भागवत दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध) अध्याय 60 ( Chapter 10.60)

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bhagwat chapter 10.60
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          श्रीबादरायणिरुवाच

 

कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्।

पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः ॥१॥

 

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः।

स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः ॥२॥

 

तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन् मुक्तादामविलम्बिना।

विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ॥३॥

 

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते।

जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः ॥४॥

 

पारिजातवनामोद वायुनोद्यानशालिना।

धूपैरगुरुजै राजन्जालरन्ध्रविनिर्गतैः ॥५॥

 

पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे।

उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ॥६॥

 

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्।

तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम् ॥७॥

 

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां

          रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता।

वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार

   भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ॥८॥

 

तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य

         या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा।

प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ

     वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ॥९॥

 

             श्रीभगवानुवाच

 

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः।

महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः ॥१०॥

 

तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्।

दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान् ॥११॥

 

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्।

बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान् ॥१२॥

 

अस्पष्टवर्त्मनाम्पुंसामलोकपथमीयुषाम्।

आस्थिताः पदवीं सुभ्रु प्रायः सीदन्ति योषितः ॥१३॥

 

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः।

तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे ॥१४॥

 

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः।

तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित् ॥१५॥

 

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वया दीर्घसमीक्षया।

वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा ॥१६॥

 

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्।

येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे ॥१७॥

 

चैद्यशाल्वजरासन्ध दन्तवक्त्रादयो नृपाः।

मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः ॥१८॥

 

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये।

आनितासि मया भद्रे तेजोपहरता सताम् ॥१९॥

 

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः।

आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः ॥२०॥

 

             श्रीशुक उवाच

 

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव।

मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत् ॥२१॥

 

इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः

             प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्।

आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-

          श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह ॥२२॥

 

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया

            भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः।

आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ

          तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक् ॥२३॥

 

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्

         हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात।

देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्

     रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान् ॥२४॥

 

तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्।

हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत ॥२५॥

 

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः।

केशान्समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना ॥२६॥

 

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा।

आश्लिष्य बाहुना राजननन्यविषयां सतीम् ॥२७॥

 

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः।

हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः ॥२८॥

 

              श्रीभगवानुवाच

 

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्।

त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमङ्गने ॥२९॥

 

मुखं च प्रेमसंरम्भ स्फुरिताधरमीक्षितुम्।

कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ॥३०॥

 

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्।

यन्नर्मैरीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि ॥३१॥

 

            श्रीशुक उवाच

 

सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसान्त्विता।

ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ ॥३२॥

 

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्।

सव्रीडहासरुचिर स्निग्धापाङ्गेन भारत ॥३३॥

 

             श्रीरुक्मिण्युवाच

 

नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह

           यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः।

क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः

              क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ॥३४॥

 

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः

            शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा।

नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं

          त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम् ॥३५॥

 

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां

          वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्।

यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य

          भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम् ॥३६॥

 

निष्किञ्चनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किञ्चिद्

       यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः।

न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः

      प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम् ॥३७॥

 

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा

      यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्।

तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः

       पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न ॥३८॥

 

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव

       आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि।

हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकालवेग

     ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये ॥३९॥

 

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्

        विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्।

सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून्स्वभागं

           तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः ॥४०॥

 

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य

            जायन्तनाहुषगयादय ऐक्यपत्यम्।

राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष

    सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम् ॥४१॥

 

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्धम्

           आघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्।

लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य

            मर्त्या सदोरुभयमर्थविवीतदृष्टिः ॥४२॥

 

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशम्

           आत्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्।

स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या

           यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः ॥४३॥

 

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः

         स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्याः।

यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्

         युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता ॥४४॥

 

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्तर्

         मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्।

जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा

        या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री ॥४५॥

 

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग

          आत्मन्रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः।

यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो

         मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा ॥४६॥

 

नैवालीकमहं   मन्ये   वचस्ते     मधुसूदन।

अम्बाया एव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित् ॥४७॥

 

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्।

बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः ॥४८॥

 

              श्रीभगवानुवाच

 

साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्री प्रलम्भिता।

मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि ॥४९॥

 

यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि।

सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यद ॥५०॥

 

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे।

यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ॥५१॥

 

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया।

कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया ॥५२॥

 

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं

         वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्।

ते मन्दभागा निरयेऽपि ये नृणां

            मात्रात्मकत्वात्निरयः सुसङ्गमः ॥५३॥

 

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया

              कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः।

सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो

         ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः ॥५४॥

 

न त्वादृशीम्प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु

     पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले।

प्राप्तान्नृपान्न विगणय्य रहोहरो मे

        प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ॥५५॥

 

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य

        प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्।

दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या

      नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते ॥५६॥

 

दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमन्त्रः

      प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्।

मत्वा जिहास इदं अङ्गमनन्ययोग्यं

         तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः ॥५७॥

 

           श्रीशुक उवाच

 

एवं सौरतसंलापैर्भगवान्जगदीश्वरः।

स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन् ॥५८॥

 

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव।

आस्थितो गृहमेधीयान्धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः ॥५९॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

  दशमस्कन्धे उत्तार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम

            षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥


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भागवत दर्शन: भागवत दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध) अध्याय 60 ( Chapter 10.60)
भागवत दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध) अध्याय 60 ( Chapter 10.60)
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