पूजा में शिर ढकना सही या गलत ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 आजकल एक कुप्रथा चल पड़ी है कि पूजन आरंभ होते हीं रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं, और कर्मकांड के लोग भी नहीं मना करते । जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है। शौच के समय हीं सिर ढकने को कहा गया है। प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।

शास्त्र क्या कहते हैं ? आइए देखते हैं...

उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।

प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥

अर्थात् -

पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'

शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |

अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||

                                            ( -कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9)

अर्थात्-- सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।

सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।

                                                  (कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध)

अर्थात्-- बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।

शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-(कर्मठगुरू)

अर्थात्-- वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।

उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।

अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥

                                                   (शब्द कल्पद्रुम )

अर्थात्-- सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर ।

अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।

न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा। (योगी याज्ञवल्क्य)

अर्थात्-- न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।

अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा ।

प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। 

                                      (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)

अर्थात्-- अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।

शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14-- सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।

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