घर छोड़ने की पीड़ा
कहना आसान होता है कि कल जाना है, पर जाने के खयाल के साथ ही मन में जो टीश उठती है उसे बयां कर पाना कठिन हो जाता है।
दुविधा में मन और मस्तिष्क बाबू जी के डांट से लेकर माँ के ममता तक को जबरन खारिज कर परदेश के लिए घर छोड़ने के लिए मजबूर करता है,
बाबू जी जो प्रायः हिटलर से लगते हैं जाते वक्त उनकी नजरों से नजरें मिलाना मुश्किल हो जाता है, जबरन के डांट के पीछे एक बेहद उदास पापा उस वक्त कड़े शब्दों में सभी सामान सहेजने को लेकर ऐसे बोलने की कोशिस करते हैं मानो कहीं ये राज ना खुल जाये कि एक चट्टान से फौलादी कलेजे में एक नाजुक कलेजा भी है जो अपने कलेजे के टुकड़े के लिए रोता रहता है, बस एहसास नहीं होने देता है क्योंकि जाते वक्त की कमजोरी बेटे को अंदर से कहीं कमजोर न बना दे!
माँ जो कभी ठेकुआ लेकर दौड़ती है तो कभी तला हुआ चूड़ा, कभी घी का भरा डब्बा जो घर के लिए रखा है जबरन झोला में ठूसने लगती है तो कभी काजू-बादाम का वो डब्बा जो खुद उसके बेटे खरीद कर उसे खाने के लिए लाते हैं, जाते जाते क्या नहीं दे देना चाहती है अम्मा, दुकान से खरीद कर आया नमकीन के पैकेट से लेकर बिस्किट के पैकेट तक, ढोने के डर से ये कहना कि अरे माई इस सभ मिलेला ना दुकान पर, फिर थोड़ा कड़क होकर "हम जानत न बानी तूँ किनबे ना", ले जो फेर घरे आई न...माँ के इस सांत्वना में शायद ही कुछ बचता हो जो लुटाने के लिए रह जाता हो...
नंगे पाँव इधर से उधर दौड़ते रहना, माँ को उस वक्त ना पूजा की चिंता ना ही नाश्ता की बस चिंता ये कि बेटा जाते वक्त किसी भी तरह खा के निकले भले ही घड़ी सुबह के पांच बजा रही हो, बस चले तो कलेजा काढ के रख दे अम्मा....
जल्दी से लोटा का पानी दरवाजे के कोने पर शगुन के लिए रखना, और समझाते रहना कि घर क चिंता मत करिह, एजहा कुल ठीक बा,.... बूढ़ी आँखों में आत्मविश्वास शायद अपने लाल को देखकर भर आता होगा, एक माँ के लिए उसका बेटा ही तो उसकी थाती है जिसके लिए खुश भी होना है और उदास भी,
घर से निकलते वक्त कठिनाई तब और बढ़ जाती है ज़ब घर में कोमल नन्हा सा एक बच्चा हो जिसे आप दुलारते हों, मानते हों डांटते हों, मारते हों, और जाते वक्त वह असहमति जताये, और झट से कह डाले कि चाचु मुझे भी ले चलो, और मुस्कुराते चेहरों के बीच प्रत्याशा भरी उसकी नजरें उम्मीद से आपको निहार रही हो....
सबसे मुश्किल घड़ी होता है उस वक्त मम्मी-पापा से आँखें मिला पाना, डर इस बात का रहता है कि कहीं खुद की आँखें ही ना फूट कर रो पड़ें, घर छोड़ते वक्त जबरन गंभीर होना पड़ता है तब जाकर घर की दहलीज लांघ पाता है एक परदेशी, भारी मन से पैर तो छूते हैं हम पर अपने मम्मी पापा से नजरें नहीं मिल पाते....
ये कैसी यात्रा है? काश ऐसी यात्रा का अंत होता जिसमें बूढ़ी आँखों में उम्मीद नहीं बल्कि हकीकत पलते, और किसी भी बूढ़ी आँखों को प्रत्याशा भरी नजरों से विदाई ना देनी पड़ती!
COMMENTS