ऐसा पुण्यफल है विष्णु मंदिर में घी के दीपक जलाने तथा रक्षा करने का..

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
By -
Raksha Deep
Raksha Deep


 सतयुग की बात है। एक समय में भद्राश्व नामक महान राजा हुआ करते थे. भद्राश्व इतने शक्तिशाली राजा थे कि उनके नाम पर भद्राश्ववर्ष पड़ा। एक बार उनके राज्य में अगस्त्य मुनि पहुंचे । वे राजमहल में भी पधारे। राजा ने खूब आवभगत की।

अगस्त्य बोले- भद्राश्व मैं तुम्हारे वहां सात दिन रुकूंगा। राजा ने उनके ठहरने का विधिवत प्रबंध किया और अपने सेवकों इत्यादि को उनकी सेवा में लगा दिया। उन्होंने अपनी रानियों से उनके दर्शन लाभ लेने को कहा ।

  राजा भद्राश्व की रानी कांतिमती अत्यंत सुंदरी थी। कहते हैं उसके चेहरे की चमक बारह सूर्यों के समान चौंधिया देने वाली थी। रानी कांतिमति के अलावा राजा के रनिवास में पचास हजार अन्य रानियां भी थी पर कांतिमती की कोई बराबरी नहीं थी।

  पहले ही दिन रानी कांतिमती मुनि अगस्त्य के दर्शन के लिये आयी। अगस्त्य मुनि ने कांतिमति को देखा तो देखते रह गये। उन्होंने कहा-कहा राजा तू बड़ा ही भाग्यवान है, तू धन्य है।

दूसरे दिन कांतिमती फिर आयी तो उसे देखकर अगस्त्य बोले- ओह, सारा संसार वंचित रह गया।

तीसरे दिन कहा- ये लोग तो उस गोविंद की माया को भी नहीं जानते जिसने एक दिन की प्रसन्नता में इन्हें क्या कुछ नहीं दे दिया।

चौथे दिन जब कांतिमती मुनि दर्शन के लिये पहुंची तो वे अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर बोले- हे जगन्नाथ आप धन्य हैं। आपकी लीला महान है।

इसी तरह पांचवें दिन बोले- भद्राश्व तुम्हें बहुत बहुत धन्यवाद, हे अगस्त्य तू धन्य हुआ।

इसी तरह छठे दिन भी उन्होंने कांतिमती को देख कर प्रशंसात्मक टिप्पणियां की।

सातवें दिन तो गज़ब ही हो गया। वे बोले कि राजा ही नहीं उसकी रानी, सेवक सभी मूर्ख हैं जो मेरी बात नहीं समझते।

इतना कहने के बाद वे उठे और सबके बीच, राजा भद्राश्व के सामने ही भाव विभोर हो नाचने लगे।

सात दिनों तक रानी के जाने पर उसकी प्रशंसा और अब यह सभी उपस्थित लोगों के सामने ही धीर गंभीर रहने वाले मुनि का नृत्य।

कुछ देर तो राजा अचरज में रहा फिर उसने विनम्रता से हाथ जोड़कर अगस्त्य मुनि से इसका कारण पूछा।

राजा के आश्चर्य और प्रश्न के उत्तर में मुनि ने कहा- राजन आप पूर्वजन्म में हरिदत्त नामक एक धनवान पर धर्म कर्म में विश्वास रखने वाले वैश्य के दास थे।

उसकी सेवा सुरक्षा आपका काम था। यह कांतिमती तब भी आपकी पत्नी थी। कांतिमती भी वैश्य के यहां दासी का काम करते थी। 

एक बार वैश्य ने फैसला किया कि वह अश्विन मास की द्वादशी का व्रत रख कर भगवान विष्णु के मंदिर में विधिवत पूजा करेगा।

समय आने पर वैश्य ने सारी तैयारियां कर मंदिर के लिये प्रस्थान किया।

तुम दोनों उसके भरोसेमंद नौकर थे सो इसलिये उसने न सिर्फ तुम दोनों को अपने साथ लिया बल्कि पूजा प्रबंध में भी साथ रखा।

जब पूजा समाप्त हो गयी और शाम को वैश्य घर लौटने लगा तो उसने तुम दोनों को जिम्मेदारी दी की तुम लोग भगवान विष्णु के आगे जलाये दीपक को बुझने न दोगे।

तुम दोनों पति पत्नी ने रात भर दीपक के सामने बैठ कर काटा। दीपक को एक क्षण के लिये भी बुझने न दिया।

जब तक पूरी तरह सवेरा न हुआ, न उठे। तुम दोनों ने रक्षपाल की भूमिका बहुत ध्यानपूर्वक निभाया

बहुत काल बाद उम्र पूरी होने पर तुम दोनों थोड़े से ही अंतराल पर मृत्य को प्राप्त हुए।

राजा तुम तो महान राजा प्रियव्रत के वहां पैदा हुये, राजकुमार बने और उस जन्म में दासी रही यह कांतिमती भी उस पुण्य के प्रताप से आज तुम्हारी रानी है।

वह दीपक तो वैश्य का था, उसके यत्न और धन से जला था, तुमने तो बस उसको जलते रहने की देखरेख ही की थी।

यदि केवल इतने से ही का पुण्य प्रताप यह फल दे सकता है तो जो विष्णु मंदिर में स्वयं दीपक जलाएंगे उनको कितना पुण्य मिलेगा।

इसीलिये मैंने कहा था कि सब संसार इससे वंचित रह गया, सबको मूर्ख मैंने इसलिये कहा कि सब कुछ को देखते हुए भगवान विष्णु के दीपदान के महत्व को लोग नहीं जानते।

अपने को धन्यवाद इसलिये दिया कि मुझे सब कार्यों में महज श्रीविष्णु ही सूझते हैं और तुम्हें और कांतिमती को धन्य इसलिये कहा कि तुमने दूसरे के जलाये दीप की रक्षा भी इस तरह मन लगा कर किया।

राजा भद्राश्व अगस्त्य का उत्तर सुन कर संतुष्ट हुए और उन्होंने अगस्त्य् मुनि का धन्यवाद देते हुए कहा..मुनिवर कुछ दिन और रुकें और हमें उपदेश दे कर जायें।

अगस्त्य मुनि ने भद्राश्व को शीघ्र ही योग्य पुत्र का पिता बनने का आशीर्वाद दिया और कहा कि कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर मुझे पुष्कर में उपस्थित होना है इसलिये अब मैं वहाँ के लिये प्रस्थान करूंगा।

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