महान गणितज्ञ वैज्ञानिक आर्यभट्ट

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भारत मे निर्मित प्रथम उपग्रह का आर्यभट्ट नाम देकर 19 अप्रेल 1975 को अंतरिक्ष मे छोड़ा गया तभी जाकर प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक 'आर्यभट्ट' का नाम देश के कोने-कोने मे प्रचारित हुआ, फिर अगले वर्ष नयी दिल्ली मे आर्यभट की 1500वीं जयंती मनाई गयी और 'आर्यभटीय' के तीन -चार उत्तम संस्करण उपलब्ध हुए और वे चर्चा मे आए।

जन्म स्थान

आर्यभट के जन्म के बारे में कुछ मत-भेद है कुछ विद्वानों का मत है की उनका जन्म नर्मदा के पास कहीं हुआ था कुछ इतिहासकारों के मतानुसार लेकिन उनकी पढ़ाई नालंदा विश्वविद्यालय में हुई थी इनकी प्रयोगशाला 'खगोल' जो कुसुमपुर (पटना) के पास है 'तारेगना' जो दूसरी प्रयोग शाला जहाँ से वे नक्षत्रों के गणना का काम करते थे, वह भी स्थान यहीं पर है इससे यह पता चलता है की जन्म कहीं भी हो पर कर्मभूमि कुशुमपुर ही थी, कुछ लोगो का विचार है की उनका जन्म कुसुमपुर अर्थात आधुनिक पटना मे हुआ था। आर्यभट ने केवल इतनी ही स्पष्ट जानकारी दी है भारतीय ज्योतिष के अनुसार कलि के 3179 वर्ष बीतने पर शककाल शुरू हुआ था अतः आर्यभट 23 वर्ष के थे यानी उनका जन्म 398 शक अर्थात उनका जन्म 476 ई॰ सन मे हुआ, इस गणना के अनुसार रविवार 14 अप्रैल 476 को आर्यभट का जन्म तिथि निर्धारित किया जा सकता है ।

मूलतः वैदिक आचार्य

पाटलिपुत्र आधुनिक पटना को पुष्पपुर और कुसुमपुर के नाम से भी जाना जाता था, मौर्यकाल से लेकर गुप्तकाल तक भारत का एक वैभवशाली नगर था 'दशकुमारचरित' के लेखक 'दंडी' ने पाटीलीपुत्र को कुसुमपुर कहा है, कबि विशाखादत्त, जिनका समय संभवतः ईशा की आठवी सदी है अपने नाटक 'मुद्राराक्षस' में सूचना देते हैं कि कुसुमपुर (पटीलीपुत्र) मे राज़ा और बड़े लोगों का निवास था, आर्यभट के प्रथम भाष्यकार भास्कर प्रथम (629) ने भी मगध के पाटलिपुत्र को ही कुसुमपुर माना है उस समय कुसुमपुर मे स्वयंभूव या ब्रह्म-सिद्धान्त का विशेष आदर था। वराहमिहिर ने ''पंचसिद्धांतिका'' मे जिन पाँच पुराने सिद्धांतों का परिचय दिया है उनमे सबसे प्राचीन 'पितामह-सिद्धान्त' या 'ब्रह्म-सिद्धान्त' ही है, वस्तुतः ब्रह्म-सिद्धान्त को संशोधित करने के प्रयोजन से आर्यभट्ट ने अपने ग्रंथ की रचना की है।

  आर्यभट्ट मूलतः वैदिक आचार्य थे। उनका वेदों मे अटूट विश्वास था। वेदों के आधार पर सौर्य मण्डल के गूढ रहस्यों को खोज निकालने का प्रयास किया, उन्हीं वेदों को आधार मान स्वामी दयानन्द ने जब पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों के भ्रमण की बात की तो बहुत अवैदिक मत के लोगो ने बड़ा विरोध किया। यहाँ तक कि यदि ये भारत न होता तो उनकी हालत भी 'गैलेलियो' के ही समान होती, आर्यभट्ट ने तो हजारों वर्ष पूर्व वैदिक सिद्धांतानुसार ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर किया तो हम समझ सकते है कि समाज जीवन की क्या प्रतिक्रिया रही होगी ! कुछ विद्वानों का मत है कि उन्होने अपने बुद्धि से नहीं दैवीय प्रेरणा से लिखा तो वह दैविक प्रेरणा भी वैदिक ही रही होगी 'आर्य स्त्रोत सत' मे 108 श्लोक है यह भाग तीन छोटे-छोटे भागो मे विभक्त है, 'आर्यभटीय' मे पृथ्वी का आकार, पृथ्वी कि आकर्षण शक्ति, पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना, पृथ्वी के मार्गों का विषम वृत्ताकार होना, पृथ्वी का रकबा, भू-वायु कि ऊँचाई आदि के बारे मे वर्णन है। छठे सूत्र में है 'भूगोलः सर्वतो वृत्तः' (पृथ्वी गोलाकार है) सूर्योदय पृथ्वी पर नहीं होता यह वैदिक आधार पर सिद्ध किया।  

वेदों की सार्थकता सिद्ध की  

 संसार के वे पहले ज्योतिष वैज्ञानिक थे जिंहोने वेदों की सार्थकता को सिद्ध करते हुए यह सिद्ध किया कि पृथ्बी स्थिर नहीं अपनी धुरी पर घूमती है, उस समय न तो वर्तमान की तरह आधुनिक विकसित यंत्र थे न ही प्रयोगशाला, यह उनकी बिलक्षण बुद्धि का परिचायक ही है और हमारे पूर्वज कितना सोध के प्रति सतर्क थे, ग्रंथ मे पृथ्बी के सूर्य का चक्कर लगाने का ब्यवरा है, जिसमे लिखा गया है कि चतुर्युगी यानी चार युग (कलयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा सतयुग) इन सबों के कालावधि का भी वर्णन है, ग्रंथ मे पृथ्बी 366 दिनों मे एक बार घूमती है, इस तरह पृथ्बी का क्षेत्रफल या ब्यास कहें 1,94,82,897,30 वर्ग मिल है। काल क्रिया पद के 15वें सूत्र ग्रहों मे चंद्रमा को पृथबी के सबसे नजदीक बताया गया है। 

काल गणना के आचार्य

 उन्होने जिन ग्रन्थों की रचनाकी उसमे 'आर्यभटीय' ग्रंथ के चार खंड है दशगीतिका, गणितपाद, कालक्रियापाद, और गोलपाद, दशगीतिका मे प्रथम वंदना और पुस्तक का विषय निर्देशित है आर्यभट के गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तके हैं जिनमे कुछ खो गयी हैं उनकी प्रमुख कृति आर्यभट्टीयम गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है जो आधुनिक समय मे भी अस्तित्व मे है उनके गणतीय भाग मे अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिती और गोलीय त्रिकोणमिती शामिल है, आर्यभट् सिद्धान्त के इस समय केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध है, दूसरे आर्य मे स्वरों एव व्यंजनों की सहायता से बड़ी संख्यायों को लिखने की विधि है फिर दश आर्ययों मे ब्रम्हा का एक दिन का परिणाम वर्तमान दिन का बीता समय आकाशीय पिंडों के भ्रमण उनके मंद बृत तथा शीघ्र वृत की परिधियों उनकी कक्षाओं के परस्परिक झुकाव और 24 अर्धज्याओं के मान दिये गए हैं इसी से इसे 'दशगीतिका' कहते हैं, 'आर्यभटीय' एक तंत्र ग्रंथ है तंत्र उन्हे कहते हैं जिनमे गणना कलियुग के प्रारम्भ से की जाती है, जिन ग्रन्थों मे गणना 'कल्प' के प्रारम्भ से की जाती है उन्हे 'सिद्धान्त' कहते हैं इसके अतिरिक्त कारण ग्रंथ होते हैं जिनमे गणना किसी निश्चित क्षण मे की जाती है, 'कल्प' की धारणा का प्रारम्भ आर्यभट के बहुत पहले हो चुका था जिसका वर्णन महाभारत मे है । 

भारतीय वांग्मय में विश्वास का प्रतिकरण

 लगभग 1200 वर्षों की गुलामी का परिणाम हमारे वैज्ञानिक शोध सब कुछ गायब कर दिये गए, हम हिंदुओं मे हीन भावना का विकाश विदेशियों ने किया परिणाम स्वरूप हमारा स्वाभिमान समाप्त सा हो गया, स्वामी दयानन्द सरस्वती और डाक्टर हेड्गेवार दो ऐसे महापुरुष हुए जिंहोने भारतीय समाज को झकझोरा और जगाने का प्रयत्न किया उसी का परिणाम है की आज हम सब इन महापुरुषों को खोज कर हिन्दू समाज के सामने ल पा रहे हैं, प्राचीन भारत मे गणित और ज्योतिष का अध्ययन साथ-साथ होता था इसलिए प्रायः एक ही ग्रंथ मे गणित व ज्योतिष की जानकारी दी जाती थी, 'आर्यभटीय' ऐसा ही ग्रंथ है, आर्यभट को याद करना भारतीय वांगमय मे विस्वास का प्रकटीकरण ही है।

 आर्यभट्ट हमारी वैदिक परंपरा की एक कड़ी हैं जिसमे कणादि, गौतम, सुश्रुत तथा भास्कराचार्य जैसे ऋषि वैज्ञानिक थे। ये विश्वामित्र, अगस्त के मौलिक उत्तराधिकारी थे ।

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