ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है,वह असत्य है ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
By -
भागवत दर्शन
भागवत दर्शन


 ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है,वह असत्य है। अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी में व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीं देता , यह ईश्वर की माया ही है, उसे ही महापुरुष आवरण और विक्षेप कहते हैं,सभी का मूल उपादान कारण प्रभु हैं,प्रभु में भासमान संसार सत्य नहीं है , किन्तु माया के कारण आभासित होता है,माया की दो शक्तियाँ हैं --

(1) आवरण शक्ति -- माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रहती है।

(2) विक्षेप शक्ति -- माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान में भी जगत् का भास कराती है।

आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है, अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है,स्वप्न मे़ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है। 

तात्विक दृष्टि से देखें तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है, वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ। 

माया का अर्थ है अज्ञान,अज्ञान कब से शुरु हुआहुआ, यह जानने की कोई जरुरत नहीं है,माया जीव से कब लगी है, उसका भी विचार करने की जरुरत नहीं है।

माया का अर्थ विस्मरण है-

"मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक। 

इस प्रकार जो न हो उसे दिखाए वह माया है,माया के तीन प्रकार हैं - 

(1) स्वमोहिका

(2) स्वजन मोहिका

(3) विमुखजन मोहिका

जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है, उसे माया पकड़ नहीं सकती, माया नर्तकी है जो सबको नचाती है, नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तनकीर्तन, कीर्तन करने से माया छूटेगी। 

कीर्तन भक्ति में प्रत्येक इन्द्रिय को काम मिलता है। इसीलिए महापुरुषों ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है,माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण में जाना होगा, भगवान स्वयं कहते हैं - - 

   "दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

     मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।"

दैवी माया अर्थात् मुझ व्यापक ईश्वर की निज शक्ति मेरी त्रिगुणमयी माया दुस्तर है अर्थात् जिससे पार होना बड़ा कठिन है ऐसी है। इसलिये जो सब धर्मों को छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वर की ही सर्वात्मभाव से शरण ग्रहण कर लेते हैं वे सब भूतों को मोहित करने वाली इस माया से तर जाते हैं वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसार बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

इसलिए हमें हर किसी स्थान में और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओं का श्रवण, कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --

"तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा।

श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम्।।"

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