अभिज्ञान-शाकुन्तलम् (चतुर्थ अङ्क), प्रविश्यापटीक्षेपेण से श्लोक नं. 4 तक

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 (प्रविश्यापटीक्षेपेण)

(बिना पर्दा उठाये हाथ से पर्दा हटाने के साथ प्रवेश करके)

व्या० एवं श०- पट्याः क्षेपः पटीक्षेपः न पटीक्षेपः पर्दा उठाये बिना, केवल एक ओर पर्दा को झटका देकर। प्रविश्य प्रविश्क्त्वा ल्यप् प्रवेश कर। सहसा किसी बात की सूचना देने के लिये पात्र पर्दे को झटका देकर सहसा रङ्गमञ्च पर आता है। राघवभट्ट ने अपटी का अर्थ पर्दा माना है और अर्थ किया है पर्दा हटाये बिना। कोष में अपटी को अर्थ पर्दा होता है- 'अपटी काण्डपटीकाप्रतिसीरा जवनिका तिरस्कारिणी' इति हलायुधः ।

अनसूया - यद्यपि नाम विषयपराङ्‌मुखस्य जनस्यैतन्त्र विदितं तथापि तेन राज्ञा शकुन्तलायामनार्यमाचरितम्। (जइ वि णाम विसअपरम्मुहस्स जणस्स एदं ण विदिअं तह वि तेण रण्णा सउन्दलाए अणज्जं आअरिदं ।)

व्या० एवं श०- विषयपराङ्मुखस्य विषयाः भोक्तव्याः स्रक्चन्दनवनितादयः अर्थाः तेभ्यः पराङ्मुखस्य = (सांसारिक) विषयों (योग्य अर्थों) से विमुख। अनार्यम् न आर्यम् अनार्यम् (न०त०) = अश्रेष्ठ (अशिष्ट, गर्हित)। आचरितम् आचर्क्त (व्यवहार) किया गया।

हिन्दी अनुवाद -

अनसूया - यद्यपि (सांसारिक) विषयों से विमुख (हम जैसे) लोगों को यह (सब) शांत नहीं है, तथापि (मेरी समझ से) उस राजा (दुष्यन्त) के द्वारा शकुन्तला के साथ (निश्चय ही) अशिष्ट (अभद्र) व्यवहार किया गया है।

शिष्य-यावदुपस्थितां होमवेलां गुरवे निवेदयामि । (इति निष्क्रान्तः) ।

व्या० एवं श० - उपस्थिताम् उपस्था+क्त टाप् द्वि०प्र०व० आयी। होमवेलाम् - होमस्य वेलाम् (स०त०) = हवन की बेला (समय) को। निवेदयामि निविद् णिच् उ०पु०ए०व० = निवेदन करता हूँ।

शिष्य-तो (चलकर) गुरुजी से कहता हूँ कि हवन का समय हो गया है। (यह कह कर निकल जाता है)।

अनसूया- प्रतिबुद्धाऽपि किं करिष्यामि ? न मे उचितेष्वपि निजकराणीयेषु हस्तपादं प्रसरति । काम इदानीं सकामो भवतु, येनासत्यसन्धे जने शुद्धहृदया सखी पदं कारिता । अथवा दुर्वाससः शाप एष विकारयति । अन्यथा कथं स राजर्षिस्तादृशानि मन्त्रयित्वैतावतः कालस्य लेखमात्रमपि न विसृजति । तदितोऽभिज्ञानमङ्गुलीयकं तस्य विसृजावः । दुःखशीले तपस्विजने कोऽ भ्यर्थ्यताम् ? ननु सखीगामी दोष इति व्यवसिताऽपि न पारयामि प्रवासप्रतिनिवृत्तस्थ तातकाश्यपस्य दुष्यन्तपरिणीतामापन्नसत्त्वां शकुन्तलां निवेदयितुम् । इत्थंगतेऽस्माभिः किं करणीयम् । (पडिबुद्धा वि किं करिस्सं ? ण में उइदेसु वि णिअकणिज्जेषु हत्थापाआ पसरन्ति । कामो दाणिं सकामो होदु, जेण असच्चसन्धे जणे सुद्धहिअआ सही पदं कारिदा। अहवा दुष्वाससो सावो एसो विआरेदि । अण्णहा कहं सो राएसी तारिसाणि मन्तिअ एत्तिअस्स कालस्स लेहमेत्तं पि ण विसज्जेदि । ता इदो अहिणणाणं अङ्गुलीअअं तस्स विसज्जेम। दुक्खसीले तवस्सिजणे को अब्भत्थीअद ? णं सहीगामी दोसो त्ति व्यवसिदा वि ण पारेमि पवासपडिणिउत्तस्स तादकस्सवस्स दुसन्तपरिणीदं आवण्णसतं सडन्दले णिवेदिदुं । इत्थंगदे अम्हेहिं किं करणिज्जं ।)

व्या० एवं श०- प्रतिवुद्धा प्रति+बुध्+क्त टाप् जागी हुई। हस्तपादम् हस्तौ च पादौ च इति हस्तपादम् समाहारद्वन्द्व, एकपदभाव, कीवत्व हाथ पैर। असत्यसन्धे असत्या सन्धा प्रतिज्ञा यस्य सः (बहु०) तस्मिन् 'सन्धा प्रतिशा मर्यादा' इत्यमरः = असत्य प्रतिशा वाले। यह पद जने (दुष्यन्ते) का विशेषण है। कारिता कृ+णिच्क्त-टाप् = करायी गयी। विकारयति विकृ णिच् प्र०पु०ए०व० विकार (अनर्थ गड़बड़) करा रहा है। मन्त्रयित्वा मन्त्र णिच्क्त्वा कहकर। अभिज्ञानम् अभिज्ञायते अनेन इति अभिज्ञानम्- अभिशा ल्युट् (करणे) = पहचान। व्यवसिता विअव्सोक्त टाप् निश्चित-उद्यत । प्रवासप्रतिनिवृत्तस्य प्रवासात् प्रतिनिवृत्तस्य (प०त०) प्रवास से लौटे हुये। दुष्यन्तपरिणीताम् - दुष्यन्तेन परिणीताम् - परिणीता परिनीक्त टाप् द्वि०ए०व० दुष्यन्त के साथ विवाहित । आपनसत्त्वाम् आपन्नं प्राप्तं सत्त्वं यया यस्याःवा (बहु०) ताम् अथवा सत्त्वं गर्भमापन्ना इति आपन्नसत्त्वानाम् । आपत्राम् आपद्त टाप् द्वि०ए०व० ।

हिन्दी शब्दार्थ -

 अनसूया जागी हुई भी (जाग कर भी) मैं क्या करूंगी ? (प्रातःकाल) के उचित (अभ्यस्त) करणीय कार्यों में भी मेरे हाथ-पैर नहीं फैल (चल) रहे हैं। कामदेव की इच्छा अब पूरी हो जिसने झूठी प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति (दुष्यन्त) के प्रति शुद्ध हृदयवाली भोली-भाली सखी (शकुन्तला) को समर्पित (प्रेमासक्त) करा दिया। अथवा दुर्वासा का शाप (ही) यह अनर्थ (गड़बड़) करा रहा है। नहीं तो कैसे वे राजर्षि उस प्रकार की (प्रेमभरी) बातें कर इतने दिनों तक एक पत्र भी नहीं भेजते। अतः यहाँ से हम पहचान की अङ्गुठी उनके पास भेजती हैं। (अब समस्या यह है कि अङ्गुठी ले जाने के लिये) कष्ट सहने वाले (निरन्तर तपस्याजनित कष्ट झेलने वाले) तपस्वी लोगों में किससे प्रार्थना की जाय ? 'निश्चित ही सब दोष (अपराध) सखी (शकुन्तला) पर ही आयेगा। (कहने के लिये) उद्यत होकर भी (व्यवसिसताऽपि) मैं प्रवास से लौटे हुये पिता कण्व से, दुष्यन्त के साथ (गान्धर्व विधि से) शकुन्तला के विवाहित और गर्भिणी होने की बात नहीं कह सकती। (अर्थात् पिता कण्व को यह नहीं बता सकती कि शकुन्तला का दुष्यन्त के साथ गान्धर्व-विधि से विवाह हो गया है और वह गर्भिणी है)। ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिये ?

विशेष - (१) 'आपनसत्त्वा स्याद् गुर्विण्यन्तर्वत्नी च गर्भिणी' इत्यमरः। गर्भवती के चार नाम हैं- आपन्नसत्त्वा, गुर्विणी, अन्तर्वत्नी, गर्भिणी। (२) दुः खशीले तपस्विजने कोऽ भ्यर्थताम् - सदा तपस्या में निरत रहने के कारण तपस्वी जन दुःख झेलने वाले और संयमी हैं। (उनमे से) इस प्रकार का सन्देश ले जाने के लिये किससे कहा जाय-यह समझ में नहीं आता। अर्थात् किसी भी तपस्वी के द्वारा सन्देश भेजना ठीक नहीं है। (३) सखीगामी दोष इति निवेदन करने पर सारा दोष सखी शकुन्तला का ही माना जायेगा। इसका भाव यह है कि पिता कण्व से कहने पर शकुन्तला का दोष मानकर कुछ भी हो सकता है। (४) व्यवसिताऽपि विअव-सो-क्ता-टाप् (कहने के लिये) उद्यत होकर भी पिता से कहने का साहस नहीं है।

(प्रविश्य) प्रियंवदा (सहर्षम्) सखि, त्वरस्व त्वरस्व शकुन्तलायाः प्रस्थानकौतुकं निर्वर्तयितुम्। (सहि, तुवर तुवर सउन्दलाए प्रत्थानकोदर्भ णिब्बतिदुं ।)

व्या० एवं श० - त्वरस्व त्वर्+लो०म०पु०ए०व० जल्दी करो। प्रस्थानकौतुकम् प्रस्थाने यत् कौतुकम् = प्रस्थान सम्बन्धी माङ्गलिक कार्य।

(प्रवेश कर) प्रियंवदा (प्रसन्नतापूर्वक) सखी, शकुन्तला के प्रस्थान (विदाई) के माङ्गलिक कार्यों को पूरा करने के लिये शीघ्रता करो, शीघ्रता करो।

टिप्पणी- प्रस्थानकौतुकम् - प्रस्थान के समय जो माङ्गलिक कार्य किये जाते हैं उन्हें 'कौतुक' कहते हैं। कहा भी गया है- 'मङ्गलार्थ सुधा गैरिकलेपादि यत् क्रियते तत् कौतुकमुच्यते' अर्थात् प्रस्थान के समय चूना, गेरू आदि का जो लेप आदि होता है उसे 'कौतुक' कहते हैं। कौतुक का अर्थ कंगन, माङ्गलिक धागा आदि भी होता है। कोष में इसके अनेक अर्थ होते हैं- 'कौतुकं नर्मणीच्छायामुत्सवे मुदि। पारम्पर्यागतमङ्गलोद्वाहसूत्रयोः' इति हैमः। इस प्रकार के मङ्गल पारम्परिक होते हैं। प्रियंवदा का अभिप्राय पारम्परिक मङ्गल से ही है।

अनसूया-सखि, कथमेतत् ? (सहि, कहं एदं ?)

अनसूया सखी, यह कैसे ?

प्रियंवदा शृणु । इदानीं सुखशयितप्रच्छिका शकुन्तलासकाशं गताऽस्मि । (सुणाहि । दाणिं सुहसइदपुच्छिआ सउन्दलासआसं गदम्हि ।) व्या० एवं श०- सुखेन शयितं सुखशयितम् सुप्सुपा समास तत् पृच्छतीति

सुखशयितप्रच्छिका - सुखशयित प्रच्छण्वुल् (अक्) टाप् सुखपूर्वक शयन हुआ या नहीं, यह पूछना । शकुन्तलासकाशम् शकुन्तलायाः सकाशम् = शकुन्तला के पास । प्रियंवदा-सुनो। अभी 'सुखपूर्वक सोयी कि नहीं' यह पूछने की इच्छा से मैं शकुन्तला के पास गयी थी।

अनसूया- ततस्ततः ।

(तदो तदो ।)

अनसूया तब, तब (क्या हुआ) ?

प्रियंवदा- तावदेनां लज्जावनतमुखीं परिष्वज्य तातकाश्यपेनैवमभिनन्दितम् । दिष्ट्या धूमाकुलितदृ‌ष्टेरपि यजमानस्य पावक एवाहुतिः पतिता । वत्से, सुशिष्यपरिदत्ता विद्येवाशोचनीयासि संवृत्ता । अद्दचैव ऋषिरक्षितां त्वां भर्तुः सकाशं विसर्जयामीति। (दाव एणं लज्जावणदमुहिं परिस्सजिअ तादकस्सवेण एवं अहिणन्दिदं। दिद्विआ धूमाउलिददिष्ट्ठिणो वि जअमाणस्स पावए एव्व आहुदी पडिदा। वच्छे, सुसिस्सपरिदिण्णा विज्जा विअ असोअणिज्जासि संवुत्ता। अज्ज एव्व इसिरक्खिदं तुमं भत्तुणो असासं विसज्जेमि त्ति ।)

व्या० एवं श०- लज्जावनतमुखीम् - लज्जया अवनतमुखीम् = लज्जा वश नीचे मुख किये हुई। परिष्वज्य परि स्वज् क्त्वा ल्यप् आलिङ्गन कर (गले लगाकर)। अभिनन्दितम् अभिनन्द्क्त अभिनन्दन किया। दिष्ट्या सौभाग्य से धूमाकुलितदृष्टेः धूमेन आकुलिता दृष्टिः यस्य तस्य (ब०जी०) घूम से व्याकुल दृष्टि वाले। सुशिष्यपरिदत्ता सुशिष्याय परिदत्ता (च०त०) सुशिष्य को दी गयी (यह पद 'विद्या' पद का विशेषण है)। ऋषिरक्षिताम् ऋषिभिः रक्षिताम् (तृ०त०) = ऋषियों से रक्षित। भर्तुः सकाशम् पति के पास । विसर्जयामि वि-सृज्-णि उ०पु०ए०व० भेज रहा हूँ। यहाँ 'विसर्जयिष्यामि' लट् के स्थान पर 'विसर्जयामि' लट् का प्रयोग है।

प्रियंवदा - तब लज्जा से झुके हुये मुख वाली इस (शकुन्तला) को गले लगाकर पिता कण्व के द्वारा इस प्रकार अभिनन्दन किया गया- 'सौभाग्य से धुये से व्याकुल दृष्टि वाले भी यजमान की आहुति अग्नि में ही गिरी (पड़ी) है। बेटी, सुशिष्य को दी गयी विद्या की भाँति (तुम) अशोचनीय हो गयी हो (अर्थात् तुम्हारे विषय में मुझे अब कोई चिन्ता नहीं है)। आज ही ऋषियों से सुरक्षित तुमको पति (दुष्यन्त) के पास भेज रहा हूँ।

टिप्पणी (१) धूमाकुलित कण्व के कहने का अभिप्राय यह है कि यज्ञ में आहुति देने वाले यजमान की दृष्टि के, यज्ञीय धून से व्याकुल होने पर भी, जैसे उसकी आहुति अग्नि में ही पड़ जाय तो यह उसका सौभाग्य ही कहा जायगा। ठीक यही बात शकुन्तला के विषय में भी लागू है क्योंकि उसने पिता कण्व की अनुपस्थिति में उनकी अनुमति लिये बिना दुष्यन्त से गान्धर्व विवाह रूप अनुचित काम कर डाला, पर यह उसका सौभाग्य ही है कि उसे दुष्यन्त जैसा सुयोग्य एवं कुलीन वर मिल गया। (२) सुशिष्यपरिदत्तेव विद्या सुशिष्य को दी गयी विद्या ही गुरु के यश को बढ़ाती है और उसे निश्चिन्त बनाती है, इसके विपरीत कुशिष्य को दी गयी विद्या गुरु के यश को क्षीण करती है तथा उसके शोक का कारण बनती है। कहा भी गया है- 'कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः'। मनुस्मृति में कहा गया है कि विद्या ब्राह्मण के पास जाकर स्वयं निवेदन करती है कि "मैं तुम्हारी निधि हूँ अतः मेरी रक्षा करो। तुम मुझे असूयक को कदापि न देना, इस प्रकार मै बलवती बनूँगी"- 'विद्या ब्राह्मणमेत्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम्। असूयकाय मां मा दास्तथा स्यां वीर्यक्तमा' ठीक इसी प्रकार अपनी कन्या के लिये योग्य वर की खोज की चिन्ता उसके पिता को रहती है। सुयोग्य पति को पाने वाली कन्या ही पिता के लिये अशोचनीय होती है अशोच्या हि पितुः कन्या सद्भर्तृप्रतिपादिता ।। आज पिता कण्व अपनी कन्या के लिये दुष्यन्त जैसे सुयोग्य वर को पाकर सर्वथा निश्चिन्त (शोकरहित) हो गये। उनके उक्त कथन (सुशिष्य परिदत्तेव विद्या अशोचनीयासि मे संवृत्ता) का यही अभिप्राय है कि जिस प्रकार सुशिष्य को दी गयी विद्या गुरु के लिये अशोचनीय बन जाती है, उसी प्रकार सुवर को प्राप्त करने वाली पुत्री शकुन्तला अपने पिता कण्व के लिए अशोचनीय बन गयी। (३) यहाँ पर 'उपमा' अलङ्कार है। शकुन्तला उपमेय, विद्या उपमान, इव वाचक शब्द तथा सुशिष्य सुवर को प्राप्ति साधारण धर्म है।

अनसूया -  अथ केन सूचितस्तातकाश्यपस्य वृत्तान्तः । (अह केण सुइदो तादकस्स वस्स वुत्तन्तो ।)

अनसूया तो किसके द्वारा पिता कण्व को (यह) समाचार बताया गया ?

प्रियंवदा- अग्निशरणं प्रविष्टस्य शरीरं बिना छन्दोमथ्या वाण्या । (अग्गिसरणं पविट्ठस्स सरीरं विणा छन्दोमईए वाणिआए ।)

व्या० एवं श०- अग्निशरणम् अग्नेः शरणम् (ष०त०) यज्ञशाला ।

प्रियंवदा- यज्ञशाला (अग्निशरण) मे गये हुये (उनको) शरीर-रहित छन्दोमयी वाणी (आकाशवाणी) के द्वारा (यह समाचार) (बताया गया है)।

अनसूया (सविस्मयम्) कथमिव ? (कहं विअ ?)

अनसूया (आश्चर्य के साथ) किस प्रकार ?

प्रियंवदा (संस्कृतमाश्रित्य)

प्रियंवदा (संस्कृत का आश्रय लेकर अर्थात् संस्कृत भाषा में)


दुष्यन्तेनाहितं तेजो दधानां भूतये भुवः । 

         अवेहि  तनयां ब्रह्मन्त्रग्निगर्भा शमीमिव ।। ४ ।।


अन्वय- ब्रह्मन्, दुष्यन्तेन आहितं तेजः भुवः भूतये दधानां तनयाम् अग्निगर्भा शमीम् इव अवेहि । 

शब्दार्थ- ब्रह्मन् = हे ब्राह्मण (विप्र)। दुष्यन्तेन दुष्यन्त के द्वारा। आहितम् = आधान किये गये (स्थापित)। तेजः तेज (वीर्य) को (सन्तान को)। भुवः पृथ्वी के। भूतये = कल्याण के लिये। दधानाम् = धारण करने वाली। तनयाम् पुत्री को। अग्निगर्भाम् अग्नि है गर्भ में (भीतर) जिसके ऐसी (अपने अन्दर अग्नि को धारण करने वाली)। शमीम् इव शमीलता की भाँति । अवेहि = समझो ।

अनुवाद- हे ब्राह्मण, दुष्यन्त के द्वारा स्थापित तेज (वीर्य, सन्तान) को, पृथ्वी के कल्याण के लिये धारण करने वाली पुत्री (शकुन्तला) को, अपने अन्दर अग्नि को धारण करने वाली शमीलता की भाँति समझो (जानो)।

संस्कृत व्याख्या- ब्रह्मन् हे विप्रवर। दुष्यन्तेन राज्ञा, आहितम् निषिक्तम्, तेजः वीर्यम्, भुवः पृथिव्याः, भूतये अभ्युदयाय, दधानां धारयन्तीम्, तनयां पुत्रीं शकुन्तलाम्, अग्निगर्भा वह्निगर्भाम् शमीम् इव शमीलताम् इव, अवेहि जानीहि ।

संस्कृत-सरलार्थः - यथा शमीलता स्वगर्भे अग्निं धारयति तथैव ते पुत्री शकुन्तला भुवनमण्डलस्य कल्याणाय दुष्यन्तेन निषिक्तं तेजः (सन्तानरूपं) स्वगर्भे धारयति अर्थात् ते पुत्री भाविनं भुवनभर्त्तारं तनयं धत्ते इति जानीहीति निगलितोऽर्थः ।

व्याकरण- आहितम् आधा क्त (घा को हि) स्थापिता। अग्निगर्भाम् अग्रिः गर्ने यस्याः ताम् (बहु०)। दधानाम् धाशनच्-टाप् द्वि०ए०व० धारण करने वाली। कोष- 'ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः' इत्यमरः । 'तेजः प्रभावे दीप्तौ च बले शुक्रेऽपि' इत्यमरः ।

अलङ्कार- इस श्लोक में 'अग्निगर्भा शमीमिव' में औती 'पूर्णोपमा' अलङ्कार है। शकुन्तला उपमेय, शमीलता उपमान, तेजोधारण तेज (सन्तान-अग्नि) साधारण धर्म तथा 'इव' वाचक शब्द है। छन्द-यहाँ अनुष्टुप छन्द है।

टिप्पणी- (१) अग्निगर्भा शमीमिव - महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय ३५ के अनुसार अनुसार देवताओं की प्रार्थना पर अग्नि ने शिव के वीर्य को धारण किया। उसके उम्र ताप के न सह सकने के कारण पहले वह पीपल में प्रविष्ट हुआ और फिर शमीवृक्ष में। देवताओं ने अग्नि को खोज कर उसे शमी में स्थायी रूप से स्थापित कर दिया। इस प्रकार अग्नि स्थायी रूप से शमी के भीतर रहता है। यही कारण है कि थोड़े घर्षण से भी शमी से अग्रि प्रकट हो जाता है। महाभारत शल्यपर्व की कथा के अनुसार भृगु के शाप से भयभीत अग्रि ने शमी में प्रवेश कर लिया। शमी के अधिगर्भ में होने की बात रघुवंश में भी कही गयी है- 'शमीमिवाभ्यन्तरलीनपावकम्' । (२) इस श्लोक में भूतये भुवः पद से यह सिद्ध होता है कि शकुन्तला के गर्भ से उत्पन्न पुत्र महान् सम्राट के रूप में भूमण्डल का कल्याण करेगा। (३) इस श्लोक में मार्ग नामक गर्भ सन्धि का अङ्ग है क्योंकि यहाँ यथार्थ बात का प्रकाशन है। उसका लक्षण है- तत्त्वार्थकथनं मार्गः सा०द० ६/९६ ।

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