महाराज पृथु और पृथ्वी
एक बार पृथ्वी ने अन्नो को अपने गर्भ मे छिपा लिया तब अकाल पड़ जाने से प्रजा व्याकुल होकर महराजा पृथु से निवेदन तब पृथु क्रोधित होकर धनुष वाण चढ़ाकर पृथ्वी को दण्डित करने हेतु निकल पड़े तब पृथ्वी गाय का रुप धारण कर भागने लगी, जब भागते भागते थक गयी तब रुककर महाराज पृथु से प्रार्थना करते हुए कहा माया द्वारा अनेक रुपधारी आप परम पुरुष को नमस्कार है। ब्रह्माजी ने जीवों की स्थिति हेतु मेरी रचना की है और आप मुझे मारने को तत्पर हैं, अब मै आपकी शरणागत हूँ मेरी रक्षा करें।
हे प्रभू इस लोक और परलोक में कल्याण प्राप्ति के लिए तत्वदर्शियों ने उपाय निश्चित कर उनका प्रयोग भी किया, उन उपायो द्वारा वर्तमान में भी मनुष्य सरलता पूर्वक उस फल को प्राप्त कर सकते हैं।
यदि उन उपायों का निरादार कर अपने नियम चलाये जायँ तो उनमें सफलता प्राप्त नहीं हो सकती ।
हे प्रभो ! मैंने जब ब्रह्मा द्वारा रचित औषधियों को व्रतहीन दुष्टों द्वारा उपभोग होते देखा और लोकपालों ने मेरा पालन न किया तो मैने सब औषधियों को यज्ञ के लिए निगल लिया,सभी अन्नादि भीतर रहते हुए क्षीण हो गये हैं , यदि आप चाहें तो योगबल से उन्हे निकाल लें,आप योग्य वत्स और उचित दोहनपात्र एवं दुहने वाले की व्यवस्था करके मेरा दोहन करें,तब महाराज पृथु ने मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ मे सब अन्न का दोहन कराया, ऋषियों ने वृहस्पति को वत्स बनाकर स्वर्ण पात्र में अमृत , इन्द्रिय शक्ति , मन शक्ति , शरीर शक्ति रुपी दूध दुहा, दैत्यों ने प्रह्लाद को वत्स बनाकर लौह पात्र में मदिरा एवं आसव रुपी दूध निकाला, गन्धर्व और अप्सराओं ने कमल पात्र मे विश्वासु को बछड़ा बनाकर सुरीली वाणी और गानविद्या रुपी दूध दुहा, फिर श्राद्धदेव ने अर्यमा को बछड़ा बनाकर कच्चे मृतिका पात्र में कव्य रुपी क्षीर,सिद्धों ने कपिल को बछड़ा बनाकर आकाश रुपी पात्र में सिद्धिरुपी दुग्ध का तथा विद्याधरों ने विद्या का दोहन किया,मायावियों ने मय को बछड़ा बनाकर मायामय विद्याओं का और यक्ष पिशाच आदि ने रुधिर रुपी मद का दोहन किया, सर्प , पशु , सिंह , पक्षी , कीट , वृक्ष , पर्वत आदि ने भी अपने प्रमुखों को बछड़ा बनाकर अपने अपने स्वाभावानुसार दूध दुहा, महाराज पृथु ने पृथ्वी को अपनी पुत्री बनाकर धनुष के अग्रभाग से समतल किया और मनुष्यों के निवास हेतु नगर पुर ग्राम आदि का निर्माण किया,तभी से धरती का एक नाम पृथ्वी भी हुआ।
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