किसे कहते हैं सोला का भोजन ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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किसे कहते हैं सोला का भोजन ?
 किसे कहते हैं सोला का भोजन ?


 स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क दोनों ही के लिये शुद्ध आहार बहुत आवश्यक है। एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क विद्यमान होता है। प्रायः देखने में आता है कि जिस व्यक्ति का जैसा आहार होता है, उसके विचार भी उसी प्रकार के होते हैं। शुद्ध आहार लेने वालों के विचार भी शुद्ध होते हैं और दूषित एवं अशुद्ध भोजन करने वालों के विचार भी दूषित होते हैं। जितने भी महापुरूष, संन्यासी, महात्मा, साधु, ऋषि, महाराज हैं, वे सभी शुद्ध एवं संयमित भोजन करते हैं। इसलिये उनके विचार उनकी सोच और उनके मुँह से निकले हुए शब्द भी उसी प्रकार शुद्ध, नपे-तुले संतुलित एवं शिक्षा प्रदान करने वाले होते हैं। आहार, विचार एवं स्वास्थ्य ये तीनों ही एक माला के दमकते मोती हैं। सभी एक दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे पर आधारित हैं। अशुद्ध आहार से विचार भी अशुद्ध होते हैं और हमारा स्वास्थ्य भी।"

सूर्यास्त के पूर्व भोजन क्यों

 कीटाणु और रोगाणु जिन्हें हम सीधे तौर पर देख नहीं सकते वे सूक्ष्म जीव रात्रि में तेजी से फ़ैल जाते हैं। ऐसे में सूर्यास्त के बाद खाने से वे सीधा हमारे शरीर में जाकर बीमारियां पैदा करते हैं और जैन धर्म में इसे हिंसा माना गया है। आयुर्वेद का मानना है कि सूर्यास्त से पहले भोजन करने से हमारा पाचन तंत्र ठीक रहता है और ऐसा करने पर पाचन शक्ति मजबूत होती है। इसके अलावा शाम के पहले खाने से भोजन जल्दी पचता है और पेट से सम्बंधित विकार नही होते हैं।

सोला क्या होता है ? सोला के भोजन से क्या आशय है?

प्राचीन से मुनियो एवं त्यागी व्रतियों के चौको (रसोई घर) में अक्सर सोला शब्द प्रयोग किया जाता है। कई बार जानकारी के अभाव में सोला शब्द एक रूढ़िवादी परम्परा सा लगने लगता है लेकिन सोला को सोला क्यों कहा जाता है? इससे जुड़ी भ्रांतियां और 16 का वास्तविक स्वरूप क्या है इसे हम जैन दर्शन के परिपेक्ष में जानते हैं।

यह सोला शब्द भोजन निर्माण संबंधी सोलह नियमों पर आधारित एक स्वास्थ्य परक भोजन शैली है जिसे कालान्तर में सोला शब्द तक सीमित होना पड़ा।

भोजन निर्माण संबंधी सोलह नियम 

1- द्रव्य शुद्धि    2- क्षेत्र शुद्धि     3-काल शुद्धि     4-भाव शुद्धि


1. द्रव्य शुद्धि 

अन्न शुद्धि  - खाद्य सामग्री सड़ी गली घुनी एवं अभक्ष्य न हो ।

जल शुद्धि - जल जीवानी किया हुआ और प्रासुक हो ।

अग्नि शुद्धि - ईंधन देखकर शोध कर उपयोग किया गया हो ।

कर्त्ता शुद्धि - भोजन बनाने वाला स्वस्थ हो , स्नान करके धुले शुद्ध वस्त्र पहने हो , नाखून बडे न हो , अंगुली वगैरह कट जाने पर खून का स्पर्श खाद्य वस्तु से न हो , गर्मी में पसीने का स्पर्श न हो या पसीना खाद्य वस्तु में ना गिरे ।


2. क्षेत्र शुद्धि 

प्रकाश शुद्धि - रसोई में समुचित सूर्य का प्रकाश रहता है ।

वायु शुद्धि - रसोई में शुद्ध हवा का संचार हो ।

स्थान शुद्धि - रसोई लोगों के आवागमन का सार्वजनिक स्थान न हो एवं अधिक अंधेरे वाला स्थान न हो ।

दुर्गंध शुद्धि - हिंसादि कार्य न होता हो , गंदगी से दूर हो ।


3. काल शुद्धि 

ग्रहण काल - चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के काल में भोजन न बनाया जाय ।

शोक काल - शोक दुःख अथवा मरण के समय भोजन न बनाया जाए।

रात्रि काल - रात्रि के समय भोजन नहीं बनाना चाहिए ।

प्रभावना काल - धर्म प्रभावना अर्थात् उत्सव काल के समय भोजन नहीं बनाना चाहिए ।


4. भाव शुद्धि 

वात्सल्य भाव - पात्र और धर्म के प्रति वात्सल्य होना चाहिए । रिश्वत,चोरी आदि के धन से भोजन तैयार करके साधु को भोजन कभी नहीं कराना चाहिए।

करुणा भाव - सब जीवों एवं पात्र के ऊपर दया का भाव रखना चाहिए ।

विनय भाव - पात्र के प्रति विनय का भाव होना चाहिए ।

दान भाव - दान करने का भाव रहना चाहिए। अकड़,अहम भाव के साथ आहार दान नहीं देना चाहिए।

कहा भी गया है -  जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन।

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