mahakavi shri Kalidas Praneetam Abhigyanshakuntalam chaturth Ank |
(ततः प्रविशति सुप्तोत्थितः शिष्यः) :
(तत्पश्चात् सोकर उठा हुआ शिष्य प्रवेश करता है)।
शिष्यः - वेलोपलक्षणार्थमादिष्टोऽस्मि तत्रभवता प्रवासादुपावृत्तेन काश्यपेन । प्रकाशं निर्गतस्तावदवलोकयामि कियदवशिष्टं रजन्या इति । (परिक्रम्यावलोक्य च) हन्त प्रभातम् । तथाहि-
व्या० एवं श०- सुप्तोत्थितः सुप्तं स्वापः तस्मादुत्थितः सोकर उठा हुआ। अथवा आदौ सुप्तः पश्चादुत्थितः इति 'पूर्वकालैक...' सूत्र से कर्मधारय सम्म्रास। वेलोपलक्षणार्थम् - वेलायाः उपलक्षणार्थम् = बेला (समय) देखने (जानने) के लिये। अदिष्टः आदिश्+क्त = आदेश दिया गया है। उपावृत्तेन उप+आवृत्+क्त-तृ०ए०व० = लौटे हुये। यह पद 'काश्यपेन' का विशेषण है। काश्यपेन कण्व के द्वारा।
शिष्य-प्रवास से लौटे हुए आदरणीय कण्व के द्वारा समय को जानने के लिये मुझे आदेश दिया गया है। तो प्रकाश में निकलकर देखता हूँ कि रात का कितना (भाग) शेष है। (चारों ओर घूमकर और देखकर) प्रातःकाल हो गया है। क्योंकि-
यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीना-
माविष्कृतोऽरुणपुरःसर एकतोऽर्कः ।
तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ।। २ ।।
अन्वय -
एकतः ओषधीनां पतिः अस्तशिखरं याति, एकतः अरुणपुरःसरः अर्कः आविष्कृतः, लोकः तेजोद्वयस्य युगपत् व्यसनोदयाभ्याम् आत्मदशान्तरेषु नियम्यते इव ।
शब्दार्थ
एकतः' = एक ओर। ओषधीनां पतिः ओषधियों (वनस्पतियों) का स्वामी (चन्द्रमा)। अस्तशिखरम् = अस्ताचल के शिखर की ओर। याति' जा रहा है। एकतः = एक ओर। अरुणपुरःसरः = अरुण (नामक सारथि) आगे चलने वाला है जिसके ऐसा अरुण (नामक अपने सारथि) को आगे किये हुये। अर्कः सूर्य। आविष्कृतः प्रकट (उदित) हो गया है। लोकः = संसार । तेजोद्वयस्य दो (चन्द्र और सूर्य) तेजों के। युगपत् = एक साथ। व्यसनोदयाभ्याम् = अस्त एवं उदित होने से। आत्मदशान्तरेषु अपनी विभिन्न (परिवर्तनीय) अवस्थाओं (दशाओं) के विषय में। नियम्यते इव मानो नियमित किया जा रहा है (मानो उन्हें अपरिहार्य उत्थान-पतन के विषय में बताया जा रहा है)।
अनुवाद- एक ओर वनस्पतियों का स्वामी (चन्द्रमा) अस्ताचल के शिखर की ओर जा रहा है (अर्थात् अस्त हो रहा है)। (और) एक ओर (दूसरी ओर) अरुण (नामक अपने सारथि) को आगे किये हुये सूर्य प्रकट (उदित) हो रहा है। (इस प्रकार यह) संसार दो तेजों (चन्द्रमा और सूर्य) के एक साथ अस्त एवं उदित होने से अपनी अवस्थाओं (दशाओं) के परिवर्तित होने के विषय में मानों नियन्त्रित (नियमित) किया जा रहा है (अर्थात् संसार को अपरिहार्य उत्थानपतन के विषय में बताया जा रहा है)।
संस्कृत व्याख्या- एकतः एकस्यां दिशि, पश्चिमदिग्भागे इत्यर्थः, ओषधीनां पतिः ओषधीशः चन्द्रः, अस्तशिखरम् अस्ताचलस्य शृङ्गं, याति गच्छति, एकतः एकस्यां दिशि, पूर्वदिग्भागे इत्यर्थः, अरुणपुरःसरः अरुणः गरुडाग्रजः पुरःसरः अग्रगामी यस्यः सः, अर्कः सूर्यः, आविष्कृतः आत्मानं प्रकाशयितुमारभते, प्रादुर्भूतः इत्यर्थः, लोकः संसारः, तेजोद्वयस्य - चन्द्रसूर्ययोः, युगपत् समकालम् व्यसनोदयाभ्याम् अस्तोदयगमनाभ्याम् । विपत्सम्यद्भ्यां, आत्मदशान्तरेषु सुखदुः खात्मकावस्थाविशेषेषु, नियम्यते इव शिक्ष्यते इव । स्वस्वविपत्तिसम्पत्तिदशानां परिवर्तने केनापि दुःखहर्षी न कार्यों इतिभावः ।
संस्कृत-सरलार्थः - आसन्ने प्रभाते पश्चिमदिग्भागे चन्द्रोऽस्ताचलं याति पूर्वदिग्भागे च सूर्यः प्रादुर्भवति । इत्थं समकालमेव चन्द्रस्य पतनरूपविपत्त्या तथा सूर्यस्योदयरूपसम्पत्त्या च लोकस्य कृते शिक्षेयं प्रदीयते यत् सर्वषामेवेत्थं क्षयोदयौ स्तः । न कोऽपि चिरस्थायीति । अतः सम्पत्तौ हों, विपत्तौ च शोको न कार्यों।
व्याकरण- एकतः- एक तसिल् (सप्तम्यर्थे), ओषधिः ओषः पाकः दीप्तिर्वा घीयते अस्यामिति - ओषधा+किम तासां पतिः ष०त० । अस्तशिखरम् अस्तस्य शिखरम् (ष०त०) । आविष्कृतः - आविष्कृ+क्त। अरुणपुरःसरः अरुणः पुरः सरः यस्य (ब्र०बी०), पुरःसरः पुरः सरतीति पुरःसरः पुरष्+सृ+ट। अर्कः अर्व्यते इति अर्कः 'अर्क' स्तवने अथवा 'अर्च' पूजायाम् धातु से घञ् । युगपद्व्यसनोदयाभ्याम् व्यसनं (वि+अस्ल्युट् भावे) च उदयश्च इति व्यसनोदयौ (द्वन्द्व) युगपत यौ व्यसनोदयौ ताभ्याम् । आत्मदशारन्तेषु आत्मनः दशानाम् अन्तराणि (तत्पु०) तेषु । नियम्यते नियम्यक् कर्मवाच्य प्र०पु०ए०व० आत्मनेपद ।
कोष- 'अस्तस्तु चरमक्ष्माभृतः' इत्यमरः । 'विधुः सुधांशुः शुभ्रांशुरोषधीशो निशां पतिः' इत्यमरः । 'सूर्यसुतोऽरुणोऽनुरूः काश्यपिर्गरुडाग्रजः' इत्यमरः । 'व्यसनं विपदि भ्रंशे' - इत्यमरः । 'उदयः सम्पदुत्पत्त्योः पूर्वशैले समुन्नतौ' इत्यमरः । 'लोकस्तु भुवने जने' इत्यमरः । 'अर्कोऽर्कपणें स्फटिके रवौ ताने दिवस्पतौ' इति मेदिनी। 'दशावस्थादीषत्यों' इति मेदिनी ।
अलङ्कार- (१) चन्द्र एवं सूर्य में दो सज्जन व्यक्तियों का आरोप होने से समासोक्ति अलङ्कार है। ल०द्र० १/२३ श्लोक । (२) प्रभातवर्णन में चन्द्र और सूर्य इन दोनों के प्रस्तुत होने के कारण तुल्ययोगिता अलङ्कार है। ल०द्र० ३/१७ श्लो० । चन्द्र एवं सूर्य का क्रमशः व्यसन (विपत्ति) उदय (सम्पत्ति) 'व्यसनोदयाभ्याम्' (प्रथमचरण में चन्द्र व्यसन तथा द्वितीयचरण में सूर्य का उदय वर्णित है) से सम्बन्ध होने से यथासंख्य अलङ्कार है। (३) 'नियम्यते इव' में उत्प्रेक्षा अलङ्कार है। ल०द्र० १/१८ श्लो० । यहाँ 'इव' उत्प्रेक्षा बोधक है। चन्द्रमा एवं सूर्य के क्रमशः व्यसन (विपत्ति) एवं उदय (सम्पत्ति) से संसार में लोगों की अपरिहार्य विपत्ति-सम्पत्ति की शिक्षा की सम्भावना की गयी है।
छन्द- श्लोक में 'वसंततिलका' छन्द है। ल०द्र० १/८ श्लोक । टिप्पणी- (१) अरुणपुरःसरः सूर्य के सारथि 'अरुण' के अन्य नाम हैं- सूर्य- सूत, काश्यपि, गरुडाग्रज तथा अनूरु। सूर्य के सारथि होने से 'सूर्यसूत', कश्यप के पुत्र होने से 'काश्यपि' गरुड के बड़े भाई होने से 'गरुडाग्रज' और जंघाविहीन होने से 'अनूरु' कहे जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार अरुण के पिता कश्यप तथा माता विनता हैं। इनके बड़े भाई का नाम गरुड है, जिन्हें 'वैनतेय' नाम से भी जाना जाता है। प्रसव के लिए निर्धारित समय से पहले माता द्वारा अण्डा फोड़ कर निकाल दिये जाने के कारण ये जंघाविहीन हैं, इसीलिये इन्हें 'अनूरु' (नास्ति अरू यस्य अनूरुः) कहा जाता है। सूर्य अपने सारथि अरुण को आगेकर उदित होते हैं। फलतः अरुणोदय पहले होता है तदन्तर सूर्योदय। (२) वेद में भी चन्द्र (सोम) को ओषधियों का पति कहा जाता है-सोम ओषधीनां पतिः। 'ओषधीश' चन्द्र का एक नाम है। ओषधि शब्द वनस्पतिमात्र के लिये प्रयुक्त होता है। चन्द्र की किरणों से वनस्पतियों (ओषधियों) का विकास होता है। (३) लोको नियम्यत इव प्रातः काल में एक ही साथ चन्द्रमा अस्ताचल को जाता है और सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है अर्थात् चन्द्रमा का पतन तथा सूर्य का उत्थान होता है। जो चन्द्रमा रात में अपने विकास को प्राप्त था, वही अब प्रातः काल में प्रभाविहीन होकर विपत्तिग्रस्त हो रहा है। इसके विपरीत रात में जो सूर्य निष्प्रभ होकर विपन्न हो गया था, अब प्रातः काल में वही उदयाचल पर आरूढ़ होकर उत्थान (अभ्युदय) को प्राप्त हो रहा है। चन्द्रमा एवं सूर्य के क्रमशः पतन तथा उत्थान से संसार में लोगों को मानो यह शिक्षा मिल रही है कि सभी प्राणियों का उत्थान और पतन (सम्पत्ति और विपत्ति) अवश्यम्भावी है। समय बलवान् होता है वह उन्नत को अवनत और अवनत को उन्नत बनाता रहता है। अतः सम्पत्ति में हर्ष एवं विपत्ति में शोक नही करना चाहिये। इस सन्दर्भ में मेघदूत की 'कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा' यह उक्ति तथा माघ का 'समय एव करोति बलाबलं प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम्' यह कथन ध्येय है। (४) यहाँ अपने पक्ष की पुष्टि के लिये दृष्टान्तं देने से 'दृष्टान्त' नामक नाटकीय लक्षण है। 'दृष्टान्त' का लक्षण है - 'दृष्टान्तो यातु पक्षार्थसाधनाय निदर्शनम्' । यहाँ शापवृत्तान्त से (प्रसन्न) दुष्यन्त की अवनत दशा भी सूच्य है।
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