लौहजंघ की कथा

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लौहजंघ की कथा

 इस पृथ्वी पर भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी है। वहां रूपणिका नाम की एक वेश्या रहती थी। उसकी मां मकरदंष्ट्रा बड़ी ही कुरूप और कुबड़ी थी। वह कुटनी का कार्य भी करती थी। रूपणिका के पास आने वाले युवक उसकी मां को देखकर बड़े दुखी होते थे।

एक बार रूपणिका पूजा करने मंदिर में गई। वहां उसने दूर खड़े एक युवक को देखा। युवक ने भी रूपणिका को देखा और देखते ही वह उस पर आसक्त हो गया। वह उसे प्राप्त करने के लिए विचार करने लगा। बेचारा युवक आया तो था पूजा करने, किंतु वेश्या पर मर मिटा।

रूपणिका की मन:स्थिति भी इसी प्रकार की हो गई थी। वह भी पूजा करने आई थी, किंतु युवक पर मोहित हो गई। उसने अपने साथ आई सेविका से कहा - "देखो, वह सामने एक युवक खड़ा है। जाकर उससे कहो कि आज रात्रि वह मेरे घर पर पधारे।"

सेविका युवक के पास गई और बोली - "युवक! वह सामने मेरी स्वामिनी रूपणिका खड़ी हैं। उन्होंने आज रात्रि आपको अपने घर आमंत्रित किया है। आप अवश्य आने की कृपा करें।"

यह सुनकर युवक बोला - "मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किंतु मैं लौहजंघ नाम का एक निर्धन ब्राह्मण हूं, जबकि रूपणिका के पास केवल धनवान ही जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में मैं वहां कैसे आ सकता हूं ?"

"मेरी स्वामिनी आपसे धन नहीं चाहतीं। आप केवल उनके निवास स्थान पर आ जाएं, यही बहुत है।"

"यदि ऐसी बात है तो आज रात्रि मैं अवश्य जाऊंगा।"

सेविका ने सारी बात रूपणिका को बताई। पूजा करने के बाद रूपणिका अपने घर पहुंची और उस युवक के ध्यान में डूब गई।

संध्या होने पर वह उसकी प्रतीक्षा में बैठ गई।

लौहजंघ निश्चित समय पर रूपणिका के पास पहुंच गया। मकरदंष्ट्रा को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसने रूपणिका को काफी समझा-बुझाकर मंदिर भेजा था। लौहजंघ को आया देख रूपणिका प्रसन्नता के साथ उसे अपने शयनकक्ष में ले गई। उसने अपनी मां की भी कोई परवाह न की। लौहजंघ के साथ सहवास करने से रूपणिका को अपार आनंद प्राप्त हुआ था। वह अपने जीवन को धन्य समझने लगी। उसने अन्य युवकों से संबंध तोड़ लिए और केवल लौहजंघ की होकर रहने लगी। लौहजंघ भी आनंदपूर्वक उसी के घर में रहने लगा।

अपनी कन्या के इस व्यवहार से मकरदंष्ट्रा बड़ी दुखी थी। कहां वह नगर-भर की वेश्याओं को प्रशिक्षण देती थी और कहां उसी की पुत्री उसके वश से बाहर हो गई। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। एक दिन वह रूपणिका से बोली - "पुत्री! इस दरिद्र को तुमने क्यों पाल लिया है? मनुष्य भले ही मुद्रे का स्पर्श कर ले, किंतु वेश्या निर्धन का स्पर्श नहीं करती। सच्चे प्रेम और वेश्यावृत्ति का आपस में कोई संबंध नहीं है।

प्रेम-बंधन में उलझ जाने वाली वेश्या की चमक संध्या के समान शीघ्र नष्ट हो जाती है। वेश्या केवल धन के लिए प्रेम का नाटक करती है| मेरा कहा मानो, इस दरिद्र ब्राह्मण से पल्ला छुड़ा लो, अन्यथा तुम स्वयं अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मार लोगी।"

मां की बातें सुन रूपणिका को बड़ा गुस्सा आया। वह कहने लगी - "मां! चाहे तुम कुछ भी कहो, मैं इसे नहीं छोड़ सकती। मैं इसे प्राणों से भी अधिक चाहती हूं। मेरे पास धन की कमी नहीं है और फिर इतने धन का मैं करूंगी भी क्या? तुम बहुत बड़-बड़ कर रही हो, अब भविष्य में इस प्रकार की बातें मत करना।"

पुत्री को विद्रोह पर उतरी हुई जानकर मकरदंष्ट्रा मन मसोसकर रह गई। वह किसी प्रकार लौहजंघ को निकाल बाहर करने की योजना बनाने लगी।

कुछ दिन बाद मकरदंष्ट्रा ने कुछ सशस्त्र सैनिकों के साथ जाते हुए एक राजकुमार को देखा। उसके पास जाकर वह बोली - "राजकुमार! मेरे घर पर एक निर्धन कामुक ब्राह्मण ने अधिकार कर लिया है। मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप उसे किसी भी प्रकार निकाल बाहर करें। इसके बदले में आप मेरी पुत्री के साथ आनंदपूर्वक विहार कर सकते हैं।"

प्रजा की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझ, राजकुमार ने उसकी बात स्वीकार कर ली। वह रूपणिका के घर गया। संयोग से उस समय रूपणिका मंदिर गई हुई थी और लौहजंघ भी घर पर नहीं था। कुछ ही समय बाद जब वह लौटा तो राजकुमार के सैनिक उसे पीटने लगे। वह वहां से भागने लगा तो सैनिकों ने उसे नाले में गिरा दिया। जान बचाकर किसी तरह वह वहां से भाग खड़ा हुआ।

लौटने पर रूपणिका ने घर की दशा देखी और जब उसे सब कुछ ज्ञात हुआ तो वह बहुत दुखी हुई।

फिर राजकुमार को भी लगा कि उसने जो कुछ किया, वह उचित नहीं था, तब उसने रूपणिका के भोग का विचार छोड़ दिया और वहां से निकल पड़ा।

लौहजंघ समझ गया कि यह सब मकरदंष्ट्रा की करतूत है। उसे उस पर भारी क्रोध आ रहा था, किंतु वह विवश था, इसलिए वह किसी तीर्थ में जाकर आत्मघात करने का विचार करने लगा।

तपती दुपहरी में वह आगे बढ़ रहा था। मकरदंष्ट्रा के व्यवहार से दुखी तो वह था ही, ऊपर से भयंकर गर्मी में चलना भी कठिन हो गया। तब इधर-उधर छाया की खोज करने लगा, जिसका वहां नाम भी न था। तभी उसे एक मरे हाथी की खाल दिखाई दी, जिसका मांस गीदड़ों ने खा लिया था, किंतु चमड़े को वे नहीं खा पाए थे।

उस खाल के पास जाकर लौहजंघ उसके अंदर देखने लगा। उसमें मांस या रक्त का नाम भी न था। वह उसके अंदर जाकर बैठकर आराम करने लगा। छाया मिलते ही गर्मी में थके-हारे लौहजंघ को तत्काल नींद आ गई।

लौहजंघ को कुछ भी सुध न थी। उसे यह मालूम न हो सका कि कब भयंकर वर्षा हुई और कब क्या हुआ? वर्षा में नदियों से बहता हुआ वह उसी खाल के साथ समुद्र में जा पहुंचा।

समुद्र में वह खाल के साथ ऊपर-नीचे हो रहा था तो एक गरुड़ ने उसे देख लिया। उसे मांस का पिंड समझकर गरुड़ झपटकर उसे एक टापू पर ले गया। वहां उसने हाथी की खाल को उधेड़ डाला, किंतु उसमें मांस का तो नाम भी न था, अपितु अंदर एक जीवित मनुष्य बैठा था। तब उसे वहीं छोड़कर गरुड़ उड़ गया।

नींद खुलने पर खाल में बने छेदों से लौहजंघ ने बाहर देखा तो उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया। उसे यह सब स्वप्न के समान लग रहा था।

सहसा उसकी दृष्टि समुद्र तट पर खड़े दो राक्षसों पर पड़ी, जो भयभीत होकर उसे देख रहे थे। उन भयानक राक्षसों को देखकर लौहजंघ भी डर गया।

भगवान राम के लंका पर आक्रमण और हनुमान के लंकादहन की घटनाओं से वे राक्षस परिचित ही थे, अत: पुन: एक मनुष्य के लंका आ पहुंचने से वे बड़े डरे हुए थे। उन्होंने इस घटना के विषय में राजा विभीषण को सूचित किया।

राम की घटना से विभीषण जानता था कि मनुष्य जाति बड़ी प्रभावशाली है। द्वीप में मनुष्य के आगमन के समाचार से वह बड़ा चिंतित हुआ और उसने अपने दूतों को आदेश दिया - "जाओ, समुद्र तट पर आए हुए उस मानव को आदर सहित यहां ले आओ।"

भयभीत दूत ने डरते-डरते लौहजंघ को विभीषण का आदेश सुनाया। लौहजंघ ने ध्यान से उसकी बात सुनी और फिर उसके साथ चल पड़ा।

लंका की शोभा देखकर लौहजंघ को बड़ा आश्चर्य हुआ। सोने की लंका जगमगा रही थी। दूत के साथ लौहजंघ विभीषण की सभा में पहुंचा, जहां उसने विभीषण को देखा। विभीषण ने ब्राह्मण समझकर लौहजंघ का समुचित सत्कार किया और उसका परिचय जानने के लिए पूछा - "ब्राह्मण देवता! आप कौन हैं? आपका यहां आगमन कैसे हुआ?"

लौहजंघ सरासर झूठ बोल गया - "मैं मथुरा निवासी एक कुलीन ब्राह्मणं हूं। अपनी दरिद्रता से दुखी होकर मैंने निराहर रहकर भगवान विष्णु की तपस्या की। तब भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर मुझसे कहा - 'पुत्र! तुम लंका नरेश विभीषण के पास जाओ। वह मेरा परम भक्त है। वह तुम्हें मुंह मांगा धन देगा।'

मैंने भगवान से कहा - "मैं विभीषण के पास पहुंचूंगा कैसे? कहां राजा विभीषण, कहां मैं!'

'तुम शीघ्र जाओ। तुम्हारी भेंट विभीषण से होगी।' भगवान बोले।

इसके बाद जब मेरी नींद खुली तो मैंने स्वयं को इस द्वीप पर पाया। इससे अधिक मुझे कुछ मालूम नहीं है।"

विभीषण समझता था कि कोई साधारण व्यक्ति वहां नहीं पहुंच सकता, अत: उसने लौहजंघ को कोई महान ब्राह्मण समझकर उसकी बातों पर विश्वास कर लिया। उसने लौहजंघ से कहा - "मैं आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करूंगा।"

विभीषण ने उसके रहने की सुंदर व्यवस्था कर दी। लौहजंघ सुखपूर्वक लंका में रहने लगा।

विभीषण ने पहले एक गरुड़ लौहजंघ को देते हुए कहा - "आप इस पर सवारी करेंगे, अत: इसे आप अपने वश में करें। इसी पर बैठकर आप वापस मथुरा जाएंगे।"

विभीषण का अतिथि बना हुआ लौहजंघ गरुड़ पर बैठने और उसे उड़ाने का अभ्यास करने लगा।

एक बार लौहजंघ ने विभीषण से पूछा - "महाराज! लंका की यह भूमि काष्ठ की बनी हुई क्यों दिखाई देती है?"

विभीषण बोला - "यह एक लंबी कहानी है। क्या आप इसे सुनना चाहेंगे?"

"अवश्य महाराज!" मौहजंघ ने कहा।

"अच्छा सुनो।" कहकर विभीषण कथा सुनाने लगा -

'प्राचीन काल में कश्यप के पुत्र गरुड़ ने अपनी मां विनता को नागों की दासता से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा की। इसके लिए एक उपाय नागों को अमृतकलश लाकर देना भी था। इसके लिए सर्वशक्तिमान बनना आवश्यक था, अत: गरुड़ अपने पिता के पास गया।

सर्वशक्तिमान बनने के लिए गरुड़ ने पिता कश्यप से प्रार्थना की तो वह बोले - 'समुद्र में एक कछुआ और एक हाथी जैसे विशाल जीवों को खाने से तुम्हारा शाप छूट जाएगा।'

गरुड़ तुरंत समुद्र में पहुंचा। उसने उक्त दोनों जीवों को पकड़ लिया और उन्हें खाने के लिए कल्पवृक्ष की डाल पर जा बैठा, किंतु उसके भार से डाल टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। वहीं नीचे बालखिल्य ऋषि तप कर रहे थे। कहीं वह डाल उन पर न जा गिरे, इस भय से गरुड़ ने उसे बीच में ही पकड़ लिया और उसे उठाकर यहां समुद्र के तट पर रख दिया। यह लंका कल्पवृक्ष की उसी डाल पर बसी हुई है, इसीलिए यह काष्ठ की बनी हुई दिखाई दे रही है।'

इस कथा को सुन लौहजंघ को बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ दिनों में उसे गरुड़ की सवारी का अभ्यास हो गया। तब विभीषण ने उसे पर्याप्त धन और मूल्यवान रत्न दिए तथा मथुरा के स्वामी के लिए शंख, चक्र, गदा और पद्म भेजे।

इस सभी चीजों को लेकर लौहजंघ गरुड़ पर बैठकर मथुरा की ओर उड़ चला। कुछ ही समय में वह मथुरा पहुंच गया।

मथुरा में लौहजंघ ने गरुड़ को एक बौद्ध विहार में उतारा, विभीषण से मिले धन को पृथ्वी में गाड़ दिया तथा गरुड़ को एक खूंटे से बांध दिया। इसके बाद एक रत्न को उसने बाजार में बेच दिया तथा अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं तथा श्रृंगार सामग्री खरीद ली।

बौद्ध विहार में लौटकर उसने स्नान, भोजन आदि किया तथा अपने वाहन पक्षी को भी भोजन कराया, फिर वह सुंदर वस्त्र पहनकर, सज-संवरकर तैयार हो गया। सायंकाल में वह गरुड़ पर बैठकर रूपणिका की छत पर जा पहुंचा।

वहां जाकर उसने एक विशेष प्रकार की आवाज की तो रूपणिका उसे देखने के लिए बाहर आई। उस समय लौहजंघ शंख, चक्र आदि युक्त भगवान विष्णु के वेश में था। उसे देखने पर रूपणिका ने उसे भगवान विष्णु ही समझा।

लौहजंघ ने उसे अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया और बोला - "मैं, भगवान विष्णु तुमसे मिलने आया हूं।"

रूपणिका उसे प्रणाम करते हुए बोली - "भगवन्! आपने बड़ी कृपा की। आइए, विराजिए।"

अपने वाहन पक्षी को वहीं बांधकर लौहजंघ रूपणिका के कक्ष में चला गया। कुछ समय उसके साथ बिताने के बाद लौहजंघ गरुड़ पर बैठकर अपने निवास स्थान पर चला गया।

इसके बाद रूपणिका को बड़ा हर्ष होने लगा। उसे अपने भाग्य पर बड़ा गर्व हुआ कि वह भगवान की प्रेमिका बन गई है। वह समझने लगी कि साक्षात विष्णु की प्रेमिका बन जाने से वह स्वयं भी देवी बन गई है और अब उसे मनुष्यों से बातें भी नहीं करनी चाहिए।

अत: रूपणिका ने लोगों से बोलना भी छोड़ दिया। वह अंदर ही परदे में रहने लगी। उसके इस व्यवहार से उसकी मां को आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था। इसका कारण जानने के लिए मां ने पुत्री से पूछा - "बेटी! तुमने बोलना क्यों छोड़ दिया है?"

मां द्वारा बार-बार पूछे जाने पर रूपणिका ने सारी बात उसे बता दी। कुटनी मां को पहले पुत्री की बात पर विश्वास न हुआ, किंतु जब रात्रि में लौहजंघ गरुड़ पर बैठकर पुन: आया तो उसने स्वयं देख लिया, अत: उसे विश्वास करना ही पड़ा।

दूसरी प्रात: कुटनी परदे की ओट से पुत्री से बोली - "बेटी! तू तो भगवान की कृपा से देवी बन गई है। मैं तेरी मां हूं। मेरा जीवन भी सफल कर दे।"

रूपणिका कुछ न बोली तो मां ने पुन: कहा - "बेटी! मैं बूढ़ी हो गई हूं। अब मुझे संसार का कोई मोह नहीं रहा। मैं इस शरीर से स्वर्ग जाना चाहती हूं। इसके लिए तू भगवान से मेरी सिफारिश कर दे।"

रात्रि में लौहजंघ के आने पर मकरदंष्ट्रा ने उससे भी इसी प्रकार की प्रार्थना की। इस पर लौहजंघ रूपणिका से बोला - "तुम जानती हो, तुम्हारी मां पापी है। उसका इस शरीर से स्वर्ग जाना संभव नहीं है। एकादशी को स्वर्गद्वार खुलने पर पहले शिव के गण वहां प्रवेश करते हैं। यदि तुम्हारी मां शिव के गणों का वेश बना ले तो हो सकता है कि उसे भी प्रवेश मिल जाए।"

"इसके लिए हमें क्या करना होगा?" रूपणिका ने पूछा।

"उसका सिर पांच जगह से मुंडवाकर पांच चोटियां रखनी होंगी, गले में हडि्डयों की माला पहनानी होगी तथा आधे शरीर में काजल और आधे में सिंदूर पोतना होगा, तभी उसे शिवगणों में मिलाया जा सकेगा। उसके ऐसा करने पर ही मैं कुछ कर सकता हूं।"

यह सब बताने के बाद लौहजंघ ने रूपणिका के साथ विहार किया, फिर लौट गया।

रूपणिका ने यह उपाय अपनी मां को बताया तो वह ऐसा करने के लिए सहमत हो गई। एकादशी के दिन उसने नाई बुलवाया और लौहजंघ के बताए अनुसार सिर मुंडाकर तैयार हो गई तथा रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगी। यथासमय लौहजंघ वहां आया। उसने रूपणिका के साथ रमण किया। इसके बाद जब वह जाने लगा तो रूपणिका ने अपनी मां को उसके साथ भेज दिया।

कुटनी को गरुड़ पर बैठाकर लौहजंघ उड़ चला। मार्ग में एक मंदिर के पास चक्र के चिन्ह वाले पत्थरों के कुछ खंभों को देखा तो कुटनी को एक खंभे पर बिठा दिया और उससे कहा - "मैं शिव के गणों के पास जाता हूं और तुम्हें स्वर्ग में प्रवेश दिलाने का प्रयत्न करता हूं, तब तक तुम मेरी यहीं प्रतीक्षा करो।"

बुढ़िया कुटनी को वहां बैठाकर लौहजंघ उड़ गया। आगे एक मंदिर में रात्रि जागरण हो रहा था, लोग कीर्तन कर रहे थे। लौहजंघ आकाश से ही उनसे बोला - "भक्तो! आज तुम पर महाविनाशक महामारी गिरने की संभावना है। उससे बचने का केवल एक ही उपाय है कि सब मिलकर भगवान का भजन करो।"

इसके बाद वह पुन: आगे बढ़ गया। आकाशवाणी सुनकर भक्त जोर-जोर से कीर्तन करने लगे

इसके बाद लौहजंघ अपने निवास-स्थान पर गया। अपने वाहन को एक खूंटे से बांधकर उसने अपना भगवान का वेश उतार दिया तथा इसके बाद वह स्वयं भी कीर्तन करने वालों में जा मिला।

खंभे पर बैठी हुई कुटनी थक गई थी। वह मन-ही-मन विचार करने लगी कि आखिर भगवान क्यों नहीं आए। थकने से वह कभी भी नीचे गिर सकती थी, अत: वह चिल्लाने लगी - "अरे-अरे! मैं गिर रही हूं, मुझे बचाओ...।"

कीर्तन करते लोगों ने उसका चिल्लाना सुना तो उसे महाविनाशक महामारी समझा, अत: वे बोले - "नहीं-नहीं, मत गिरो।"

महामारी न गिर पड़े, इस भय से मथुरा के लोग सारी रात भयभीत बने रहे। प्रात:काल राजा और प्रजा सभी ने उस खंभे पर कुटनी को बैठा पाया तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, उसे पहचानकर लोग अपनी हंसी रोक न पाए।

इस सूचना के मिलने पर रूपणिका भी वहां आई। अपनी मां को इस स्थिति में देख वह आश्चर्य में डूब गई। किसी प्रकार कुटनी को खंभे से नीचे उतारा गया। पूछने पर उसने अपने साथ बीती सारी घटना लोगों को कह सुनाई। लोगों ने इसे सिद्ध पुरुष द्वारा किया गया एक मजाक समझा। सभी कहने लगे - "इस कुटनी ने कई युवकों को ठगा है। चलो, आज कोई इसे ठगने वाला भी मिल गया। निश्चय ही वह कोई पहुंचा हुआ व्यक्ति होगा।"

इस घटना से राजा का भी अच्छा मनोविनोद हुआ, अत: उसने घोषणा कर दी कि इस कुटनी को दंड देने वाला हमारे सामने आ जाए। उसे सम्मानित किया जाएगा। घोषणा होने पर लौहजंघ राजा के सामने आ गया। उसने विभीषण द्वारा दिए शंख, चक्र आदि उपहार भी राजा को सौप दिए।

इसके बाद लौहजंघ का सम्मान किया गया और उसकी शोभायात्रा निकाली गई। चारों ओर उसकी चर्चा होने लगी। राजा ने रूपणिका को वेश्यावृत्ति से मुक्त कर दिया।

लौहजंघ ने कुटनी से अपने अपमान का बदला ले लिया और और फिर वह सुखी एवं समृद्ध जीवन बिताने लगा।

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भागवत दर्शन: लौहजंघ की कथा
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