उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजन जगत सब सपना॥

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भगवान शिव जी माता जी से कहते हैं कि पार्वती मैं अपना निजी अनुभव कहता हूँ, सत्य हरि है, हरि का भजन है। जगत् तो एक सपना है। कोई स्वप्न घड़ी- ...

भगवान शिव जी माता जी से कहते हैं कि पार्वती मैं अपना निजी अनुभव कहता हूँ, सत्य हरि है, हरि का भजन है। जगत् तो एक सपना है। कोई स्वप्न घड़ी- दो घड़ी का होता है, यह शरीर अस्सी नब्बे साल का है। 

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहुं बजाय।

यह गली यह पुर पट्टन, बहुरि न देखहुँ आय।।

जीवन क्षणिक हैं, सदा के लिए नहीं मिला है। यहाँ कुछ दिनों का मेला है जिसमे कुछ समय के लिए खुशियाँ मनानी हैं (दस दिन नौबत बजा लेनी है ) . एक बार यहाँ से रवानगी हो जाने पर यह नगर, गलियां और इसके घाट दोबारा देखने को नहीं मिलेंगे। जीवन क्षणिंक है और हरी भजन के लिए मिला है, इसे चाहे जैसे भी बिताया जाय यह दोबारा किसी को नहीं मिला है इसलिए जीवन का प्रत्येक पल हरी भजन को समर्पित कर देना चाहिए। शरीर छूटने के पश्चात् कोई वहाँ देखने नहीं आता।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

जैसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को त्यागकर मनुष्य नये वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक इसी प्रकार भूतादिकों का स्वामी जीवात्मा शरीररूपी वस्त्र को त्यागकर नवीन शरीर धारण कर लेता है। एक शरीर छूटा तो दूसरा तैयार ! शरीरों का तो समुद्र लहरा रहा है। यही भवसागर है। अर्जुन! शरीर नाशवान है, इसलिए तू युद्ध कर। 

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्मादुध्यस्व भारत ॥

 जब मारने से शरीर का अन्त होगा ही नहीं तो कैसा है यह युद्ध ? 

वास्तव में यह अन्तःकरण की लड़ाई है। शरीर छूटा तो शरीर तैयार है। क्योंकि शरीर का आधार है संस्कार यदि एक भी संस्कार शेष है तो जैसा संस्कार वैसा शरीर तैयार मिलेगा। अन्तिम संस्कार का मिट जाना और शरीरों के पुनर्निर्माण के कारणों का समाप्त हो जाना दोनों एक ही साथ घटित होते हैं। संस्कार जिस पर अंकित होता है वह है चित्त। ज्यों ही चित्त का निरोध हुआ, अन्तिम संस्कार मिटा, संस्कार-निर्माण का कारण ही समाप्त हो गया। भगवान आपको वह दृष्टि देंगे जिस दिव्यदृ‌ष्टि से भगवान देखे जाते हैं। वह आपमें दृष्टि देंगे, सामने स्वयं खड़े हो जायेंगे। आप नहीं भी समझेंगे तो वह समझा लेंगे। उनका दर्शन, स्पर्श, उसमें प्रवेश और स्थिति मिल जायेगी। सहज भगवत् स्वरूप में आत्मदर्शन और आत्मतृप्ति मिल गयी। वही आपका स्वरूप है, वही आप हैं। ऋषियों ने भी इसी स्वरूप की ओर इंगित किया था कि तुम अपने को पहचानो।

यह संसार ओस का पानी, जात न लागत बारा।

कहे कबीर सुनो भाई साधो, हरि भज उतरो पारा॥

जोबन धन पाहुणा दिन चारा ।।

'यह संसार ओस का पानी।' शीतकाल में फसल की पत्तियों की नोंक पर मोतियों की तरह चमकती हुई ओस की बूँदें दिखायी देती हैं। उनके बीच से जाने पर आप भींग जायेंगे किन्तु सूर्य की पहली किरण के साथ ही वे बूँदें जमीन पर गिर पड़ती हैं और आधे घण्टे पश्चात् तो जैसे वहाँ कुछ था ही नहीं, सब वाष्प बनकर उड़ जाता है। संसार भी इतना ही अस्तित्वहीन है।

जगद्‌गुरु श्रीशंकराचार्यजी भी कहते है कि -

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते ।

सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, स न हि न हि रक्षति डुकृञ करणे ।।

अर्थात, हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले, गोविन्द को भजो, गोविन्द से प्रेम करो, क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती ।

बिना हरिभजन के संसार रुपी समुद्र अर्थात भवसागर सें पार नहीं किया जा सकता, यह सिद्धान्त अटल है ।एक पौराणिक कथा याद आती है —

सत्ययुग की बात है, महाराज ऋषभदेव ने अपना राज्य अपने दोनों पुत्रों-भरत और बाहुबलि में विभाजित कर दिया था ताकि उनमें कोई कलह न हो। 

भरत ज्येष्ठ थे और बाहुबलि छोटे। दोनों ही वीर, साहसी और पराक्रमी थे, परन्तु दोनों के विचारों में महान अन्तर था। 

भरत महत्त्वाकांक्षी थे जबकि बाहुबलि भक्तिमान् एवं सन्तोषप्रिय थे। भरत के मन में चक्रवर्ती सम्राट बनने की इच्छा थी। 

अपने पराक्रम तथा शक्तिशाली सेना के बल पर एक-एक करके वे सभी राज्यों को अपने अधीन कर चुके थे। 

दिग्विजयी बनने के लिए अब केवल एक राज्य शेष रह गया था जिस पर उन्होंने विजय प्राप्त करनी थी और वह था उनके लघु भ्राता बाहूबलि का राज्य। 

यदि सम्राट भरत अपने छोटे भाई बाहुबलि को बुलाकर यह कहते कि चूंकि उन्होने भारत के सभी राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली है अतः वे अब चक्रवर्ती सम्राट हैं और इस उपलक्ष्य में उनका विचार एक महान यज्ञ करने का है, तो बाहुबलि को शायद इसमें कोई आपत्ति न होती, क्योंकि वे भरत का बहुत आदर करते थे। 

परन्तु हुआ यह कि विजय-मद में आकर भरत ने दूत द्वारा बाहुबलि को सन्देश भिजवा दिया कि या तो मेरी अधीनता स्वीकार कर लो अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

भरत द्वारा दूत का भेजा जाना और इस प्रकार की धमकी देना बाहुबलि को बहुत बुरा लगा। 

फिर भी उसने अपने को संयत कर दूत द्वारा वापस सन्देश भिजवाया- यह राज्य मुझे अपने पिता महाराज ऋषभदेव से प्राप्त हुआ है। 

आप मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, इस नाते मैं आपका सम्मान करता हूँ, परन्तु आप इस राज्य पर कुदृष्टि न डालें।'' 

सम्राट भरत के मन में तो चक्रवर्ती बनने की महत्त्वकांक्षा थी और साथ ही गर्व था इस बात का कि सम्पूर्ण भारत को वे अपने अधीन कर चुके हैं, अतः लघु भ्राता बाहुबलि का उत्तर सुनकर वे क्रोध से भड़क उठे। 

उन्होंने बाहुबलि के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी; फलस्वरुप दोनों ओर की सेनायें आमने-सामने डट गई।

दोनों भाइयों को युद्ध के लिए तत्पर देखकर भरत का एक वयोवृद्ध मंत्री चिन्तित हो उठा और इस संघर्ष को टालने की युक्ति सोचने लगा।

अन्ततः उसे एक युक्ति सूझ ही गई। उसने अन्य मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श किया फिर उन सबके साथ युद्धभूमि में जा पहुंचा और भरत तथा बाहुबलि से बोला।

युद्ध करके व्यर्थ की सहरुाों मनुष्यों का रक्त बहाने से आपको क्या लाभ होगा? क्यों नहीं आप दोनों भाई परस्पर युद्ध करके जय-पराजय का निर्णय कर लेते?

भरत और बाहुबलि-दोनों को यह बात पसन्द आई, अतएव दोनों मल्लयुद्ध के लिये अखाड़े में उतरे। 

चूँकि दोनों ही वीर एवं पराक्रमी थे अतः बड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे से जूझते रहे, परन्तु शनैः शनैः भरत के पैर उखड़ने लगे। 

बाहुबलि की बाहें बड़ी विशाल और शक्तिशाली थीं, इसी कारण उसका नाम बाहुबलि प्रसिद्ध हुआ था। 

भरत ने जब अपनी हार निकट देखी तो आक्रोश में आकर बाहुबलि पर "चक्ररत्न' नामक अमोघ अस्त्र का प्रयोग किया। 

यह अस्त्र उन्हें अपने पिता महाराज ऋषभदेव से प्राप्त हुआ था, परन्तुु वह अस्त्र अपने कुटुम्बियों पर प्रभावकारी नहीं होता था। 

भरत क्रोध में यह बात पूरी तरह भूल गये थे, परन्तु उन्हें तुरन्त अपनी भूल का पता लग गया, क्योंकि "चक्ररत्न' बाहुबलि के निकट पहुँच कर वापस लौट आया।

भरत द्वारा अमोघ अस्त्र का प्रयोेग करने पर बाहुबालि क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने अपनी शक्तिशाली भुजाओं द्वारा भरत को अपने सिर से भी ऊपर उठा लिया। 

वे अपनी पूरी शक्ति से भरत को पृथ्वी पर फेंकने ही वाले थे कि उनका विवेक जाग उठा। 

उन्होंने धीरे-धीरे अपने ज्येष्ठ भ्राता को पृथ्वी पर खड़ा किया और बोले-"धिक्कार है पृथ्वी के इस छोटे-से टुकड़े पर जिसके लिये आप अपने छोटे भाई को और मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता को मारने को उद्यत हो गया। 

क्या यह पृथ्वी, यह राज्य अधिकार, यह धन-वैभव परलोक में हमारे साथ जायेगा? संभालिये यह राज्य! मुझे ऐसा राज्य वैभव नहीं चाहिये जिसके लोभ में अन्धा होकर मनुष्य अपना विवेक-विचार सब खो बैठता है और कुछ भी करने को तत्पर हो जाता है।''

बाहुबलि ने केवल राज्य का ही नहीं, संसार का भी त्याग कर दिया और सद्गुरु के शरणागत होकर तथा उनसे दीक्षित होकर भक्ति-मार्ग पर चल पड़े। 

किन्तु ऐसा विवेक क्या प्रत्येक व्यक्ति को होता है? नहीं कदापि नहीं। 

ऐसा विवेक तो प्रभु की असीम कृपा से और पूर्बले शुभ संस्कारों के फलस्वरुप किसी विरले सौभाग्यशाली मनुष्य को ही होता है, अन्यथा आम संसारी मनुष्य तो धन-जायदाद के लिए निकटतम सम्बन्धी तक का खून बहाने से भी नहीं हिचकिचाते। 

समाचार पत्रों में प्रायः इस प्रकार के समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं कि सम्पत्ति पर अधिकार करने के सिलसिले में भाई-भाई में झगड़ा हो गया। 

धन-सम्पत्ति के लोभ में लोग इस तथ्य को पूरी तरह भूल जाते हैं कि हम इस संसार में मात्र कुछ दिनों के मेहमान हैं। 

काल ने जब झपट्टा मारा तो पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो जाएगा। यहाँ से जाते समय तो कुछ भी साथ न जाएगा। 

इसीलिये कबीर दास जी समय समय पर मनुष्य को सावधान करते रहते और उपदेश करते रहते हैं कि —

हम जानै थे खायेंगे, बहु ज़मीन बहु माल।

ज्यों का त्यों ही रह गया, पकरि लै गया काल।।

जात सबन कहँ देखिया, कहै कबीर पुकार।

चेता होहु तो चेति ल्यो, रैन दिवस चलै धार।

कबीर सो धन संचिये, जो आगे को होय।

सीस उठाये गाठरी, जात न देखा कोय।।

 श्री कबीर दास जी कहते हैं कि आम संसारी मनुष्य तो यही समझते हैं कि हम अधिक से अधिक भूमि पर अधिकार करेंगे और अधिक से अधिक पदार्थों का उपभोग करेंगे।

परन्तु वो यह बात भूल जाते हैं कि जब काल पकड़कर ले गया तो सब कुछ ज्यों का त्यों धरा रह जायेगा, तब कुछ भी साथ न जायेगा।

पुनः समझाते हैं कि सभी यहां से जाते ही दिखाई पड़ रहे हैं। काल की तेज़ धार रात-दिन चल रही है, इसलिए समझदारी इसी में है कि अभी से चेत लो।

बार बार कहते हैं कि यदि धन-सम्पदा एकत्र करनी ही है तो वह धन-सम्पदा एकत्र करो जो परलोक में साथ जाये। सांसारिक धन-सम्पदा एकत्र करने से क्या लाभ? 

क्योंकि सांसारिक धन की गठरी बाँधकर अपने साथ ले जाते हमने आज तक किसी को नहीं देखा।

वह धन कौन सा है जो साथ जाता और परलोक में काम आता है? वह है प्रभु-नाम और प्रभु-भक्ति का धन।

संत शिरोमणि तुलसीदास जी लिखते है —

श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी।

राम भजिअ सब काज बिसारी ॥

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भागवत दर्शन: उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजन जगत सब सपना॥
उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजन जगत सब सपना॥
भागवत दर्शन
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