नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ करनधार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

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नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ करनधार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण,

यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तारने के लिये जहाज है, ईश्वर कृपा ही अनुकूल वायु है सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार हैं, इस प्रकार दुर्लभ अर्थात कठिनता से मिलनेवाले साधन सुलभ होकर भगवत्कृपासे सहज ही उसे प्राप्त हो गये हैं।

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है। अतः भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है।

भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है। यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।

मनुष्य संसार में जब जन्म लेता है तो खाली हाथ इस पृथ्वी पर आता और जब इस दुनिया से विदा लेता है तो खाली हाथ ही विदा लेता है। यहाँ तो सब कुछ दूसरों का दिया हुआ है। जन्म माता पिता ने दिया, शिक्षा गुरू ने दिया, धन दौलत प्रभु की कृपा से प्राप्त हुआ, यहाँ तक कि मृत्यु के पश्चात दूसरे चार लोग ही श्मशान घाट ले जाते हैं , चिता सजाने के लिए दो गज भूमि भी अपनी नहीं है। जब साथ कुछ भी नहीं जाएगा फिर यह तेरा है यह मेरा है किस के लिये करना। मनुष्य का कर्म हीं उसके साथ जाता है इसलिए सुन्दर कर्म करना चाहिए।

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।

परमात्मा ने हमारे प्रति बड़ी उदारता दिखाई है। प्रकृति परमात्मा की भाँति नित्य प्रति हमारी सेवा-सुश्रुषा में संलग्न है, इसका आशय यह है कि हमें अपने अधीनस्थों एवं प्रकृति के अन्यान्य जन्तु और वनस्पतियों के प्रति संवेदनशील रहकर उनके सम्मान, स्वाभिमान, निजता और हितों की रक्षा करनी चाहिए। परमात्मा द्वारा निर्मित यह सम्पूर्ण सृष्टि और उसके प्रत्येक घटक का आदर ही भारतीय संस्कृति की विशेषता एवं परमात्मा की अभ्यर्थना है।

ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों की रचना की लेकिन जब उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की। मनुष्य शरीर की रचना करके ईश्वर बहुत ही प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर सकता है।

 मानव शरीर एक देवालय है। ईश्वर ने पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि भूमि और जल) से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख प्यास भर दी। आकाश की सूक्ष्म शरीर से, भूमि की हड्डियों, से और अग्नि की ह्रदय के साथ तुलना की गयी है।

देवताओं ने ईश्वर से कहा कि हमारे रहने योग्य कोई स्थान बताएं जिसमें रह कर हम अपने भोज्य पदार्थ का भक्षण कर सकें। जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए।

तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर, वायु छाती और नासिका छिद्रों में प्राण बन कर, अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर, दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना) बन कर कानों में, औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में, चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु (मलद्वार) होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए।

हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं।

संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “अप्रकट” रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं । हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर एक देवालय है। इस देवालय के आठ चक्र और नौ द्वार हैं।

“अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः”॥

जिसका अर्थ है कि आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है अर्थात आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त यह देवों की अयोध्या नामक नगरी है।

सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं,अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है। इस तरह दिव्यलोक का सूर्य, अंतरिक्ष लोक की वायु और पृथ्वी लोक के पदार्थ क्रमशः मेरी आँखें और प्राण स्थूल शरीर में आकर रह रहे है और हाथ जो तीनों लोकों के सूक्ष्म अंश हैं, हमारे शरीर में अवतरित हुए हैं। इसीलिए ज्ञानी मनुष्य मानव शरीर को ब्रह्म मानता है क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही रहते हैं जैसे गोशाला में गायें रहती हैं। माँ के गर्भ में 33 देवता अपने अपने सूक्ष्म अंशों से रहते हैं परन्तु यह गर्भ तभी स्थिर (ठोस) होने लगता है जब परमात्मा अपने अंश से गर्भ में जीवात्मा को अवतरित करते हैं। उस समय सभी देवता गर्भ में उस परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसकी रक्षा व् वृद्धि करते है। सभी देवता प्रार्थना करते हैं कि, हे जीव! आप अपने साथ अन्य जीवों का भी कल्याण करना, परन्तु जन्म के समय के कठिन कष्ट के कारण मनुष्य इन बातों को भूल जाता है।

वेद का मंत्र हमें यह स्मरण दिलाता है मैं अमर अथवा अदम्य शक्ति से युक्त हूँ। हमारा शरीर ऐसा दिव्य और मनोहारी मनुष्य शरीर होता है। तभी तो उपनिषदों में ऋषियों का अमर संदेश गूंजता है।

अहं ब्रह्मास्मि,  तत्वमसि।

 इसी तरह सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। अतः देवता यह घोषणा करते हैं कि सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का ही अंश है इसलिए हम सभी को इसी भगवानमय दृष्टि से एक दूसरे को देखना चाहिए। 

 हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, देवता क्या शिक्षा देते हैं, कैसे इतने परिश्रम से सृष्टि की स्थापना करते हैं, लेकिन मानव महामानव और देवमानव बनने के बजाय दैत्यमानव बनने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शायद उस मानव को यह नहीं मालूम की सृष्टि के नियम, विधाता की अदालत में एक एक प्राणी के एक एक कर्म का लेखा लिखा जा रहा है। कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है, सज़ा या इनाम मिल कर ही रहते हैं। कर्म की थ्योरी इतनी मजबूत है कि इससे तो देवता क्या भगवान तक भी बच नहीं पाए। लेकिन हम साधारण मनुष्य की बात ही कुछ और है ।

आहार निद्रा भय मैथुनं च

सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:

धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

 भोजन करना, नींद लेना, भयभीत होना और संतान उत्पत्ति करना, ये चार बातें मनुष्य और पशु में एक जैसी होती हैं. मनुष्य में और पशुओं में केवल धर्म का भेद है. यह एक मात्र ऐसी विशेष चीज है जो मनुष्य को पशु से अलग बनाती है.

वस्तुतः धर्म तो जीवन का अंग है । जो धर्म से अलग होता है, वह सब कुछ खो देता है । सुख-चैन, अमन , शान्ति, भाई-चारा, विश्व-बन्धुत्व सब कुछ खो देता है । आज संसार में इतनी अशांति क्यों है, इसका कारण यही है कि धर्म तो होता हुआ दीखता है, किन्तु धर्म नहीं है । धर्म का आडम्बर है । धर्म बाह्य चिह्नों को नहीं कहते हैं । धर्म तो धारण करने की चीज है , जो आचरण में आ जाए, वही धर्म है।

आज जगन्नाथ स्वामी के रथयात्रा की शुरुआत हो रही है । भगवान श्री जगन्नाथ की कृपा आप सभी पर बनी रहे।

रथ तु वामनं दृष्ट्वा पूर्णजन्म न विद्यते।

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नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ करनधार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
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