mahakavi shri Kalidas Praneetam Abhigyanshakuntalam chaturth Ank |
अपि च - और भी -
अन्तर्हिते शशिनि सैव कुमुद्वती मे
दृष्टिं न नन्दयति संस्मरणीयशोभा ।
इष्टप्रवासजनितान्यबलाजनस्य
दुःखानि नूनमतिमात्रसुदुः सहानि ।। ३ ।।
अन्वय- शशिनि अन्तर्हिते सा एव कुमुद्वती संस्मरणीयशोभा (सती) मे दृष्टि न नन्दयति, नूनम् अबलाजनस्य इष्टप्रवासजनितानि दुःखानि अतिमात्रसुदुःसहानि ।
शब्दार्थ - शशिनि चन्द्रमा के। अन्तर्हिते अस्त हो जाने पर। सा एवं = वही । कुमुद्वती = कुमुदिनी। संस्मरणीयशोभा जिसकी शोभा (अब केवल) स्मरणीय (स्मरण का विषय) रह गयी है ऐसी (स्मरणीय (नष्ट) शोभा वाली)। मे मेरी। दृष्टिं दृष्टि को (नेत्रों को) । न = नहीं। नन्दयति आनन्दित कर रही है। नूनम् निश्चय ही। अबलाजनस्य = स्त्री- समुदाय का। इष्टप्रवासजनितानि प्रियतम के प्रवास (परदेश गमन) से उत्पन्न। दुःखानि = दुःख । अतिमात्रसुदुःसहानि अत्यधिक कठिनाई से सहने योग्य (अत्यन्त असह्य)। भवन्ति = होते हैं।
अनुवाद- चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर (छिप जाने पर) स्मरणीय (नष्ट) शोभा वाली (अर्थात् शोभाविहीन) होने से वहीं कुमुदिनी सम्प्रति मेरी दृष्टि को आनन्दित नहीं कर रही है। निश्चय ही स्त्री-समाज के लिये अपने इष्ट व्यक्ति के प्रवास से उत्पन्न दुःख अत्यन्त असह्य होते हैं।
संस्कृत व्याख्या- शशिनि चन्द्रे, अन्तर्हित अस्तं गते सति, सा एव सा एव (मनोहारिणी कुमुदिनी) सम्प्रति, संस्मरणीयशोभा संस्मरणीया सम्यक् स्मरणार्हा शोभा सौन्दर्य यस्याः सा, विनष्टशोभा (शोभाविहीना) सती, मे मम (कण्वशिष्यस्य), दृष्टिं नेत्रम्, न नहि, नन्दयति हर्षयति, नूनं निश्चितम्, अबलाजनस्य प्रमदालोकस्य, इष्टप्रवासजनितानि इष्टस्य वल्लभस्य प्रवासेन देशान्तरगमनेन जनितानि उत्पन्नानि, दुःखानि कष्टानि, अतिमात्रसुदुः सहानि अत्यधिकम् असह्यानि, भवन्ति इति शेषः ।
संस्कृत-सरलार्थः - प्रभाते चन्द्रेऽस्तं गते सति म्लानिमापन्नां कुमुदिनीमवलोक्य कथयतः कण्वशिष्यस्याम - भिप्रायोऽस्ति यद् रात्रौ प्रभातकालात्पूर्व चन्द्रे प्रकाशमाने या कुमुदिनी विकसितकुसुमा नयानानन्दायिनी आसीत्, सा इदानीं तस्मिन् (चन्द्रे) अस्तंगते क्षीणशोभा सती मम नेत्रं न समाह्लदयति । निः सन्दिग्धमिदं तथ्यं यत् कामिनीलोकस्य प्रियजनप्रवासोत्पन्नानि कष्टानि नितान्तमसह्यानि जायन्ते । स्वाप्रियवियोगेऽबलानां दुःखं स्वभाविकमेव ।
व्याकरण- अन्तर्हिते अन्तर्था+क्त स०ए०व० । 'धा' के स्थान में 'हि' आदेश हुआ है। शशिनि शशः कलङ्कः अस्यास्तीति शशी (शश इन्) तस्मिन् । कुमुद्वती कुमुद मतुप् (म् को व्) डीप्। संस्मरणीयशोभा संस्मरणीया शोभा यस्याः सा (ब०जी०)। इष्टप्रवासजनितानि इष्टस्य प्रवासः (प्रवस्वञ्) इष्टप्रवासः तेन जनितानि (त०स०)। अतिमात्रसुदुः सहानि अतिमात्रं सुदुःसहानि (प्रा०स०), सुन्दुस्-सह-खल् न०प्र०व० ।
कोष- 'शोभा कान्तिः द्युतिश्छविः' इत्यमरः ।
अलङ्कार- (१) यहाँ चन्द्र और कुमुद्वती पर लिङ्ग के आधार पर क्रमशः दुष्यन्त नायक) एवं शकुन्तला (नायिका) के व्यवहार का आरोप होने से 'समासोक्ति' अलङ्कार है। (२) कुमुदिनी का शोभाविहीन होना 'संस्मरणीयशोभा' नेत्र को अच्छा न लगने 'दृष्टिं न नन्दयति' का कारण है अतः काव्यलिङ्ग है। (३) पूर्वार्धगत विशेष का उत्तरार्धगत सामान्य से समर्थन होने के कारण अर्थान्तरन्यास है। (४) श्लोक में छेक, वृत्ति, श्रुति अनुप्रास की भी स्थिति है।
छन्द- श्लोक में वसन्ततिलका छन्द है।
टिप्पणी - (१) यहाँ 'शकुन्तला को शीघ्र दुष्यन्त के पास भेजना चाहिये' इस गूढ़ अर्थ के व्यङ्गच होने से प्रस्थानसूचक तृतीय पताकास्थानक है। उसका लक्षण है- अर्थोपक्षेपणं यत्र न गूढं सविनयं भवेत् । श्लिष्टा प्रत्युत्तरोपेतं तृतीयं तन्मतम्। मात्गुप्ताचार्य। यहाँ समासोक्ति द्वारा प्रयुक्त पताकास्थानक है। (२) अन्तर्हित सैव कुमुद्धती कुमुदिनी चन्द्रोदय होने पर खिलती है और उसके अस्त होने पर मुरझा जाती है। वह अपनी विकासावस्था में ही दर्शकों के नत्रों को आनन्दित करती है। मुरझाने पर वह नेत्रों को आनन्द नहीं देती। नायक रूप चन्द्र एवं नायिका रूप कुमुदिनी के वर्णन से यह तथ्य प्रकाश में लाया गया है कि प्रमदायें अपने प्रियतम की संयोगावस्था में आनन्दित होती हैं और वियोगावस्था में अत्यन्त दुःखी हो जाती हैं। यहाँ चन्द्र से दुष्यन्त और कुमुदिनी से, शकुन्तला की ओर सङ्केत है। चन्द्र के वियोग में कुमुदिनी की भाँति दुष्यन्त के वियोग में शकुन्तला अत्यन्त दुःखी है, इस तथ्य का उद्घाटन किया गया है। निश्चय ही इस वर्णन से शकुन्तला की व्यञ्जित व्यथा के प्रति सबकी सहानुभूति प्राप्त होती है। यह भी अर्थ विचार्य है कि नायक चन्द्र यद्यपि सकलङ्क है फिर भी कुमुदिनी उसके लिये म्लान हो रही है। इसी प्रकार नायक दुष्यन्त भी सकलङ्क है, किन्तु शकुन्तला उसके लिये विकल है।
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