अभिज्ञान-शाकुन्तलम् मंगलाचरण व्याख्या टिप्पणी सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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mangalacharan of Abhigyan-shakuntalam
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या सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री

ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् ।

यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः

प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥ १॥

 

अन्वय

 

  या स्त्रष्टुः, आद्या सृष्टिः, या विधिहुतं हविः वहति, या च होत्री, ये द्वे कालं विधत्तः, श्रुतिविषयगुणा या विश्वं व्याप्य स्थिता, यां सर्वबीजप्रकृतिः इति आहुः, यया प्राणिनः प्रणवन्तः, ताभिः प्रत्यक्षाभिः अष्टाभिः तनुभिः प्रपन्नः ईशः वः अवतु ।

 

शब्दार्थ

 

या = जो (जलरूपा मूर्ति)। स्रष्टुः सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा) की, आद्या = प्रथम । सृष्टि = रचना (है) या = जो (अग्निरूपा मूर्ति)। विधिहुतम् = विधिपूर्वक हवन की गयी। हविः = हवि को (आहुति को)। वहति (देवताओं के पास) पहुंचती है। या च = और जो। होत्री = हवनकर्त्री, हवन करने वाली (यजमान रूपा मूर्ति है)। ये = जो। द्वे = दो (सूर्य एवं चन्द्ररूपा मूर्तियाँ)। कालम् =  समय का (दिन एवं रात्रि का)। विधत्तः = विधान करती हैं। श्रुतिविषयगुणा = श्रवणेन्द्रिय (कान) का विषय (अर्थात् शब्द) गुणवाली या जो (अकाश रूपा मूर्ति)। विश्वम् = संसार को। व्याप्य = व्याप्त कर। स्थिता = स्थित (है)। याम् जिसको (पृथ्वी रूपा मूर्ति को)। सर्वबीजप्रकृतिः = समस्त बीजों का कारण। इति ऐसा। आहुः = कहते हैं। यया = जिस (वायु रूपा मूर्ति) के द्वारा। प्राणिनः प्राणी। प्रणवन्तः प्राणों से युक्त (है)। ताभिः = उन । प्रत्यक्षाभिः प्रत्यक्ष। अष्टाभिः आठ। तनुभिः = मूर्तियों से; (देहों से)। प्रपन्नः = युक्त । ईशः = शिव। वः आप लोगों की। अवतु = रक्षा करें।

 

हिन्दी अनुवाद

 

 जो (मूर्ति) सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा) की प्रथम रचना (जलरूप मूर्ति) है। जो (अग्निमयी मूर्ति) विधिपूर्वक हवन की गयी (अग्नि में डाली गयी) हविस् को (देवताओं के पास) ले जाती है और जो हवन करने वाली (अर्थात् यजमानरूप मूर्ति) है, जो दो (सूर्य एवं चन्द्र रूपी मूर्तियाँ) समय (दिन और रात) का विधान (निर्माण) करती हैं, श्रवणेन्द्रिय (कान) के विषयभूत (शब्द रूप) गुणवाली जो (आकाशरूप मूर्ति) संसार को व्याप्त कर स्थित है, जिस (पृथिवीरूप मूर्ति) को (विद्वान्) समस्त बीजों का कारण कहते हैं, (और) जिस (वायुरूप मूर्ति) से प्राणी प्राण वाले (जीवित) हैं-उन प्रत्यक्ष आठ मूर्तियों से युक्त (अष्टमूर्ति) शिव आप लोगों की रक्षा करें।

 

संस्कृत-टीका

 

 या जलरूपा मूर्तिः (अस्ति), स्त्रष्टुः विधातुः, आद्या-प्रथमा, सृष्टिः- रचना, या-अग्निरूपा मूर्तिः, विधिहुतं-शास्त्रोक्तरीत्या वहौ क्षिप्तम् (हवनीकृतम्) हविः हवनीयद्रव्यम्, वहति (देवान्) प्रापयति, याच होत्री हवनकर्ची। (यजमानरूपा मूर्तिः) अस्ति, ये द्वे (सूर्यचन्द्ररूपे) मूर्ती, कालम् होत्रात्मकं समयम्, विधत्तः रचयतः, श्रुतिविषयगुणा-श्रुतेः कर्णस्य विषयः- शब्दो गुणो यस्याः सा श्रुतिविषयगुणा (शब्दगुणा) या (आकाशरूपा मूर्तिः) विश्वम्-जगत् व्याप्य-व्याप्तं कृत्वा, स्थिता विद्यमाना (वर्तते), या (पृथ्वीरूपा मूर्ति), सर्वबीजप्रकृतिः- निखिलधान्यादिकारणम्, इति-एवम्, आहुः कथयन्ति (पण्डित्ता इति शेषः), यया वायुरूपया मूर्त्या, प्राणिनः जीवधारिणः, प्राणवन्तः प्राणधारिणः (सन्ति) ताभिः पूर्वोक्ताभिः, प्रत्यक्षाभिः- दृष्टिगोचराभिः, अष्टाभिः अष्टसंख्याकाभिः। तनुभिः मूर्तिभिः प्रपन्नः समन्वितः, ईशः शिवः, व्रः- युष्मान्, अवतु-रक्षतु ।

 

संस्कृतसरलार्थः

 

  महाकविकालिदासोऽभिज्ञानशाकुन्तलाभिधेयस्य स्वनाटकस्य निर्विघ्नसमाप्त्यर्थमाशीर्वचनरूपं मङ्गलमादी प्रस्तौति- 'भगवतः शङ्करस्याष्टी मूर्तयः सन्ति विधातुः प्रथमा रचना जलरूपा, या शास्त्रोक्तविधिना हुतं हविर्देवान् प्रापयत्ति साऽग्रिरूपा, हवनकर्शी यजमानरूपा, येऽहोरात्ररूपसमयविभाएं कुरुतश्चन्द्ररूपा सूर्यरूपा च, विश्वं व्याप्य स्थिता शब्दगुणाऽऽकाशरूपा, समस्तधान्यादिवीजानां मूलकारणभूता पृथिवीरूपा, यया जीवधारिणः प्राणयुक्ताः सन्ति (सा) वायुरूपा च। एताभिमुर्दृष्टिगोचराभिर्जलाग्रिहोतृचन्द्रसूर्यगगनधरा पवनाख्याभिर्मूर्त्तिभिर्युक्तो महेश्वरो युष्मान् सर्वान् सामाजिकान् रक्षतु अर्थात् युष्माकं समेषामभीष्ट सिद्धिः स्यादिति भावः ।

 

व्याकरण

 

  सृष्टिः- सृज् क्तिन्। स्रष्णुः सृज्-तृच् षष्ठी एक०। आधा-आदी भवा इति आदि-यत्-टाप् । विधिहुतम्-विधिना हुतम् (तृ० तत्पुरुष)। विधिः वि 'धा' कि । हुतम् = हु+क्तः। हविः = हु+इसुन्। होत्री हु+तृच् ङीप् । विधत्तः विधा लट्, प्र०पु०, द्वि० । श्रुतिविषयगुणा-श्रुतेः विषयः गुणः यस्याः सा (तत्पु० बहु०)। श्रुतिः श्रु+क्तिन् । स्थिता = स्था+क्त टाप् । व्याप्य-विआप्ल्यप्। सर्वबीजप्रकृतिः- सर्वेषां बीजानां प्रकृतिः (ष०तत्पु०)। इति के द्वारा कर्म के, उक्त होने से 'प्रकृतिः' में प्रथमा विभक्ति हुयी है। आहुः श्रू (आह) लट्, प्र०पु०/ ब०च० । प्राणवन्तः प्राणः मतुप्, प्र० ब०। प्रपन्नः प्रपद्+क्त। अवतु अब लोट् लकार प्र० पु० ए० ३० ।

 

कोषः

 

 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृड्विधिः' इत्यमरः। 'अथक्कलेवरम्। गात्रं वपुः संहननं शरीरं वर्म विग्रहः । कायो देहः क्लीबपुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनः''शम्भुरीशः पशुपतिः शिवः शूली महेश्वरः' इति चामरः । 'ईशः स्वामिनि रुद्रे च स्यादीशा हलक्ष्ण्डके' इति हैमः।

 

अलङ्कार

 

 'प्राणिनः', 'प्राणवन्तः' में पुनरुक्ति न होने पर भी पुनरुक्ति जैसी प्रतीति होने के कारण 'पुनरुक्तवदाभास' अलङ्कार है। उसका लक्षण है-

आपाततो यर्थस्य पौनरुक्त्येन भासनम् ।

पुनरुक्तवदाभासः स भित्राकारशब्दगः ।

अर्थात् जहाँ विभिन्न स्वरूप के शब्दों में समानार्थकता न होने पर भी समानार्थकता जैसी प्रतीति होती है, वहाँ यह अलङ्कार होता है।

'सृष्टिः स्रष्टुः', 'वहति-हुतम्' 'प्राणिनः प्राणवन्तः' इत्यादि स्थानों में 'छेकानुप्रास' है। छेकानुप्रास का लक्षण है- 'छेको व्यञ्जनसङ्घस्य सकृत् साम्यमनेकधा। अर्थात् जहाँ व्यञ्जन-समूह की एक बार आवृत्ति होती है, वहाँ छेकानुप्रास होता है। श्लोक के उक्त पदों में ष्ट्, हत्, प णू न् आदि व्यञ्जन-समूहों की एक बार आवृत्ति है, अतः छेकानुप्रास है।

श्लोक में वृत्त्यनुप्रास की भी स्थिति है। वृत्त्यनुप्रास का लक्षण है- 'एकस्याप्यसकृत्परः' अर्थात् जहाँ एक व्यञ्जन की या कई व्यञ्जनों की अनेक बार आवृत्ति होती है वहाँ वृत्त्यनुप्रास होता है। पूरे श्लोक में इस अलङ्कार की सत्ता है। यह श्लोक अनुप्रास का उत्तम उदाहरण है।

 

छन्द

 

 इस श्लोक में 'स्रग्धरा' छन्द है। सग्धरा (छन्द) का लक्षण यह है- 'म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्'

 अर्थात् इस छन्द में प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण (ऽऽऽ) रगण (ऽ।ऽ) भगण (ऽ।।) नगण (।।। ) और तीन यगण (।ऽऽ) की स्थिति होती है। इसमें प्रतिचरण २१ वर्ण होते हैं और सात-सात वर्णों पर (तीन) यतियाँ होती है।

 

गुण एवं रीति

 

 यहाँ प्रसाद गुण एवं वैदर्भी रीति है। प्रसाद गुण में सरल-सुबोध पदों (शब्दों) का प्रयोग होता है जिससे काव्यरचना पढ़ते ही सहजतः बोधगम्य हो जाती है। इस गुण की स्थिति सभी रसों एवं रचनाओं में सम्भव है- श्रुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो भवेत् । मतः ।। का०प्र०अ०३० यहाँ वैदर्भी रीति है। इसमें माधुर्य-व्यञ्जक वर्षों का प्रयोग होने से रचना ललित होती है। इस रीति में समस्त पदों की स्वल्पता होती है। समस्त पद होते भी हैं तो वे दीर्घाकार न होकर स्वल्पकाय (छोटे-छोटे) होते हैं-

लक्षण- माधुर्यव्यञ्जकैवर्णै रचना ललितात्मिका ।

अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भीरीतिरिष्यते ।। सम्पूर्ण नाटक में प्रसाद गुण एवं वैदर्भी रीति की छटा है।

 

टिप्पणी

 

 (१) मनुस्मृति 'अप एव ससर्जादी' (९/८) के अनुसार ब्रह्मा ने सर्वप्रथम 'जल' की रचना की थी। अतः वह (जल) विधाता की प्रथम सृष्टि है। तैत्तिरीय एवं शतपथ ब्राह्मण का भी यही मत है- 'आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्' । (२) 'अग्निमुखा वै देवाः' के अनुसार देवताओं का मुख अग्नि है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अग्नि में हवन करने से 'अग्नि' 'हवि' को देवताओं तक पहुँचाती है।

(३) होता (यजमान) यज्ञ करते समय शिव का अंश माना जाता है। हवि देने वाला यजमान शिव का साक्षात् रूप होता है- 'यजमानाह्वया मूर्तिर्विश्वस्य शिवदायिनः'

(४-५) काल अखण्ड (अविभाज्य) है, पर सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा क्रमशः दिन तथा रात्रि के रूप में उसका विभाग होता है। अत एव सूर्य तथा चन्द्रमा काल के कर्ता कहे गये हैं।

(६) शब्द श्रुति (कान) का विषय है- श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यो गुणः शब्दः (तर्कसंग्रहः) और शब्द को आकाश का गुण बताया गया है- 'शब्दगुणकमाकाशम्'

(७) विद्वान् लोग पृथिवी को सम्पूर्ण बीजों का कारण कहते हैं, क्योंकि पृथ्वी से ही सभी प्रकार के बीजों का जन्म होता है। मनुस्मृति में कहा गया है- 'इयं हि भूतिर्भूतानां शाश्वतो योनिरुच्यते ।"

(८) वायु के द्वारा ही प्राणी जीवित रहते हैं। वायु के बिना जीवित रहना असम्भव है। (९) यहाँ प्रत्यक्ष का अर्थ केवल नेत्रगोचर न होकर इन्द्रियगोचर है। यद्यपि वायु तथा आकाश का नेत्र से ग्रहण नहीं होता तथापि वायु का ग्रहण त्वचा से तथा आकाश के गुण 'शब्द' का ग्रहण कान से होता है। अतः वायु और आकाश भी इन्द्रियगोचर होने से प्रत्यक्ष है।

(१०) शिव के आठ रूप (मूर्ति) माने गये हैं, जैसा कि विष्णुपुराण में भी कहा गया है- जलं वह्निस्तथा यष्टा सूर्याचन्द्रमसौ तथा। आकाशं वायुरवनी मूर्तयोऽष्टौ पिनाकिनः ।।

कालिदास के इष्ट देव शिव हैं जिनकी स्तुति उन्होंने 'रघुवंश' के मङ्गलाचरण 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी' और 'विक्रमोर्वशीयम्' के मङ्गलाचरण 'स स्थाणुः स्थिरभक्तियोग- सुलभो निःश्रेयसायास्तु वः' में भी की है।

भविष्यपुराण में शिव की आठ मूर्तियों का वर्णन इस प्रकार है- (१) शर्वाय क्षितिमूर्तये नमः (२) भवाय जलमूर्तये नमः (३) रुद्राय अग्निमूर्तये नमः (४) उग्राय वायुमूर्तये नमः (५) भीमायाकाशमूर्तये नमः (६) पशुपतये यजमानमूर्तये नमः (७) महादेवाय सोममूर्तये नमः (८) ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः । मूर्तयोऽष्टौ शिवस्यैताः ।

विशेषः- श्लोक का मुख्य वाक्य है- 'ताभिः प्रत्यक्षाभिः अष्टाभिः तनुभिः प्रपन्नः ईशः वः अवतु।' यह मुख्य वाक्य चतुर्थ चरण में है। शेष तीन चरणों (प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय) में ईश (शिव) की आठ प्रत्यक्ष मूर्तियों (तनु) का व्याख्यान है।

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