विष्कम्भक

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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विष्कम्भक 

 रूपक (नाटक) की सूच्य कथावस्तु की सूचना देने के लिये नाट्यशास्त्रादि ग्रन्थों में पाँच प्रकार के अर्थोपक्षकों का उल्लेख किया गया है जिनमें विष्कम्भक भी है। विष्कम्भक की व्युत्पत्ति है - विष्कम्भ्नाति = नियोजयति पूर्वापरं कथाभागं यः सः (विष्कम्भः) विष्कम्भकः अर्थात् पूर्वापर कथाभाग को जोड़ने वाला 'विष्कम्भक' कहलाता है। इस व्युत्पत्ति से यह स्पष्ट है कि 'विष्कम्भक' कथावस्तु की पूर्वापर वस्तु जोड़ने के लिये आवश्यक है। दशरूपक में विष्कम्भक का लक्षण निम्नाङ्कित है-

वृत्तवर्तिष्यमाणानां    कथांशानां निदर्शकः । 

 संक्षिप्तार्थस्तु विष्कम्भ आदावङ्कस्य दर्शितः ।। 

मध्येन मध्यमाभ्यां वा पात्राम्यां संप्रयोजितः। 

  शुद्धः स्यात् स तु सङ्कीर्णो नीचमध्यमकल्पितः।।

 इस लक्षण के अनुसार 'विष्कम्भक' भूतकाल में घटित और भविष्यकाल में घटित होने वाली घटनाओं का सूचक है। वह संक्षिप्त होता है तथा अङ्क के आदि में प्रयुक्त होता है। वह दो प्रकार का होता है- (१) शुद्ध, (२) मिश्र। जिस 'विष्कम्भक' में मध्यम कोटि के एक या दो पात्र होते है उसे शुद्ध 'विष्कम्भक' तथा जिसमें मध्यम तथा निम्नकोटि के पात्रों का मिश्रण होता है उसे 'सङ्कीर्ण विष्कम्भक' कहा जाता है। कुछ आचार्यों के मत से संस्कृत भाषा का प्रयोग होने पर शुद्ध 'विष्कम्भक' है। कण्वशिष्य मध्यमकोटि का संस्कृतभाषी पात्र है। इसमें दुष्यन्त के द्वारा तपस्वियों की निर्विघ्न यज्ञसम्पन्नता - इस भूतकालिक और शकुन्तला के धूप से सन्तप्त होने के कारण उसके होने वाले उपचाररूप भावी घटना की सूचना है।

 यहाँ ध्येय है कि नाट्यशास्त्रीय विधानुसार वध, युद्ध आदि का रङ्गमञ्च पर प्रदर्शन निषिद्ध है। ऐसी वस्तुओं (घटनाओं) की सूचना विष्कम्भक आदि के द्वारा दी जाती है।

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