विक, राजस और तामस - ३ प्रकार की कही गई है। सात्विक बुद्धि मन को राग द्वेष से हटाकर परमात्मा की ओर लगाती है। राजस बुद्धि क्रोध , ममता, लोभ , आसक्ति से परिपूर्ण होती हूं। यह सांसारिकता की ओर ले जाने वाली है। इसी को देहात्म बुद्धि कहा जा सकता है।‌ऐसा व्यक्ति अपने जड़ शरीर को आत्मा समझकर उसी की सन्तुष्टि में लगा रहता है यानी शरीर आत्मा को अभिन्न मानते हुए उसी की संतुष्टि में निमग्न रहता है ।

तामस बुद्धि वाला जड़ के समान होता है। वह करने योग्य कार्यों की ओर प्रवृत्त नहीं होता और न करने योग्य कार्यों को करता है। ऐसा व्यक्ति मरने के बाद जड़ योनियों में पैदा होता है यानी इसकी तुलना कुत्ता शूकर से की जा सकती है।

देहात्म बुद्धि वाला मरने पर कर्मफल का उपभोग करता है।‌ जैसा कर्म उसने किया होता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है। सत्वस्थ व्यक्ति ऊर्ध्वमुखी होते हैं, राजस मध्य के होते हैं और तामस व्यक्ति जघन्यवृत्ति के होते हैं। सात्विक व्यक्ति तो ईश्वर साक्षात्कार करके जीवन-मुक्ति प्राप्त करते हैं। राजसी व्यक्ति ने यदि सत्कर्म अधिक किए हों तो मरने पर श्रेष्ठ पवित्र व्यक्तियों के घर में जन्म लेते हैं। तामसिक व्यक्ति कीट पतंगों की योनि में जाते हैं।

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।

जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

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