रस - स्वरूप, परिभाषा अर्थ और प्रकार

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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रस - स्वरूप, परिभाषा अर्थ और प्रकार
रस - स्वरूप, परिभाषा अर्थ और प्रकार 


 रस के स्वरूप उसके अंग एवं उसकी विशेषताओं का वर्णन भारतीय काव्यशास्त्र में रस सिद्धान्त के अन्तर्गत किया गया हैं रस शब्द 'रस्यते-आस्वाद्यते' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है आस्वाद्यमान या जिसका आस्वादन किया जाय। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से इसकी कई व्युत्पत्तियाँ हैं, वहाँ काव्य की दृष्टि से इसकी व्युत्पत्ति 'रसनं रसः आस्वादः' है अर्थात् यह शृङ्गारादि रसों के अर्थ को व्यक्त करता है। इस प्रकार रस मुख्यतः आस्वादन के अर्थ को सूचित करता है, अर्थात् जिसके द्वारा भावों का आस्वादन हो उसे रस कहते हैं - आस्वाद्यत्वाद्रसः। भरत मुनि ने रस को काव्यगत या कलागत तत्त्व मानकर इसे आस्वाद्य पदार्थ कहा था, जो बाद में 'आस्वाद की अनुभूति' का वाचक बना। काव्य ने सन्दर्भ में यह काव्यास्वाद की अनुभूति का पर्याय बना और कला के पक्ष में कलानुभूति का वाचक हुआ। सौन्दर्य शास्त्र एवं मनोविज्ञान की शब्दावली में कलानुभूति को ही सौन्दर्यानुभूति कहा जाता है।

रस के अंग

आचार्य भरत के अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगद्रसनिष्पत्तिः। आचार्य विश्वनाथ कहते हैं- विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा। रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम् ।।

                                                                           (साहित्यदर्पण, 3/11)

अर्थात् जब विभाव अनुभाव और संचारीभावों के द्वारा सहृदयों के हृदय में वासना रूप में स्थित स्थायीभाव पूर्ण परिपक्वावस्था को प्राप्त हो जाय तो उसकी संज्ञा रस होगी। अतः रस के चार अंग हैं- विभाव, अनुभाव, संचारीभाव और स्थायीभाव

भाव-भाव एव रसः अर्थात् भाव ही रस है। अर्थात् भाव रस के आधार हैं। भाव के दो भेद हैं- स्थायी और अस्थायी (संचारी)।

स्थायी भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य विश्वनाथ कहते हैं कि जिसे अविरोधी या विरोधी भाव अपने में तिरोहित करने में अक्षम होते हैं और जो आस्वाद का मूलं होता है, उसे स्थायी भाव कहते हैं-

                                     अविरुद्धाविरुद्धा     वा    यं   तिरोधातुमक्षमाः । 

                                     आस्वादांकुरकंदोऽसौ भावः स्थायीति सम्मतः ।।

                                                                                          (साहित्य दर्पण 3/17)

वस्तुतः स्थायी भाव विरोधी या शत्रुभाव के द्वारा न तो नष्ट होता है और न मित्रभाव उसे अपने में मिला सकते हैं। यह उन्हें आत्मसात् कर लेता है। यह स्वयं अन्य भावों को दबा देता है, उनके द्वारा दबाया नहीं जाता। अस्थायी भाव आते हैं, मन में कुछ क्षणों तक रहते हैं और फिर गायब हो जाते हैं, परन्तु अवचेतन मन के अन्तराल में छिपने वाला भाव बहुत देर तक रहता है और इसीकारण वह स्थायी भाव के नाम से पुकारा जाता है। काव्य में वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारीभाव के द्वारा पुष्ट किये जाने पर यही स्थायीभाव 'रस' के रूप में परिणत हो जाता है।

आचार्यों ने स्थायी भावों की संख्या सामान्यतः नौ मानी है-

  

क्रम

रस

स्थायि भाव

1.

शृङ्गार

 

रति

 

2.

हास्य

 

हास

 

3.

करुण

 

शोक

 

4.

रौद्र

 

क्रोध

 

5.

वीर

 

उत्साह

 

6.

भयानक

 

भय

 

7.

वीभत्स

 

जुगुप्सा

 

8.

अद्भुत

 

विस्मय

 

9.

शान्त

 

शम (निर्वेद)

 

इसके अतिरिक्त आचार्य विश्वनाथ ने वत्सल स्थायी भाव से उत्पन्न वात्सल्य रस तथा रूप गोस्वामी ने भगवद् रति स्थायी भाव द्वारा भक्ति रस की प्रतिष्ठा की है।

(ख) संचारी भाव- इसका नाम व्यभिचारी भाव भी है। व्यभिचारी या संचारी भाव रस का सहकारी कारण माना जाता है। व्यभिचारी शब्द वि + अभि + चर के रूप में व्युत्पन्न है। यहाँ विविधताका, अभि-अभिमुख्य एवं चर संचरण का बोधक है भरतमुनि कहते हैं कि - विविधमाभिमुख्येन रसेषु-चरंतीति व्यभिचारिणः । (नाट्यशास्त्र 6/26) अर्थात् विविध प्रकार के रसों की ओर उन्मुख होकर संचारणशील होने के कारण इन्हें संचारी भाव कहा जाता है।

आचार्यों द्वारा संचारी भाव के विवेचन के क्रम में इसकी तीन विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-

1. स्थायीभाव का उपकारक होकर उनको दीपित करना तथा उन्हें रस दशा तक पहुँचाना।

2. स्थायीभाव के साथ इनका सम्बन्ध सागर तथा लहर की भाँति होता है।

3. स्थिर न रहना इनका स्वाभाविक गुण है।

आचार्यों द्वारा संचारियों की संख्या 33 मानी गयी हैं इसके अतिरिक्त आचार्य भानुदत्त ने 'छल' नामक चौंतीसवें तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'चकपकाहट' नामक पैंतीसवें संचारी भाव को स्वीकार किया है। अन्य के नाम इस प्रकार हैं-

निर्वेद, ग्लानि, शंका, श्रम, धृति, जड़ता, हर्ष, दैन्य, उग्रता, चिन्ता, त्रास, ईर्ष्या, अमर्ष, गर्व, स्मृति, मरण, मद, सुप्त, निद्रा, विवोध, ब्रीड़ा, अपस्मार, मोह, मति, आलस्य, आवेग, वितर्क, अवहित्थ व्याधि, उन्माद, विषाद, औत्सुक्य, चापल्य।

विभाव-विभाव का अर्थ विशेष प्रकार का भाव है। रति आदि स्थायी भावों की उत्पत्ति के निमित्त या कारण होने से इसे विभाव कहते हैं।

काव्य में वर्ण्य विषय के मूलाधार को विभाव कहा जा सकता है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में विभाव को स्पष्ट करते हुए कहा है- विभावैराहृतो योऽर्थो

अर्थात् अर्थप्रतीति का मूलकारण ही विभाव है। उनके अनुसार विभाव का अर्थ विभान है। यह स्थायी तथा व्यभिचारी भावों का विशेष प्रकार से प्रतीति कराता है और इसका विभावन अभिनय के द्वारा होता है। अभिप्राय यह है कि वाचिक तथा आंगिक अभिनयों पर आश्रित अनेक अर्थों को विभावित या विशिष्ट रूप से ज्ञान कराने के कारण इसे विभाव कहते हैं-

बहवोऽर्था विभाव्यंते वागंगाभिनयाश्रयाः । 

अनेन यस्मात् तेनायं विभाव इति संज्ञितः ।।

                                                         (नाट्यशास्त्र 7/4/10)

आचार्य विश्वनाथ ने विभाव को स्थायी भावों का उद्बोधक कहा है-

रत्याद्युद्बोधका लोके विभावाः काव्यनाट्ययोः ।

परम्परा से इसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं-

1. आलम्बन विभाव

2. उद्दीपन विभाव

               (साहित्यदर्पण 3/29)

1. आलम्बन विभाव -  जिस पर रस या भाव टिकता है उसे आलम्बन विभाव कहते हैं। यह भाव एवं रस का मूल हेतु होता है। प्रत्येक रस एवं भाव के पृथक् पृथक् आलम्बन होते हैं जिसका अवलंब लेकर रस उत्पन्न होता है उसे आलम्बन कहा जा सकता है।

यमालंब्य रस उत्पद्यते स आलंबन विभावः

आचार्यों ने इसको दो भागों में विभक्त किया है-

(क) विषयगत आलम्बन

(ख) आश्रयगत आलम्बन

1. जिसके द्वारा या जिसको देखकर भाव व्यापार प्रेरित हो या जाग्रत हो उसे विषय तथा जिसमें जाग्रत हो उसे आश्रय गत आलम्बन कहते हैं।

उदाहरण-

सीता को देखकर राम में रति स्थायी भाव का उदय - यहाँ सीता विषयगत आलम्बन तथा राम आश्रयगत आलम्बन हैं।

2. उद्दीपन विभाव- उद्दीपन को परिभाषित करते हुए हिन्दी के आचार्यों ने कहा कि-

रसहिं जगावै दीप ज्यों उद्दीपन है सोइ।

 जिस प्रकार दीपक प्रकाश को दीप्त करता है उसी प्रकार उद्दीपन आलम्बन से सम्बद्ध भाव व्यापार को उद्दीप्त करने का कारण माना जाता है। वस्तुतः रस को उद्दीप्त या तीव्र करने वाला भाव उद्दीपन है-

यो रसमुद्दीपयति स उद्दीपन विभावः।

उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ तथा देशकाल आता है। इसके चार प्रकार हैं- आलंबन के गुण, आलंबन की चेष्टाएँ, उसका अलंकार एवं तटस्थ । आलंबन के गुण में उसका आंतरिक तथा बाह्य सौन्दर्य, चेष्टाओं में उनका हाव भावादि, अलंकरण में अंगराग और नूपुर आदि का धारण करना और तटस्थ में चन्द्रमा, उद्यान, मलयानिल, सरोवर आदि आते हैं।

अनुभाव-विभाव को भाव का कारण तथा अनुभाव को भाव का कार्य कहा जाता है। ये भावों के सूचक हैं। अनुभाव का अर्थ है- भाव के पीछे (अनु) उत्पन्न होने वाला। ये विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन्हें अनुभव कहा जाता है। आचार्य भरत कहते हैं कि इसके द्वारा भावव्यापार प्रतीति का विषय बनता है-

अनुभावैस्तु गम्यते

वे पुनः बताते हैं- 

वागंगाभिनयेनेह     यतस्त्वर्थोऽनुभाव्यते । 

वागंगोपांगसंयुक्तस्तु अनुभावस्ततः मृतः ।।

                                               (नाट्यशास्त्र 7/5)

अर्थात् जो भावों के पश्चात आते हैं, वे अनुभाव हैं। वाणी, अंगसंचालनादि के अभिनय स्वरूप रस का अनुभावन कराने वाले भाव अनुभाव कहे जाते हैं।

वस्तुतः हृदय के भावों की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में मनुष्य में होने वाली शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक आदि क्रियाओं को जब काव्य में नायकादि के अन्तर्गत वर्णित किया जाता है तो उसे अनुभाव कहते हैं। सामान्यतया अनुभावों को चार भागों में विभक्त किया जाता है-

(क) कायिक

(ख) वाचिक

(ग) आहार्य

(घ) सात्त्विक

(क) कायिक अनुभाव - नायकादि का किसी एक भाव व्यापार के वशीभूत होने पर शरीर के विविध अंग-प्रत्यंगों की सहज चेष्टाओं को कायिक अनुभाव कहा जाता है।

उदाहरण-

माखे लखन कुटिल भई भौंहें। 

रद पट फरकत परम रिसौंहें। 

लक्ष्मण के क्रोध अमर्ष से वशीभूत होते ही भौंहों का कुटिल होना, होठों का फड़कना ये कायिक या आंगिक अनुभाव हैं। 

(ख) वाचिक अनुभाव - काव्य में नायकादि का किसी भाव व्यापार के वशीभूत होने पर वाणी के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होने के वाचिक अनुभाव कहते हैं।

उदाहरण-

जौ    तुम्हारा   अनुसासन  पावों।

  कंदुक      इव    ब्रह्मांड  उठावौ।।

काचे    घट   जिमि   डारौं फोरी।

  सकऊँ मेरू मूलक जिमि तोरी ।।

(ग) आहार्य अनुभाव - काव्य में नायकादि का किसी भाव व्यापार के वशीभूत होकर की गयी वेश रचना आहार्य अनुभाव है।

उदाहरण -

पीतवसन परिकर कटि भाथा।

  चारु   चाप   सर सोहत हाथा।। 

 तन   अनुहरत  सुचंदन  खोरी।

  स्यामल   गौर   मनोहर जोरी।।

(घ) सात्त्विक अनुभाव - ये अनुभाव सत्त्व (मन) से उत्पन्न होने के कारण सात्त्विक कहे जाते हैं अर्थात् भाव के संसूचनात्मक विकार रूप अनुभाव सात्त्विक अनुभाव है। आ० भरत कहते हैं कि-

मनसः समाधौसत्वनिष्पत्तिर्भवतिः।

अर्थात् किसी मनोविकार से प्रभावित होकर काव्य में नायकादि समाधि जैसी स्थिति में पहुँचते हैं। उस स्थिति विशेष में मानसी प्रभाव का शरीर के अंगों पर अभिव्यक्त संवेगात्मक प्रभाव ही सात्त्विक अनुभाव है। यह शरीर को जड़ता की स्थिति में आता है। इसकी संख्या आठ बतायी गयी है - स्तम्भ, अश्रु, स्वेद, कंप, वैवर्ण्य, रोमांच, स्वरभंग, प्रलय।

रस के भेद

1. शृङ्गार रस - शृङ्गार 'शब्द श्रृंग' और आर (श्रृंग आर) इन दो शब्दों के योग से निर्मित है। जिसका अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या वृद्धि। आचार्य विश्वनाथ के कामदेव के उद्भेद (अंकुरित होने) को 'श्रृंग' कहा है और उसकी उत्पत्ति का कारण है-

श्रृंग हि मन्मथोभेदस्तदागमनहेतुकः । 

उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः श्रृंगार इष्यते ।।

                                             (साहित्यदर्पण 3/183)

आचार्य भोजराज ने शृङ्गार प्रकाश की रचना करके यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि इसी से सम्पूर्ण रस निकलते हैं, वे इसे रसराज कहते हैं। उनके अनुसार शृङ्गार ही एक मात्र रस है और रत्यादि सभी भाव है। यह जो कहा जाता है कि विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से स्थायी भाव ही रसत्व को प्राप्त होता है, सर्वथा असंगति है। विभाव एवं भावों के द्वारा आनन्द के रूप में परिणत होकर अहंकार ही रसत्व प्राप्त करता है और वही (अहंकार ही) शृङ्गार रस है। भोज शृङ्गार को ही चतुर्वर्ग का कारण कहा है।

नायक-नायिका के परस्पर अनुराग का वर्णन श्रृंगार रस के अन्तर्गत होता है। इसके दो भेद हैं-

(1) संयोग (2) वियोग (विप्रलम्भ)। 

ये दोनों यद्यपि परस्पर विरोधी भावों की अनुभूति कराते हैं तथापि ये पुष्ट रति को ही करते हैं।

स्थायीभाव- रति

आलम्बन- नायक-नायिका 

उद्दीपन- मुख-सौन्दर्य, वसंत, चाँदनी रात आदि, 

आश्रय- प्रेमसक्त नायक या नायिका 

अनुभाव- आश्रय का प्रेमपूर्वक देखना, कंप, रोमांच, कटाक्ष, मुस्कान आदि, संचारी, जुगुप्सा, मरण, संचारी भाव को छोड़कर प्रायः शेष सभी। 

उदाहरण-

संयोग श्रृंगार --

चितवन चकित चहुँ दिसि सीता। 

कहँ गये नृप किसोर मन चीता।। 

लता ओट तब सखिन्ह लखाये। 

श्यामल गौर किसोर सुहाये ।। 

थके नयन रघुपति छवि देखे। 

पलकन्हिहूँ परिहरी निमेषे ।। 

अधिक सनेह देह भई भोरी। 

 सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।। 

लोचन मग रामहिं उर आनी। 

दीन्हें पलक कपाट सांयानी।। 

  यहाँ सीता का राम के प्रति जो प्रेमभाव है वही रति स्थायी भाव है। राम और सीता आलम्बन विभाव हैं, लतादि उद्दीपन विभाव है, देखना देह का भारी होना आदि अनुभाव है, हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भाव है। अतः यहाँ पूर्ण संयोग श्रृंगार रस है।

वियोग श्रृंगार

नैननि को तरसैये कहाँ लौं, कहाँ लौं हियो विरहागि में तैये। 

एक घरी न कहूँ कल पैये, कहाँ लगि प्राननि को कलपैये।।

आवै यही अब जी में विचार सखी चलि सौतिहू के गृह जैये। 

मान घटे ते कहाँ घटि है, जु पै प्रान पियारे को देखन पैये।। 

  यहाँ नायक तथा नायिका का पारस्परिक अनुराग रति स्थायी भाव है। नायक तथा नायिका आलम्बन विभाव है। नैनन को तरसाना, एक धरी को कल न पाना, सौत के घर चलने का आग्रह आदि अनुभाव है। देखने की उत्सुकता तथा उद्वेग संचारी भाव है। यह वियोग विरह के कारण है। अतः पूर्ण वियोग श्रृंगार का उदाहरण है।

वियोग के दो मुख्य भेद हैं- मान और प्रवास। मान का अर्थ है रूठना। जन नायिका नायक से रूठती है तो मान होता है। इसके दो भेद होते हैं- प्रणयमान और ईर्ष्यामान

प्रिय के परदेस जाने से उत्पन्न वियोग प्रवास कहा जाता है। यह काव्य में कई कारणों से होता है।

2. हास्य रस - 

  विकृत, आकार, चेष्टा, वेष, वाणी आदि के वर्णन से हास्य रस की उत्पत्ति होती है। आचार्य भरत ने हास्य रस के मूल में विकृति का भाव माना है और इसे सभी रसों से अधिक सुखात्मक कहा है। आचार्य रुद्रट ने दूसरों के विकृत अंग, चेष्टा, वेष आदि से हास्यरस की उत्पत्ति बताई और उसे नीच, स्त्री और बालक से संबद्ध माना -

हास्यो    हासप्रकृत्तिर्हासो विकृतांगवेषचेष्टाभ्यः । 

भवति परस्थाभ्यः स च भूम्ना स्त्री नीचबलागतः ।।

                                                  (काव्यालंकार 16/12)

  हास्य रस के विवेचन के क्रम में आचार्य अभिनवगुप्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे सभी रसों के आभास से हास्य की सिद्धि स्वीकार करते हैं। हास्य की उत्पत्ति न केवल श्रृंगार से अपितु शोक से भी मानते हैं। उनके अनुसार अबंधु (शत्रु) के प्रति शोक हास्य में परिणत हो जाता है-

एवं यो यस्य न बंधुस्तच्छोके करुणोऽपि हास्य एवेति सर्वत्र योज्यम् ।

                                                                                     (अभिनवभारती, भाग-1 पृ. 296)

स्थायी भाव- हास; 

आलम्बन- विकृत वेष, विकृत वचन वाला व्यक्ति। 

उद्दीपन- अनुपयुक्त वचन, वेष-भूषा आदि।

अनुभाव- मुख का फैलना, आँखों का मींचना आदि।

संचारी- निद्रा, आलस्य, चपलता, अवहित्थ आदि।

उदाहरण-

विधि हरि संग हर हिम के भवन ठाढ़े,

   कुंवर केलऊ कों दिगंबर सुभेष कैं। 

कह बिहारी सजी पन्नग लँगोटी एक, 

जानकै मृजाद राजभवन विशेष कै। 

तो लौं गए गरुड़ विलोकि सो भुजंगभाज्यो,

 संभु सकुचाने हँसे साथी प्रभा पेखि कै।

 ब्रह्मा हँसै रारी दै दै विष्णु हँसे तारी दै दै,

 नारी हँसै सारी दै दै, दूल्हा देख-देख कै।।

  शिवजी को नग्न देखकर लोगों का हँसना-हास स्थायी है, शिवजी आलंबन है, गरुड़ को देखकर लंगोटी बने सर्प का खिसकना उद्दीपन विभाव है। नग्न महादेव को देखकर ब्रह्मा-विष्णु आदि का ताली बजाकर हँसना और नारियों का वस्त्र देकर हँसना अनुभाव है और हर्ष, चपलता आदि संचारी है।

भारतीय आचार्यों उत्तम, मध्यम एवं निम्न श्रेणी के पुरुष-स्त्रियों के आधार पर इसको छः भागों में विभक्त किया है-

1. उत्तम प्रकृति (क) स्मित (ख) हसित।

2. मध्यम प्रकृति (ग) विहसित (घ) उपहसित।

3. निम्न प्रकृति (ङ) अपहसित (च) अतिहसित ।

हास्य रस के इन भेदों का आचार्यों ने आत्मस्थ और परस्थ इन दो भेदों में विभक्त करके इसे बारह उपभेदों में रखा है।

करुण रस

भवभूति ने उत्तररामचरितम् में इसे सम्पूर्ण रसों का आधारभूत तत्त्व स्वीकार किया है। उनका प्रख्यात पद्य है-

एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद्

 भिन्नः पृथक पृथगिवाश्रयते विवर्तान् । 

आवर्त बुदबुद-तरंगमयान् विकारान्

 अभ्यो यथा, सलिलमेव तु तत् समग्रम् ।।

                                               (उत्तररा., तृतीय अंक)

अर्थात् - मुख्यरस एक ही है और वह करुण ही है। वह निमित्त की भिन्नता से, कारणों के भेद से, भिन्न-भिन्न विकृति को प्राप्त होता है। करुण ही स्थायी भावों की भिन्नता के कारण श्रृगारादि रसों के रूप में अवतीर्ण होता है। इस विषय में उसकी तुलना जल से की जा सकती है। हवा के झोकों के अन्तर के कारण वही जल कभी आवर्त बन जाता है, कभी वही बुद्बुद बन जाता है और कमी वह उत्ताल तरंगों का रूप धारण करता है। वह सब जल ही जल होता है, परन्तु निमित्त के कारण विभिन्न आकारों को धारण करता है। करुण रस की भी यही स्थिति होती है।

शोक स्थायी भाव से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है और प्रियजन के वियोग से सम्बद्ध देहनाश, विभवनाश, शाप से उत्पन्न क्लेश, देश निर्वासन तथा अनेकानेक सम्भावित विपत्तियों का आगमन विभाव के रूप में होता है। आचार्य धनंजय ने इष्टनाश या अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस की उत्पत्ति मानी है-

इष्टनाशादनिष्टप्राप्तौ शोकात्मा करुणोरसः

                                                     (दशरूपक 4/81)

आचार्यों ने इसे कई रूपों में विभक्त किया है। आ० भरत इसके तीन भेद स्वीकार करते हैं-

1. धर्मोपद्यातक

2. अर्थापचयोदभव

3. शोककृत

अग्निपुराणकार ने चित्तग्लानिजन्य इसके एक अन्य भेद को भी स्वीकार किया है। 

करुण रस का स्थायी भाव- शोक, 

आलम्बन- विनष्ट व्यक्ति या वस्तु, 

उद्दीपन - उसका शव, चित्र, गुण आदि। 

अनुभाव - देवनिन्द, भूमिपतन, रोना, स्तम्भ, प्रलाप आदि 

संचारी - निर्वेद मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति भ्रम।

उदाहरण -

सोक विकल सब रोवहि रानी,

 रूप सीलु बल तेज बखानी। 

करहिं विलाप अनेक प्रकारा, 

परहिं भूमि तल बारहिं बारा।।

  दशरथ के मृत होने पर रानियों का शोक करुण रस की व्यंजना है। यहाँ दशरथ-आलम्बन, आश्रय-रानियाँ, उद्दीपन राजा का रूप, शील बल, तेज वर्णन, अनुभाव, रोना और विलाप करना, संचारीभाव स्मृति, मोह आदि है। अतः यहाँ करुण रस है।

वीर रस

  उत्साह स्थायी भाव से परिपुष्ट यह वीर रस अनेक रूपों में काव्य के अन्तर्गत प्रकट होता हैं पराक्रम, बल, न्याय यश आदि इसके कारण बताये गये हैं। आचार्य भानुदत्त परिपूर्णतः प्रकट होने वाले उत्साह या सम्पूर्ण इन्द्रियों के प्रहर्ष को वीर रस कहते हैं-

परिपूर्ण उत्साहः सर्वेन्द्रियाणां प्रहर्षो वा वीरः ।

 वीर रस का आश्रय उत्तम पात्र होता है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है-

1. दानवीर

2. धर्मवीर

3. युद्धवीर

इनके स्थायीभाव दानोत्साह, धर्मोत्साह और युद्धोत्साह है।

आलम्बन - शत्रु जिस पर अधिकार प्राप्त करना है।

उद्दीपन - शत्रु का प्रताप, विस्मय, शौर्य, कोलाहल आदि

अनुभाव- हथियारों का चलाना, नेत्रों का लाल होना, शरीर के रोमों का खड़ा होना आदि।

संचारी- मति, गर्व, धृति, प्रहर्ष आदि।

उदाहरण-

मैं सत्य कहता हूँ सखे ! सुकुमार मत जानो मुझे। 

यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे ।। 

हे सारथे ! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी। 

वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी ।।

यहाँ आश्रय - अभिमन्यु, अलंबन द्रोण आदि कौरव पक्ष, अनुभाव - अभिमन्यु के वचन संचारी भाव-गर्व, हर्ष, उत्सुकता।

भयानक रस

 भयानक रस की उत्पत्ति भयावह दृश्य को देखने या बलवान व्यक्तियों के अपराध करने से होती है। भय स्थायी भाव से पुष्ट रस को भयानक रस कहते हैं। पताका पतन, कीर्ति दोष, भयोत्पादक शब्द, युद्धभूमि, निर्जन स्थान शत्रु आदि से घिर जाना इसके कारण है। हाथ-पैर में कंपन, शरीर में रोमांच, विवर्णता, स्वर परिवर्तन आदि अनुभाव है। स्तम्भ, वैवर्ण्य, स्वेद, रोमाञ्च, कंप, त्रास, चपलता आदि संचारी भाव है।

(1) व्याधिजन्य (कृत्रिम) (2) अपराधजन्य (3) वित्रासितक (अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न)।

उदाहरण-

समस्त सर्पों संग श्याम ज्यों कढ़े,

कलिंद की नन्दिनि के सु अंक से।

खड़े किनारे जितने मनुष्य थे,

 सभी महा शंकित भीत हो उठे।।

 यहाँ ब्रजवासी- आश्रय, सर्पों से घिरे कृष्ण का दृश्य, अनुभाव - भागना, काँपना, भयभीत होना, संचारी भाव - शंका, आवेग मोह।

वीभत्स रस

घृणित या घृणोत्पादक पदार्थों के दर्शन या श्रवण से वीभत्स रस उत्पन्न होता है। वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा होता है। विभाव के रूप में रक्त, आदि का निकलना, अनुभाव के रूप में आँख, नाक, कान को बंद करना, जी मचलाना, मुँह विचकाना आदि आते हैं। व्यभिचारी भाव के अन्तर्गत व्याधि, मोह, आवेग, अपस्मर, मरण आदि आते हैं। आचार्यों ने इसके दो भेदों का उल्लेख किया है- (1) क्षोभज (शुद्ध) उद्वेगी (अशुद्ध) रुधिरदि से जिसकी उत्पत्ति हो उसे क्षोभज और विष्ठा आदि से उत्पन्न वीभत्स को उद्वेगी कहा जाता है।

उदाहरण-

रक्त मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है, 

महाघोर दुर्गन्ध, रूद्ध हो उठती श्वासा।

तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत रुण्ड मुण्डहत

 कुत्सित कृमि संकुल कर्दम में महानाश के।।

आश्रम-मजदूर, आलम्बन-युद्धभूमि, उद्दीपन-सड़ाव दुर्गन्ध अनुभाव-श्वास का रुद्ध होना आदि।

अद्भुत रस

आश्चर्यजनक पदार्थों के दर्शन से अद्भुत रस उत्पन्न होता है। इसकी उत्पत्ति लोकोत्तर वस्तु या घटना के कारण भी होती है। आचार्य भरत ने बताया है कि अद्भुत रस की उत्पत्ति दिव्यजनों के दर्शन, अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति, उपवन एवं देवमंदिर में जाने, सभा, विमान, माया, इन्द्रजाल की संभावना आदि कारणों से होती है। आचार्य भानुदत्त ने लोकोत्तर घटना तथा विस्मय जनक पदार्थों के अतिरिक्त अत्युक्ति, भ्रमोक्ति, चित्रोक्ति तथा विरोधाभास आदि को अद्भुत रस का कारण माना है- अत्युक्तिभ्रमोक्ति चित्रोक्ति विरोधाभास प्रभृतयो अद्भुता एव।

आचार्य भरत ने इसको दो भागों में विभक्त किया है-

1. दिव्य (दैवी चमत्कारों से युक्त)

2. आनन्दज (अप्रत्याशित घटनाओं से उत्पन्न) 

स्थायीभाव- विस्मय या आश्चर्य 

आलम्बन- लौकिक दृश्य या वस्तु 

उद्दीपन - आलम्बन की विस्मयकारी क्रियाएँ आदि 

अनुभाव- नेत्र विस्फरित होना, रोमांच, गद्गद स्तम्भित होना आदि।

संचारीभाव- चांचल्य, हर्ष औत्सुक्य, शंका, वितर्क, स्वेद, आवेग।

उदाहरण-

इहाँ    उहाँ   दुइ   बालक   देखा।

मतिभ्रम मोर कि आन विसेखा ।।

तन पुलकित मुख वचन न आवा।

नयन   मूँदि  चरनन सिर नावा ।।

स्थायी भाव विस्मय, आलंबन शिशु राम उद्दीपन - यहाँ वहाँ राम के कई रूप, अनुभाव- रोमांच और स्वरभंग संचारीभाव-वितर्क ।

रौद्र रस

 उद्धत प्रकृति से सम्बद्ध क्रोध नामक स्थायीभाव से सम्पुष्ट यह प्रहार, असत्य, द्रोह अपनीत भाव को व्यक्त करता है। इसके अन्तर्गत ताड़न, पीड़न, छेदन, प्रहरण, शस्त्र संपात अदि विशेष रूपसे घटित दिखायी पड़ते हैं। दाँत का कटकटाना, नेत्रों का अरुण वर्ण होना, भौंहों का वक्र होना, कपोलों को फड़कना आदि अनुभाव आते हैं। संचारी भाव के अन्तर्गत आवेग, जड़ता, अपस्मार, गर्व आदि है। आचार्यों ने इसको वाक्य, वेश और अंग इन तीनों के आधार पर इसे तीन भागों में विभक्त किया गया है-

1. वचनात्मक रौद्र रस

2. वेषात्मक रौद्र रस

3. आंशिक या क्रियात्मक रौद्र रस

उदाहरण-

माखे रद-पट लखन कुटिल भयी भौहैं। 

फरकत नैन रिसौहैं। 

कहि न सकत रघुबीर डर लगे वचन जनु वान। 

नाई राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रमान।।

स्थायी भाव-क्रोध, आश्रय-लक्ष्मण, आलंबन-जनक के वचन, उद्दीपन-जनक के वचनों की कठोरता, अनुभाव-भौहें टेढ़ी हेना, ओठ फड़कना, नेत्रों का रिसौहे होना, संचारी भाव-अमर्ष उग्रता।

शांत रस

 तत्त्व-ज्ञान तथा वैराग्य के कारण शांत रस उत्पन्न होता है। इसकी तीन स्थिति साहित्यशास्त्र में मिलती है। प्रारम्भिक शास्त्रकार शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद या निवृत्ति मानते हैं। आचार्य अभिनवगुप्त इसका स्थायीभाव तृष्णाक्षय सुख स्वीकार करते हैं। भक्त आचार्यों ने शांत भक्ति रस की कल्पना की है और इसका स्थायी भाव शांत भक्ति रति मानते हैं। वस्तुतः धार्मिक मान्यताओं से सम्बन्ध होने के कारण इस शांत के विविध रूप विविध धार्मिक मतों एवं उनसे सम्बद्ध साहित्य में मिलता है।

शांत रस तत्त्वज्ञान, वैराग्य चित्तशुद्धि आदि विभावों द्वारा होता है। यम, नियम, आध्यात्मध्यान, धारणा, उपासना, समस्त प्राणियों पर दया, सन्यास आदि अनुभवों द्वारा इसको ग्रहण किया जाता है। निर्वेद, धृति, स्मृति, स्तम्भ, रोमांच, हर्ष आदि इसके संचारी भाव हैं।

आचार्य अभिनवगुप्त ने शान्त रस को आदि रस माना है जो समस्त रसों का आधार है। इसी से सम्पूर्ण रस निष्पान्न होते हैं तथा इसी में विलीन हो जाते हैं- 

भावा विकारा रत्याद्याः शान्तस्तु प्रकृतिर्मतः । 

विकारः    प्रकृतेर्जातः     पुनस्तत्रैव     लीयते।।

स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद् भावः प्रवर्तते। 

पुनर्निभिन्तापाये    च    शान्त   एवोपलीयते ।।

शांत मूल प्रकृति है, रत्यादि उस मूल प्रकृति (शांत) के विकार है। विकार (रति आदि) उसी मूल प्रकृति से उत्पन्न हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं। अपने-अपने निमित्तों (स्थायी भावों) की पूर्ति के लिए ये शांत से ही सम्पन्न होते हैं और अपने निमित्तों की परिपूर्णता के बाद उसी शांत में विलीन हो जाते हैं।

उदाहरण-

भागीरथ जलपान करौ, अरु नाम द्वै राम को लेत सदा हौं। 

मोको न लेनो न देनों कछू, कलि ! भूति न रावरी ओर चितैहौं। 

जानि कै जोर करौ परनाम, तुम्हें पछतैहों पै मैं न मितैहौं। 

ब्राह्मन ज्यों उगिल्यौ उरगारि, हौ त्यों ही तिहारे हिये न मितै हौं।।

यहाँ पर शम या निर्वेद स्थायी भाव के आश्रय हैं- तुलसीदास, आलम्बन है- राम का नाम, उद्दीपन-कलिकाल की करालता, कपटादि उद्दीपन है। परमसंतोष की अवस्था अनुभाव है। मति, धृति, स्मृति आदि संचारी है।

वात्सल्य रस

अनेक आचार्यों ने वात्सल्य को स्वतन्त्र रस की कोटि में न रखकर श्रृंगार-रस के अन्तर्गत रखा है किन्तु अनेक आचार्यों ने वात्सल्य को पृथक रस माना है। आचार्य रुद्रट ने बहुत पहले ही प्रेयान् रस की कल्पना के साथ वात्सल्यरस की सत्ता मानी तथा स्थायी भाव स्नेह माना। आचार्य अभिनवगुप्त, हेमचन्द्र, भानुदत्त आदि आचार्यों ने वात्सल्य रस को एक स्वतन्त्र रस के रूप में स्थान दिया। आचार्य विश्वनाथ साहित्यदर्पण में कहते हैं कि,

स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः।

अर्थात् चमत्कार स्फुट होने के कारण वात्सल्य को रस माना जा सकता है। भक्त आचार्यों में श्री रूप गोस्वामी ने वात्सल्य भक्ति रति स्थायी भाव से सम्पुष्ट वात्सल्य भक्ति रस को मान्यता दी है उनके अनुसार लोक जब ईश्वर की बाल-लीला से जुड़ता है तो इसकी स्थिति आ जाती है।

काव्यशास्त्रियों ने वात्सल्य के स्थायी भाव के लिए 'अभिलाष' का उल्लेख किया है। भानुदत्त ने वात्सल्य भाव को, इसका स्थायी भाव माना है। आलम्बन, शिशु, उद्दीपन-शिशु का भोला रूप, क्रीड़ा चंचलता, उछलना-कूदना आदि। आश्रय- माता-पिता, गुरुजन आदि, अनुभाव-कपोल का चुंबन, उछालना, छाती से चिपटाना आदि, संचारी भाव-आवेश हर्ष, औत्सुक्य, गर्व आदि।

उदाहरण-

हरि अपने रंग में कछु गावत। 

तनक-तनक चरनन सों नाचत, मनहिं मनहिं रिझावत।।

बाँहि ऊँचाइ काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत ।।

माखन तनक आपने कर ले तनक बदन में नावत।।

कवहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ में लवनी लिये खवावत।।

दुरि देखत जसुमति यह लीला हरखि अनन्द बढ़ावत ।।

यहाँ स्थायीभाव स्नेह (वात्सल्य) आश्रम-यशोदा, आलंबन - बाल कृष्ण उद्दीपन - कृष्ण का गाना, नाचना, बाँह उठाकर गायों को बुलाना, मुँह में माखन डालना, प्रतिबिंब का माखन खिलाना। अनुभाव - यशोदा का छिपकर देखना, संचारी भाव - हर्ष आदि।

भक्ति रस

ईश्वर विषयक प्रेम के कारण भक्ति रस उत्पन्न होता है। इसकी दो परम्पराएँ मिलती हैं। (1) लीला सापेक्ष्य भक्तिरस जिसका व्यवस्थित विवेचन रूप गोस्वामी ने किया है। उन्होंने भक्ति रसामृत सिन्धु तथा उज्ज्वल नीलमणि नामक ग्रन्थों का प्रणयन कर इसे शास्त्रीय रूप प्रदान किया। वे अन्य सभी रसों को भक्तिरस में ही अंतर्निविष्ट कर देते हैं। (2) लीला निरपेक्ष भक्ति रस, जिसकी व्याख्या का श्रेय मधुसूदन सरस्वती को है।

रूपगोस्वामी ने भक्ति रस को उज्ज्वल या मधुररस की अभिधा प्रदान करते हुए भक्ति रस को इस प्रकार परिभषित किया है - भक्ति विषयक विभाव, अनुभाव, सात्त्विक एवं व्यभिचारी भाव से परिपुष्ट सामग्री भक्ति रस रुपता को प्राप्त होती है। इसका स्थायी भाव कृष्ण रति है। श्रवणादि नवधा साधन कृष्ण का वेश विन्यास, रूप माधुरी आदि अनुभाव के रूप में है। तैंतीस संचारी मिलकर इस भक्ति रस को सान्द्र तथा उत्कृष्ट बनाते हैं। इन्होंने अधिकार भेद से इसे पाँच प्रकार का माना है- शांत भक्ति रस, दास्य भक्ति रस, साख्य भक्ति रस, वात्सल्य भक्ति रस तथा मधुर भक्ति रस।

उदाहरण -

व्याध हूँ ते बेहद असाधु हौं अजामिल लौं,

 ग्राहते गुनाही, कैसे तिनमों गिनाओगे।

स्यौरी हौं न शूद्र नहीं केवट कहूँ को त्यौं, 

न गौतमी तिया जापै पगधरि जावोगे। 

राम सों कहत पद्माकर पुकारि पुनि, 

मेरे महापापन को पार हून पाओगे। 

झूठे ही कलंक सुनि सीता जैसी सती तजी

नाथ हौं तो साचौं ही कलंकी ताहि कैसे अपनावोगे।।

भगवान के प्रति प्रेम स्थायी भाव, भगवान राम इसके आलंबन, उद्दीपन-साधु की संगति, पवित्र तीर्थ स्थल अनुभाव-भगवान से विनती, अपराधों की स्वीकृति तथा क्षमा के लिए प्रार्थना तथा मति, चिन्ता, वितर्क संचारी भाव है।

रस की अन्य दशाएँ

रस विरोध- 

  रस विरोध के अन्तर्गत रसों के परस्पर विरोध का वर्णन किया जाता है। आचार्य विश्वनाथ रस के पारस्परिक विरोधाविरोध के तीन आधारों की कल्पना की है-कुछ रस तो ऐसे होते हैं जो एक आलंबन के विरुद्ध होते हैं, कुछ आश्रय के विरुद्ध होते हैं तथा कुछ एक-दूसरे के बाद आगे-पीछे बिना व्यवधान के आने के विरुद्ध होते हैं। ये इस प्रकार हैं-

श्रृंगार करुण, वीभत्स, रौद्र, भयानक, शान्त हास्य करुण, भयानक वीर शांत तथा भयानक भयानक श्रृंगार, वीर, रौद्र, शांत, हास्य रौद्र शृंगार, हास्य, भयानक, अद्भुत वीभत्स श्रृंगार अद्भुत रौद्र करुण हास्य, श्रृंगार शांत श्रृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, भयानक

रसमैत्री -

  रस मैत्री भी रस विरोध की तरह ही होता है। अनुकूल भाव तथा रस एक-दूसरे को गति देते हैं तथा उत्कर्षकारक होते हैं।

वीर रस, अद्भुत रस एवं रौद्र रस परस्पर मित्र हैं, शृंगार, अद्भुत एवं हास्य रसों की परस्पर मैत्री है। वीभत्स तथा भयानक रस में भी मैत्री है।

रसाभास-

 इसके अन्तर्गत रसों के अनौचित्यपूर्ण प्रयोग पर विचार किया जाता है। रसाभास से अभिप्राय रसों के अनुचित वर्णन से है। ध्वनिकार ने अनौचित्य को रसभंग का मूल आधार माना है। उनके अनुसार रसाभास में सीपी में रजत की भाँति रस का वास्तविक बोध न होकर उसके बिम्ब (छाया) की प्रतीति होती है। अर्थात् अनुचित रूप से प्रवृत्त स्थायी भाव के आस्वाद को रसाभास कहते हैं। पंडित राज जगन्नाथ के अनुसार रस का अनुचित आलंबन विभाव रसाभास है-

अनुचितविभावालंबनत्वं रसाभासत्वम् ।

श्रृंगार रसाभास-

 उपनायक या अन्य पुरुष में नायिका का अनुराग, निरिन्द्रियों (नदी आदि) के प्रेम का वर्णन, माता, गुरु पत्नी, का संयोग वर्णन श्रृंगार रसाभास है।

करुणरसाभास- विरक्त या सन्यासी में शोक होना

रौद्ररसाभास - पूज्य व्यक्तियों में क्रोध का होना

वीररसाभास- नीच व्यक्तियों में उत्साह का वर्णन भयानकरसाभास- उत्तम व्यक्तियों में भय

वीभत्सरसाभास - यज्ञ के बलिपशु में ग्लानि होना

अद्भुतरसाभास - जादूगर के कार्यों में आश्चर्य

शांतरसाभास- नीच व्यक्तियों में निर्वेद या शम का वर्णन

उदाहरण-

केसव केसन अस करी जस अरिहूँ न कराहिं। 

चन्द्रवदनि मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं ।।

यहाँ वृद्ध केशव में परनायिका के प्रति अनुराग श्रृंगार रसाभास है।

भावाभास - भाव का अनौचित्यपूण वर्णन भावाभास है। आचार्य विश्वनाथ वेश्या आदि के लज्जाप्रदर्शन को भावाभास कहा है- भावाभासो लज्जादिके तु वेश्यादिविषयेस्यात्।

उदाहरण - 

हुमुकिलात तकि कूबर मारा, 

परिमुँह भरिमहिं करत चिकारा। 

आलम्बन मंथरा के विकलांग होने से क्रोध के साथ हास्य की भी उत्पत्ति होती है जो भावाभास है।

भावोदय - जहाँ अनेक भावों के बीच किसी विशिष्ट भाव की प्रवलता व्यंजित हो उसे भावोदय कहा जाता है-

उझकि उझकि पद कंजनि के पंजनि पै

पेखि पेखि पाती छाती छोहनि सबै लगी। 

हमको लिख्यो है कहा, हमको लिख्यो है कहा

हमको लिख्यो है कहा कहनि सबै लगी।।

भावशांति- जब एक भाव की व्यंजना हो रही हो, उसी समय किसी दूसरे विरोधी भाव की व्यंजना हो जाने पर पूर्व भाव की शांति में जो चमत्कार होता है। उसे भावशान्ति कहते हैं।

उदाहरण -

प्रभु विलाप सुनि कान विकल भये वानर निकर। 

आई गयउ हनुमान जिमि करुणा महँ वीर रस।। 

राम के विलाप से उत्पन्न करुण रस की हनुमान के आगमन से उत्पन्न उत्साह (वीर रस) के करुण कारण रस खत्म हो रहा है अतः यहाँ भावशांति है।

भावसन्धि- जहाँ एक साथ दो भावों की सन्धि का चित्रण किया जाये तो भाव सन्धि होती है।

उदाहरण-

छूटै न लाज न लालचौ, प्यौं लखि नैहर गेह। 

 सटपटात   लोचन  खरे, भरे संकोच सनेह ।। 

नायिका के मयके में प्रिय मिलन की आकांक्षा में स्नेह, तथा गुरुजनों के कारण न मिलने में लज्जा भाव की संधि है। स्नेह तथा लज्जा दोनों के वर्णन में समान चमत्कार है।

भावशबलता- जब एक भाव के साथ अन्य अनेक भावों की एकत्र स्थिति हो तो भावशबलता होती है। अर्थात् इसमें एक साथ कई भाव दिखाई पड़ते हैं। 

ऋषिहिं देखि हरषै हियो राम देखि कुम्हिलाय । 

 धनुष   देखि  डरपै  महा, चिंता   चित्त डोलाय ।। 

यहाँ हर्ष, विषाद, भय एवं चिंता भाव एक साथ उपस्थित हैं अतः भाव शबलता है।

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