ध्वनि प्रवेश

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भगवान शिव कहते है:- ‘’कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करो, और ध्‍वनि में प्रवेश करो। 

   हम नहीं जानते कि शरीर कैसे काम करता है और उसका ढंग क्‍या है। लेकिन अगर निरीक्षण करो , तो आसानी से उसे जान सकते हो। अगर तुम अपने कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की और सिकोड़ो तो तुम्‍हारे लिए सब कुछ ठहर जायेगा। 

  ऐसा लगेगा कि सारा संसार रूक गया है। गतिविधियां ही नहीं, तुम्‍हें लगेगा कि समय भी ठहर गया है। दोनों कान बंद कर लिए जाएं तो बंद कानों से तुम अपने भीतर एक ध्‍वनि सुनोंगे। लेकिन अगर गुदा को नहीं सिकुड़ा जाए तो वह ध्‍वनि गुदा-मार्ग से बाहर निकल जाती है। 

  वह ध्‍वनि बहुत सूक्ष्म ,और वह ध्‍वनि मौन की ध्‍वनि होगी। जब सब ध्‍वनियां समाप्‍त हो जाती है। तब तुम्‍हें मौन की ध्‍वनि या निर्ध्‍वनि का एहसास होता है। लेकिन वह निर्ध्‍वनि गुदा से बाहर निकल जाती है। इसलिए कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो। 

  तब शरीर दोनों ओर से बंद हो जाता है और ध्‍वनि से भर जाता है। ध्‍वनि से भरने का यह भाव गहन संतोष को जन्‍म देता है। इस संबंध में बहुत सी चीजें तुम तभी समझ सकोगे जब घटित होगा। हम अपने शरीर से परिचित नहीं है और साधक के लिए यह एक बुनियादी समस्‍या है। और समाज शरीर से परिचय के विरोध में है। 

  क्‍योंकि समाज शरीर से भयभीत है। हम हरेक बच्‍चे को शरीर से अपरिचित रहने की शिक्षा देते है। हम उसे संवेदन शून्य बना देते है। हम बच्‍चे के मन और शरीर के बीच एक दूरी पैदा कर देते है। ताकि वह अपने शरीर से ठीक से परिचित न हो जाए।

  क्‍योंकि शरीर बोध समाज के लिए समस्‍या पैदा करेगा। जब शरीर रूग्‍ण होता है तो ही उसका पता चलता है। सिर में दर्द होता है तो तुम्‍हें सिर का पता चलता है। जब पाँव में कांटा गड़ता है तो पाँव का पता चलता है। और जब शरीर में दर्द होता है तो तुम जानते हो कि मेरा शरीर भी है।

  यही कारण है कि कोई भी व्‍यक्‍ति समय रहते डाक्‍टर के पास नहीं पहुंचता है। वह देर कर के पहुंचता है। तंत्र गहन संवेदन शीलता और शरीर के बोध में भरोसा करता है। तुम अपने काम में लगे हो और तुम्‍हारा शरीर बहुत कुछ कर रहा है, जिसका तुम्‍हें कोई बोध नहीं है। 

  अब तो शरीर की भाषा पर बहुत काम हो रहा है । मनोचिकित्सकों को शरीर की भाषा का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। वे कहते है कि मनुष्‍य जो कहता है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उससे अच्‍छा है, शरीर का निरीक्षण करना क्‍योंकि शरीर उसके बारे में ज्‍यादा खबर रखता है।

  शरीर और मन के बीच बहुत गहरा संबंध दिखाई दिया है। यदि कोई भयभीत है तो उसका पेट कोमल नहीं होगा ;वह पत्‍थर जैसा होगा। और अगर वह निडर हो जाए तो उसका पेट छूने पर तुरंत शिथिल हो जाएगा।अगर पेट को शिथिल कर लो तो भय चला जाएगा। 

  पेट पर थोड़ी मालिश करो और तुम देखोगें कि डर कम हो गया। निर्भयता आई। जो व्‍यक्‍ति प्रेमपूर्ण है ;उसके शरीर का गुण धर्म और होगा। उसके शरीर में उष्‍णता होगी,और जो व्‍यक्‍ति प्रेम पूर्ण नहीं होगा उसका शरीर ठंडा होगा। यही ठंडापन तुम्‍हारे शरीर में प्रविष्‍ट हुआ है। और वे ही बाधाएं बन गई है। अगर क्रोध को दबाते हो तो तुम्‍हारे हाथों में, तुम्‍हारी अंगुलियों में दमित क्रोध की उतैजना होगी। और जो जानता है वह तुम्‍हारे हाथों को छूकर बता देगा कि तुमने क्रोध को दबाया है। तंत्र को पहले से इस बात का बोध था।

  सबसे पहले तंत्र को ही शरीर के तल पर ऐसी गहरी संवेदनशीलता का पता चला था। और तंत्र कहता है कि अगर तुम सचेतन रूप से अपने शरीर का उपयोग कर सको तो शरीर ही आत्‍मा में प्रवेश का साधन बन जाता है। तंत्र कहता है कि शरीर का विरोध करना मूढ़ता है। 

  शरीर का उपयोग करो, शरीर माध्‍यम है। और इसकी उर्जा का उपयोग इस भांति करो कि तुम इसका अतिक्रमण कर सको। अब कानों का दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करों।'' तुम अपने गुदा को अनेक बार सिकोड़ते रहे हो, और कभी-कभी तो गुदा-मार्ग अनायास भी खुल जाता है। 

  अगर अचानक कोई भय पकड़ जाये, तो तुम्‍हारा गुदा मार्ग खुल जाता है। भय के कारण अचानक मलमूत्र निकल जाता है। ऐसा क्यों होता है? भय तो मानसिक चीज है, फिर भय में पेशाब क्‍यों निकल जाता है। क्‍या नियंत्रण जाता रहता है?

  जब तुम निर्भय होते हो तो ऐसा कभी नहीं होता असल में बच्‍चे का अपने शरीर पर कोई मानसिक नियंत्रण नहीं होता। कोई पशु अपने मल मूत्र का नियंत्रण नहीं कर सकता है। जब मलमूत्र भर जाता है, वह स्वयं ही खाली हो जाता है। पशु उस पर नियंत्रण नहीं करता है। 

  लेकिन मनुष्‍य को आवश्‍यकता वश उस पर नियंत्रण करना पड़ता है। हम बच्‍चे को सिखाते है कि कब उसे मल-मूत्र त्‍याग करना चाहिए। हम उसके लिए समय बाँध देते है। इस तरह मन एक ऐसे काम को अपने हाथ में ले लेता है। जो स्‍वैच्‍छिक नहीं है। 

  मनोवैज्ञानिक कहते है कि अगर मलमूत्र विसर्जन का प्रशिक्षण बंद कर दिया जाए तो मनुष्य की हालत बहुत सुधर जाएगी। उसकी स्‍वाभाविकता का, सहजता का पहला दमन मलमूत्र-विसर्जन के प्रशिक्षण में होता है। लेकिन इनकी बात मानना कठिन मालूम पड़ता है। 

  क्‍योंकि तब बच्‍चे बहुत सी समस्‍याएं खड़ी कर देंगे। केवल समृद्ध समाज, अत्‍यंत समृद्ध समाज ही इस प्रशिक्षण के बिना काम चला सकता है। गरीब समाज को इसकी चिंता लेनी ही पड़ेगी। और यह हमारे लिए बहुत खर्चीला पड़ेगा। तो प्रशिक्षण जरूरी हे। 

और यह प्रशिक्षण मानसिक है, शरीर में इसकी कोई अंतर्निहित व्‍यवस्‍था नहीं है। ऐसी कोई शरीर गत व्‍यवस्‍था नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है। मनुष्‍य पशु ही है। और शरीर को, समाज से कुछ लेना देना नहीं है। यही कारण जब तुम्‍हें भय पकड़ता तो यह नियंत्रण जाता रहता है। 

 जो शरीर पर लादी गई है, ढीली पड़ जाती है। तुम्‍हारे हाथ से नियंत्रण जाता रहता है। सिर्फ सामान्‍य हालातों में यह नियंत्रण संभव है। असामान्‍य हालातों में तुम नियंत्रण नहीं रख सकते हो। आपात स्‍थितियों के लिए तुम्‍हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है। 

  सामान्‍य दिन-चर्या के कामों के लिए ही प्रशिक्षित किया गया है। आपात स्‍थिति में यह नियंत्रण विदा हो जाता है, तब तुम्‍हारा शरीर अपने पाशविक ढंग से काम करने लगता है। लेकिन इसमें एक बात समझी जा सकती है कि निर्भीक व्‍यक्‍ति के साथ ऐसा कभी नहीं होता। 

  अगर डर के कारण तुम्‍हारा मल-मूत्र निकल जाता है; तो उसका मतलब है कि तुम कायर हो। निडर आदमी के साथ ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योकि निडर आदमी गहरी श्‍वास लेता है।उसके शरीर और श्‍वास प्रश्‍वास के बीच एक तालमेल है, उनमें कोई अंतराल नहीं है। 

  कायर व्‍यक्‍ति के शरीर और श्‍वास प्रश्‍वास के बीच एक अंतराल होता है। और इसके कारण वह सदा मल-मूत्र से भरा होता है। इसलिए जब आपात स्‍थिति पैदा होती है तो उसका मल-मूत्र बाहर निकल जाता है।और इसका एक प्राकृतिक करण यह भी है । 

  तुम्‍हें अपने मन और पेट की प्रक्रियाओं से परिचित होना चाहिए। मन और पेट में गहरा अंतर् संबंध है। मनोचिकित्सक कहते है कि तुम्‍हारे पचास से नब्‍बे प्रतिशत सपने पेट की प्रक्रियाओं के कारण घटते है। अगर तुमने ठूस-ठूस कर खाया है, तो तुम दुःख स्‍वप्‍न देखे बिना नहीं रह सकते। ये दुःख स्‍वप्‍न मन से नहीं, पेट से आते है।

  बहुत से सपने बाहरी आयोजन के द्वारा पैदा किए जा सकते है। अगर तुम नींद में हो और तुम्‍हारे हाथों को मोड़कर सीने पर रख दिया जाए तो तुम तुरंत दुःख स्‍वप्‍न देखने लगोगे। अगर तुम्‍हारी छाती पर सिर्फ एक तकिया रख दिया जाए तो तुम सपना देखोगें। लेकिन क्‍या बात है कि नींद में छाती पर रखा गया एक छोटा सा तकिया भी चट्टान की तरह भारी मालूम पड़ता है। इतना भार क्‍यों मालूम पड़ता ,कारण यह है कि जब तुम जागे हुए हो तो तुम्‍हारे शरीर और मन के बीच तालमेल नहीं रहता है, उनमें एक अंतराल रहता है। 

  नींद में नियंत्रण , संस्‍कार, सब विसर्जित हो जाते है और तुम फिर से बच्‍चे जैसे हो जाते हो और तुम्‍हारा शरीर संवेदनशील हो जाता है। उसी संवेदन शीलता के कारण तकिया भी चट्टान जैसा भारी मालूम पड़ता है। संवेदन शीलता के कारण भार अतिशय हो जाता है। 

 अनंत गुना हो जाता है। तो मन और शरीर की प्रक्रियाएं आपस में बहुत जुड़ी हुई है। और यदि तुम्‍हें इसकी जानकारी हो तो तुम इसका उपयोग कर सकते हो। गुदा को बंद करने से, ऊपर खींचने से, सिकोड़ने से शरीर में ऐसी स्‍थिति बनती है।

  जिसमें ध्‍वनि सुनी जा सकती है। तुम्‍हें अपने शरीर के बंद घेरे में, मौन में, ध्‍वनि का स्‍तंभ सा अनुभव होगा। कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की और सिकोड़ लो और फिर अपने-आप जो भी हो रहा हो उसके साथ रहो।कान और गुदा को बंद करने से जो रिक्‍त स्‍थिति बनी है ।

  उसके साथ बस रहो। ध्‍वनि तुम्‍हारे कानों के मार्ग से या गुदा के मार्ग से बाहर जाती है। उसके बाहर जाने के ये ही दो मार्ग है। इसलिए अगर उनका बाहर जाना न हो तो तुम उसे आसानी से महसूस कर सकते हो।और इस आंतरिक ध्‍वनि को अनुभव करने से क्‍या होता है। 

  इस आंतरिक ध्‍वनि को सुनने के साथ ही तुम्‍हारे विचार विलीन हो जाते है। दिन में किसी भी समय यह प्रयोग करो: गुदा को ऊपर खींचो और कानों को अंगुलि से बंद कर लो। कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो, तब तुम्‍हें एहसास होगा कि मेरा मन ठहर गया है। 

  और विचार भी ठहर गए है। मन में विचारों का जो सतत प्रवाह चलता है, वह विदा हो गया है। यह शुभ है।और जब भी समय मिले इसका प्रयोग करते रहो।तब बाजार के शोरगुल में भी, सड़क के शोरगुल में भी यदि तुमने उस ध्‍वनि को सुना है वह तुम्‍हारे साथ रहेगी। और फिर तुम्‍हें कोई भी उपद्रव अशांत नहीं करेगा। अगर तुमने यह अंतर् ध्वनि सुन ली तो बाहर की कोई चीज तुम्‍हें विचलित नहीं कर सकती है। तब तुम शांत रहोगे। जो भी आस-पास घटेगा उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।


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