अभिज्ञान शाकुन्तलम् की संक्षिप्त कथावस्तु

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Summary of Abhigyan-shakuntalam Drama
Summary of Abhigyan-shakuntalam Drama
  


अभिज्ञान शाकुन्तलम् की संक्षिप्त कथावस्तु


प्रथम अङ्क


नान्दी पाठ के अनन्तर सूत्रधार नटी को 'अभिज्ञानशाकुन्तल' का अभिनय प्रस्तुत करने का आदेश देता है। तत्पश्चात् रथारूढ राजा धनुष-बाण हाथ में लिये मृग का पीछा करता हुआ सारधि के साथ तपोवन में प्रवेश करता है। राजा मृग पर ज्यों ही बाण-वर्षा करना चाहता है त्यों ही एक तपस्वी वैखानस राजा को यह कह कर रोक देता है कि 'आश्रम-मृग अवध्य है।' राजा तत्काल अपने बाण को प्रत्यचा से उतार लेता है। तपस्वी शुभाशीष प्रदान करता है कि 'उसे चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति हो'। तपस्वी वैखानस राजा से निवेदन करता है कि वह (राजा) मालिनी नदी के तट पर कुलपति कण्व के आश्रम में अतिथि सम्मान ग्रहण करे। सम्प्रति कुलपति कण्व शकुन्तला की भाग्य-विपरीतता के शमन हेतु सोमतीर्थ गये हैं। उनकी अनुपस्थिति में शकुन्तला अतिथि सत्कार का दायित्व सँभाल रही है। राजा दुष्यन्त रथ को आश्रम के सीमान्त में रोक कर साधारण वेष में आश्रम में प्रविष्ट होता है। इतने में ही जब वह कुछ मधुर स्वर सुनता है तो घूमकर देखता है, वहाँ तीन आश्रम कन्यायें वृक्ष-सेचन में तल्लीन हैं। उन कन्याओं में से कण्व-पुत्री शकुन्तला के रूपमाधुर्य पर वह आकृष्ट हो जाता है और वृक्ष की ओट में छिपकर अपलक नेत्रों से उसके रूप-सौन्दर्य का पान करता है। शकुन्तला कभी मौलसिरी वृक्ष की ओर तथा कभी वनज्योत्स्ना के समीप जाती है। सखियों के हास-परिहास के मध्ये ऊपर आया एक भौरा शकुन्तला के मुख की ओर आने लगता है। शकुन्तला सम्भ्रमित होकर रक्षा के लिये सखियों को पुकारती है। सखियाँ मुस्कराकर राजा दुष्यन्त को पुकारने के लिए कहती हैं। क्योंकि आश्रमजन राजा द्वारा ही रक्षित होते हैं। अवसर देखकर छिपा हुआ दुष्यन्त स्वयं प्रकट हो कर भ्रमर से आक्रान्त शकुन्तला की रक्षा करता है। अकस्मात् अपरिचित राजा को सम्मुख देकर प्रियंवदा सखी शकुन्तला को राजा का सत्कार करने के लिये कहती है। राजा को वृक्ष की छाया में बैठाकर स्वयं तीनों बैठ जाती हैं। वार्तालाप के प्रसङ्ग में राजा को अनसूया से ज्ञात होता है कि शकुन्तला का जन्म ऋषि विश्वामित्र एवं मेनका के सम्पर्क से हुआ है एवं परित्यक्ता होने पर वह कण्व द्वारा पालित एवं पोषित है। राजा के प्रश्न जिज्ञासा का समाधान करती हुई प्रियंवदा जब यह कहती है कि पिता कण्व इसे योग्य वर को देने लिये कृतसंकल्प हैं। तब राजा अपने मन में शकुन्तला के साथ अपने विवाह के विषय में आश्वस्त हो जाता है परन्तु प्रियवंदा की बातों को सुनकर शकुन्तला कुछ रुष्ट होकर जाने के लिये उद्यत हो उठती है। तब तक परिहास में वृक्ष-सेचन के ऋण का स्मरण कराकर प्रियंवदा उसे रोकना चाहती है। राजा अंगूठी द्वारा शकुन्तला को ऋणरहित करना चाहता है। अंगूठी पर अंकित दुष्यन्त के नाम को पढ़कर अनसूया और प्रियंवदा जब एक दूसरे की ओर देखने लगती हैं, तब गुंजा अपने को दुष्यन्त न समझने का निवेदन करता है। नेपथ्य में ध्वनि होती है कि एक जंगली हाथी भयभीत होकर इधर ही आ रहा है। भयाक्रान्त होकर तापस कन्यायें आश्रम की ओर चली जाती हैं। शकुन्तला के प्रति आकृष्ट राजा राजधानी-गमन स्थगित कर खिन्न होकर पड़ाव की ओर चला जाता है।

 

द्वितीय अङ्क

 

 द्वितीय अङ्क में सर्वप्रथम विदूषक प्रवेश करता है। वह शिकार के व्यसनी राजा दुष्यन्त की मैत्री से दुःखी है इसलिये वह किसी प्रकार राजा से आज का अवकाश ग्रहण करने के विषय में सोचता है। इतने में ही यथोक्त सेवकों सहित प्रेमासक्त राजा प्रवेश करता है। विदूषक राजा से एक दिन का विश्राम चाहता है। उधर राजा का भी मन शकुन्तला का निरन्तर स्मरण आने के कारण शिकार से हट सा गया है। विदूषक के निवेदन से सहमत होकर वह सेनापति को आदेश देता है कि वह जंगली पशुओं को एकत्र करने के लिये निकले हुये सेवक वर्ग को लौटा ले। इसके बाद परिजन-वर्ग चला जाता है।

 विदूषक के साथ राजा एकान्त वृक्ष की छाया से निर्मित वितान के नीचे शिलापट्ट पर बैठ जाता है। वहीं पर वह शकुन्तला के प्रति अपनी आसक्ति के विषय में विदूषक को इङ्गित करता है तथा आश्रम में एक बार और जाने के लिये उससे कोई व्याज ढूँढ़नेको कहता है। इसी समय दो तपस्वी ऋषिकुमार आ जाते हैं। वे (ऋषिकुमार) यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वाले राक्षसों के निवारणार्थ राजा से आश्रम में आने का निवेदन करते हैं। अपने मनोऽनुकूल निमन्त्रण को राजा स्वीकार कर लेता है और रथारूढ़ होकर विदूषक के साथ आश्रम की ओर प्रस्थान करता है। इतने में ही नगर से करभक नामक सेवक आता है जो सन्देश देता है कि महारानी की आज्ञा है कि 'आगामी चौथे दिन उनके (महारानी के) उपवास की पारणा होगी। उस समय आयुष्मान् दुष्यन्त माता को अवश्य सम्मानित करें।' राजा चिन्ता-निमग्न हो जाता है कि 'वह तपस्वियों का कार्य करे अथवा गुरुजनों की आज्ञा का पालन करें।' काफी सोच-विचार कर माता के द्वारा पुत्र रूप में माने गये विदूषक को हस्तिनापुर भेज देता है। हस्तिनापुर में माता को सन्देश भेजता है कि इस समय वह तपस्वियों के कार्य में व्यग्रचित्त है। अतः उसका वहाँ आना सम्भव नहीं है। उसे यह भय है कि विदूषक चञ्चलतावश कहीं उसके प्रणय-प्रसङ्ग को अन्तःपुर में न कह दे। अतः वह विदूषक से शकुन्तला के प्रति अपनी आसक्ति को सही न मानने के लिये आग्रह करता है।

 

तृतीय अङ्क

 

 हाथ में कुश लिये हुये यजमान का शिष्य प्रवेश करता है और सूचना देता है कि राजा द्वारा रक्षा किये जाने पर आश्रम की सभी क्रियायें निर्विघ्न सम्पन्न हो रही है। आकाश-भाषित द्वारा यह सूचना मिलती है कि शकुन्तला धूप के आघात से अत्यन्त अस्वस्थ हो गयी है। उसी समय मदनावस्था में राजा प्रवेश करता है। "उस धूप की वेला में शकुन्तला अपनी सखियों के साथ प्रायः लताबलयों से युक्त मालिनी नदी के तट पर व्यतीत करती है" ऐसा सोच कर राजा बेंत की लता से आवृत लतामण्डप में पहुंचता है। वहाँ वृक्ष की शाखाओं की ओट से अपनी प्रियतमा को देखकर उसके नेत्र निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेते हैं। शकुन्तला पुष्पशय्या पर पड़ी है और सखियों उसकी सेवा में तल्लीन हैं। वह छिपकर प्रेयसी और उसकी सखियों के विश्वस्त वार्तालाप को सुनता है। लता-मण्डप में दोनों सखियों शकुन्तला से यह जानने को उत्सुक हैं कि उसके सन्ताप का मूल कारण काम है अथवा ग्रीष्मातप। सखियों के अनुरोध पर निष्कपटहृदया शकुन्तला स्वीकार करती है कि तपोवन के रक्षक राजर्षि दुष्यन्त के प्रति वह आकृष्ट हो गयी है और उसको प्राप्त करने की उसके हृदय में तीव्र लालसा है। उसकी कृशता का मूल कारण यही है। प्रियंवदा प्रसन्न होती है कि उसकी सखी ने अनुरूप व्यक्ति के प्रति ही प्रेम किया है।

  प्रियंवदा शकुन्तला को एक प्रेमपत्र लिखने का परामर्श देती है। परन्तु शकुन्तला का मन अवज्ञा के भय से आशङ्कित हो जाता है। उधर वृक्ष की ओट में छिपा हुआ राज अत्यन्त प्रसन्न होता है और मन ही मन कहता है कि "भीरु! जिससे तुम अपमान की आशङ्का कर रही हो वह तुम्हारे समागम के लिये उत्सुक बैठा है।" शकुन्तला सखियों के आग्रह से नलिनी-पत्र पर नाखूनों से राजा को प्रेमपत्र लिखती है। राजा सहसा उपस्थित होकर शकुन्तला के प्रति उत्कट मनोविकार को प्रकट कर देता है। प्रणयी युगल राजा और शकुन्तला को एकान्त में छोड़कर दोनों सखियाँ (प्रियंवदा और अनसूया) वहाँ से चली जाती हैं। राजा और शकुन्तला काम-व्यापार में संलग्न हो जाते हैं। रात्रि होने लगती है। तभी शकुन्तला की अस्वस्थता का सप्ताचार पाकर शान्ति-जल लिये हुए आर्या गौतमी आती हैं। राजा वृक्ष की ओट में छिप जाता है। गौतमी के साथ शकुन्तला आश्रम की ओर प्रस्थान करती है। इसी बीच आकाशवाणी सुनाई पड़ती है कि राक्षसों की भयोत्पादक छायायें आश्रम का बार-बार चक्कर लगा रही हैं। ऐसा सुनकर कामाभिभूत होने पर भी राजा राक्षसों के विघ्न को दूर करने के लिये प्रस्थान कर देता है।

 

चतुर्थ अङ्क

 

  चतुर्थ अङ्क के प्रारम्भ में पुष्प-चयन करती हुई शकुन्तला की दोनों सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा प्रवेश करती हैं। उनके वार्तालाप से ज्ञात होता है कि राजा और शकुन्तला का गान्धर्व विवाह हो गया है। गान्धर्व विवाह के शीघ्र बाद ही राजा शकुन्तला को शीघ्र लिवा जाने का आश्वासन देकर हस्तिनापुर चला गया है। शकुन्तला राजा का स्मरण करती हुई चित्रलिखित सी कुटी में बैठी है। तभी दुर्वासा ऋषि का आगमन होता है। शकुन्तला से अतिथि सत्कार न पाकर कोपराट् दुर्वासा उसको अभिशाप दे देते हैं- "जिसका स्मरण करती हुई तुम मेरे जैसे तपस्वी का सत्कार नहीं कर रही हो वह प्रणयी याद दिलाये जाने पर भी तुम्हें पहचानेगा नहीं"। उद्विग्नमना शकुन्तला कुछ भी नहीं सुन पाती जब कि उसकी सखियों यह सब कुछ सुन लेती हैं और शाप-निवारण के लिये प्रियंवदा प्रस्थान कर देती है। अत्यधिक अनुनय-विनय के पश्चात् दुर्वासा आश्वासन देते हैं कि अभिज्ञान (आभरण) के दर्शन से शाप-मुक्ति हो सकती है। प्रियंवदा और अनसूया दुर्वासा के शाप की बात न तो शकुन्तला को, न ही किसी अन्य को बताती हैं। वे दोनों इसलिये किसी प्रकार धैर्य-धारण करती हैं क्योंकि राजा ने स्वयं जाते समय अपनी नामाङ्कित अंगूठी स्मृति रूप में शकुन्तला को पहनायी थी। इस प्रकार शकुन्तला तो स्वयं ही शाप-मुक्त हो सकती है।

  ऋषि कण्व सोमतीर्थ से वापस आ जाते हैं। अनसूया विचार करती है कि शकुन्तला के आपन्नसत्त्वा होने के वृत्तान्त से महर्षि कण्व को कैसे अवगत कराया जाय। उधर ऋषि कण्व को आकाशवाणी सुनायी देती है कि शकुन्तला का दुष्यन्त के साथ गान्धर्व विवाह हो गया है और वह आपत्रसत्त्वा है। ऋषि इस विवाह का समर्थन करते हैं एवं शकुन्तला को हस्तिनापुर ले जाने के लिये गौतमी, शार्ङ्गरव आदि को आदेश देते हैं। शकुन्तला की विदाई की तैयारी प्रारम्भ हो जाती है। इस मङ्गल बेला में वनवृक्षों से रेशमी वस्त्र, आभूषण एवं प्रसाधन-समग्री प्राप्त हो जाती है। पतिगृह के लिये प्रस्थान करने के समय तपस्वी वीतरागी कण्व का गला भर जाता है। सारा तपोवन शकुन्तला के वियोग से व्यथित हो जाता है। मृग शावक शकुन्तला के आँचल से लिपट जाता है। हिरणियों जुगाली करना तथा मयूर नाचना छोड़ देते हैं। चेतन जगत् की बात तो दूर तपोवन के जड़ जगत् के लिये भी शकुन्तला का वियोग असह्य हो जाता है। महर्षि कण्व राजा के लिये संदेश भेजते हैं कि इसे राजा अपनी पत्नियों में सम्मान पूर्वक स्थान दे। तदनन्तर वे शकुन्तला को कर्तव्य-शिक्षा देते हैं। शकुन्तला पिता के चरणों में गिर पड़ती है तथा दोनों सखियों का आलिङ्गन करती हैं। सखियाँ शकुन्तला से बतलाती हैं कि यदि राजा उसे न पहचाने तब उसके स्मरण चिह्न अँगूठी को वह दिखला देगी। तत्पश्चात् शकुन्तला गौतमी, शार्ङ्गरव एवं शारद्वत के साथ चली जाती है। दोनों सखियाँ विलाप करती रहती हैं। शकुन्तला को पतिगृह भेजकर कुलपति कण्व हार्दिक शान्ति का अनुभव करते हैं।

 

पञ्चम अङ्क

 

 सर्वप्रथम आसन पर बैठा हुआ राजा एवं विदूषक दिखलायी देते हैं। राजा दुष्यन्त हंसपदिका के गीत को सुनकर अत्यधिक उत्कण्ठित हो जाता है तथा विदूषक से कहता है कि हंसपदिका ने अति सुन्दर गीति गायी है। कञ्चुकी आकर कण्व- शिष्यों के आगमन की सूचना देता है। नेपथ्य में दो स्तुति-पाठक राजा का स्तुतिगान करते हैं। राजा दुष्यन्त यज्ञशाला में शकुन्तला सहित गौतमी तथा कण्व के दोनों शिष्यों से मिलता है। तभी शकुन्तला का वामेतर नेत्र फड़कने लगता है। अमङ्गल की आशङ्का से वह भयभीत हो जाती है। दुर्वासा के शाप के कारण राजा सारा प्रणयवृत्तान्त भूल जाता है। अतः लावण्यवती शकुन्तला को देखकर वह उसकी ओर आकृष्ट नहीं होता है। वह शार्ङ्गरव तथा शाद्वत से कुशल-क्षेम पूछता है। वे दोनों ऋषि-कुमार राजा को कण्व का संदेश सुनाते है-"शकुन्तला तथा दुष्यन्त के गान्धर्व विवाह का मैंने अनुमोदन कर दिया है अतः गर्भवती शकुन्तला को आप स्वीकार करें।" राजा यह सुनकर आश्चर्यान्वित हो जाता है और शकुन्तला के साथ विवाह की घटना को असत्य बतलाता है। गौतमी शकुन्तला का मुख दिखाती है फिर भी राजा नहीं पहचानता। शकुन्तला अभिशान (अंगूठी) को दिखाने का उपक्रम करती है परन्तु इससे पूर्व कि वह शङ्का का निवारण करे, देखती है कि अंगूठी अंगुली में नहीं है। गौतमी कहती है कि यह अंगूठी शक्रावतार में शचीतीर्थ के जल की वन्दना के समय गिर गयी है। शकुन्तला संयोग के दिनों के मधुर प्रसङ्गों को सुनाती है पर राजा को कुछ भी याद नहीं आता। अंगूठी न दिखा पाने के कारण राजा शकुन्तला को कपट-व्यवहार करने वाली स्त्री समझता है। इस पर क्रोधावेश में शारद्वत राजा को खरी- खोटी सुनाता है और शकुन्तला को वहीं छोड़कर चला जाता है। उसी के साथ शार्ङ्गरव और गौतमी भी चली जाती हैं।

 राजा अनिश्चयावस्था में पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में राजगुरु स्थिति संभालता है। वह कहता है कि सन्तानोत्पत्ति तक शकुन्तला उसके घर रहेगी। यदि सिद्ध पुरुषों की भविष्यवाणी के अनुसार शकुन्तला से उत्पन्न पुत्र चक्रवर्ती-लक्षणों से समन्वित होगा तो शकुन्तला को अन्तःपुर में स्थान दिया जायेगा, अन्यथा दोंनो को कण्वाश्रम में पहुंचा देना उचित होगा। राजा सहमत हो जाता है। शकुन्तला रोती हुई पुरोहित के पीछे चल पड़ती है। इतने में अप्सरा-तीर्थ में स्त्री रूप एक दिव्य ज्योति उसे उठा ले जाती है। इस घटना से राजा को सन्देह होता है कि कहीं वह भूल तो नहीं कर रहा है।

 

षष्ठ अङ्क

 

 प्रारम्भ में नगर-रक्षक श्याल और पीछे बंधे एक मनुष्य को लेकर दो रक्षी (सिपाही) मञ्च पर आते हैं। रक्षी पुरुष को पीटकर पूछते हैं कि राजा के नाम से चिह्नित यह अँगूठी उसके पास कहाँ से आयी ? वह बतलाता है शक्रावतार तीर्थ में फैसाई गई मछली का पेट फाड़ने पर उसके अन्दर से यह अंगूठी मिली है। उसकी बात की पुष्टि के लिये नगर-रक्षक (श्याल) यह सूचना राजा को देता है तथा राजा के कहने से अँगूठी के बराबर धन देकर उसे छोड़ देता है। श्याल धीवर के साथ प्रसन्न होकर मदिरा की दुकान पर जाता है।

  मेनका की सखी सानुमती नामक अप्सरा अन्तर्धान होकर राजा दुष्यन्त के प्रमदवन में उसकी दो परिचारिकाओं की बातें सुनती है। वसन्त का मादक सौन्दर्य चारों तरफ विकीर्ण हो रहा है और परिचारिकायें कामदेव की पूजा कर रही हैं। तभी कञ्चुकी आकर उनको फूल तोड़ने का निषेध करता है एवं कहता है कि राजा ने मदनोत्सव का निषेध कर दिया है। उन परिचारिकाओं द्वारा निषेध का कारण पूछने पर कञ्जुकी बतलाता है कि अँगूठी के दर्शन से राजा की स्मृति सजीव हो गयी। परिणामस्वरूप जब उसे शकुन्तला के साथ अपने गान्धर्व विवाह का स्मरण आया तब से वह पश्चात्ताप की अग्नि में दग्ध हो रहा है। उद्विग्न मन होने के कारण उसने उत्सव का निषेध कर दिया है। तदन्तर विदूषक के साथ राजा उद्यान में प्रेवश करता है। वह विदूषक को शकुन्तला का चित्र दिखलाता है तथा उसे (शकुन्तला को) अंगूठी देने का वृत्तान्त सुनाता है। स्रानुमती यह सब सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होती है कि उसकी सखी शकुन्तला को भूला प्रणयी अब उसके प्रति अनुरक्त हो रहा है। राजा अनेक प्रकार से अपने को अपराधी स्वीकार करता हुआ खिन्न हो जाता है तथा शकुन्तना का चित्र मंगाकर उसमें परिवर्धन करने की कल्पना करके आँसू बहाता है।

तत्पश्चात् प्रतीहारी मंत्री का एक पत्र लाती है कि धनमित्र नामक एक व्यापारी नौका-दुर्घटना में मर गया। वह चूंकि सन्तानहीन है अता उसका धन राजकोष में जायेगा। सन्तानहीन का प्रसङ्ग आने पर राजा इसलिए और दुःखी हो जाता है कि गर्भ धारण करने वाली उसकी पत्नी उसके द्वारा छोड़ दी गयी। वंश-विच्छेद से अत्यन्त आकुल हो रहे पितरों की दशा को सोचकर उसका हृदय फट जाता है। यह दृश्य सानुमती देखती है और राजा के निश्चल प्रेम की जानकारी पर वह आच्चस्त होकर चली जाती है।

  उसके बाद प्रतीहारी प्रवेश करती है। इसी समय इन्द्र का सारधि मातलि विदूषक को पकड़ कर पीटना शुरू कर देता है। उसकी रक्षा रकने के लिये राजा ध्वनि के सहारे शर- सन्धान करता है। तब विदूषक को छोड़कर मातलि राजा के समक्ष उपस्थित होता है और निवेदन करता है कि दुर्जय नामक राक्षसों को नष्ट करने के लिए आप इन्द्र से सहायता करें। राजा मातलि से पूछता है कि उसने माढव्य के प्रति ऐसा व्यवहार क्यों किया ? तब वह उत्तर देता है, "मैंने आपको अत्यन्त उद्विग्न देखा अतः वीरोचित कार्य के सम्पादन हेतु आपको उत्तेजित करने के लिये ऐसा कार्य किया।" इन्द्र की आज्ञा को दृष्टिगत कर राजा मन्त्री पिशुन को प्रत्यावर्तन काल तक राज्य भार सौंप कर तथा इन्द्र के रथ पर आरूढ होकर स्वर्ग के लिये प्रस्थान करता है।

 

सप्तम अङ्क

 

 राजा दानवों का विनाश करके इन्द्र की आशा पूरी करता है। इन्द्र राजा को एक विशाल समारोह में विदाई देता है। रथ से लौटते समय उसे हेमकूट पर्वत पर मारीच ऋषि का आश्रम दिखलाई पड़ता है। दुष्यन्त मातलि के साथ रथ से उतर कर इन्द्र, विष्णु आदि देवताओं और ब्रह्मा के पौत्र कश्यप तथा उनकी धर्मपत्नी अदिति के दर्शनार्थ जाता है। शुभ शकुन की द्योतक राजा की दक्षिण भुजा फड़कती है। इतने में ही राजा दो तपस्विनियों द्वारा अनुसरण किये जाते हुए एक बालक को देखता है। वह बालक सिंह- शावक को माँ का दूध नहीं पीने देता है एवं शावक का दाँत गिनने का प्रयत्न करता है। उस बालक को देखकर राजा का वात्सल्य उमड़ पड़ता है। वह उसे गोद में ले लेता है। तभी बच्चे का चक्रवर्ती-लक्षण युक्त हाथ भी देख लेता है। बच्चे की आकृति राजा दुष्यन्त से मिलती है। राजा उस बालक का वंश पूछता है। तपस्विनी के द्वारा शिशु के वंश का ज्ञान होने पर पुरुवंशी राजा के हृदय में आशा का सञ्चार होता है। तभी दूसरी तपस्विनी बालक के लिये मिट्टी का मोर ले आती है और कहती है "सर्वदमन इस शकुन्त (पक्षी) का सौन्दर्य देख।" बालक को शकुन्त शब्द से माता का भ्रम हो जाता है। वह पूछता है "कहाँ है मेरी माँ ?" इस पर दुष्यन्त सोचता है कि क्या इसकी माता का नाम भी शकुन्तला है ? इतने में बच्चे के हाथ से गिरा हुआ रक्षासूत्र दुष्यन्त उठाने लगता है। तपस्विनी यह कहकर मना करती है कि माता-पिता के अतिरिक्त यह सूत्र उठाने वाले को सर्प बनकर हँस लेता है। परन्तु दुष्यन्त का कुछ भी अमङ्गल नहीं होता। वह मनोरथ पूर्ण होने पर बालक का आलिङ्गन करता है। तभी सूचना पाकर तपस्या के कारण कृश एवं वियोग-विधुरा शकुन्तला आती है। वह राजा को प्रणाम करती है। राजा अपनी विस्मृति के लिये उससे क्षमा-याचना काना है। उसी समय मातलि आता है। शकुन्तला एवं पुत्र सहित राजा मारीच के दर्शन करता है एवं यथोचित आशीष प्राप्त करता है। मारीच योगबल से जान लेते हैं कि दुर्वासा के शाप के कारण ही शकुन्तला को दुष्यन्त ने विस्मृत कर दिया था। वह शाप अँगूठी-दर्शन से समाप्त हो गया और राजा निर्दोष है। मारीच सर्वदमन के भावी सम्राट् होने की बात कहते हैं। मारीच दोनों के सुखद संयोग के समाचार को कण्व तक पहुँचाते हैं। पुत्र-सहित दम्पत्ति को आशीर्वाद देकर विदा करते हैं। भरत-वाक्य के साथ सप्तम अङ्ग समाप्त हो जाता है।

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