नैमिषारण्य में सूत जी, सूत जी का जीवन परिचय, सूत जी कौन हैं ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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सूत जी नैमिषारण्य में
सूत जी नैमिषारण्य में


  यदि आपने हिन्दू धर्म के किसी भी धर्मग्रन्थ या व्रत कथाओं को पढ़ा है तो आपके सामने पौराणिक "सूत जी" का नाम अवश्य आया होगा। कारण ये है कि सूत जी कदाचित हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्ध वक्ता हैं। कारण ये कि पुराणों की कथा का प्रसार जिस स्तर पर उन्होंने किया है वैसा किसी और ने नहीं किया। किन्तु ये "सूत जी" वास्तव में हैं कौन ?

  सूत जी का वास्तविक नाम "रोमहर्षण" था। उनका रोमहर्षण नाम इसीलिए पड़ा क्यूंकि उनका सत्संग पाकर श्रोताओं का रोम-रोम हर्ष से भर जाता था। उन्हें सूत जी इसीलिए कहते हैं क्यूंकि वे सूत समुदाय से थे। उनकी माता ब्राह्मणी और पिता क्षत्रिय थे जिस कारण वे सूत के रूप में जन्में। हालाँकि पुराणों की एक अन्य कथा के अनुसार उनका जन्म यज्ञ की अग्नि से हुआ था।

  एक बार सम्राट पृथु ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया जिसके अंत में सभी देवताओं को हविष्य दिया जा रहा था। ब्राह्मणों ने भूल से देवराज इंद्र को अर्पित किये जाने वाले सोमरस में देवगुरु बृहस्पति के हविष्य का अंश मिला दिया। जब उस हविष्य को अग्नि में डाला गया तो उसी से रोमहर्षण की उत्पत्ति हुई। चूँकि उनका जन्म इंद्र (क्षत्रिय गुण) और बृहस्पति (ब्राह्मण गुण) के मेल से हुआ था, इसलिए उन्हें "सूत" माना गया।

  जब महर्षि वेदव्यास ने महापुराणों की रचना की तो उनके मन में चिंता हुई कि इस ज्ञान को कैसे सहेजा जाये। उनके कई शिष्य थे किन्तु कोई भी उन सभी १८ पुराणों को सम्पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं कर पाए। जब सूत जी किशोरावस्था में पहुंचे तो एक योग्य गुरु की खोज करते हुए महर्षि वेदव्यास के पास पहुंचे। आज ये माना जाता है कि सूत कुल के व्यक्ति को वेदाभ्यास का अधिकार नहीं था, ये बिलकुल गलत है। क्यूंकि महर्षि वेदव्यास ने रोमहर्षण को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया।

  उनके आश्रम में सूत जी की विशेष रूप से वेदव्यास के एक अन्य शिष्य शौनक ऋषि से घनिष्ठ मित्रता हो गयी। ये दोनों महर्षि व्यास के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक माने जाते हैं। रोमहर्षण ने अपनी प्रतिभा से व्यास रचित सभी १८ महापुराणों को कंठस्थ कर लिया। ये देख कर व्यास मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने रोमहर्षण से उस अथाह ज्ञान का प्रसार करने को कहा।

 तत्पश्चात् रोमहर्षण ने अपने गुरु महर्षि व्यास से अपने पुत्र उग्रश्रवा को उनका शिष्य बनाने का अनुरोध किया। उग्रश्रवा अपने पिता के समान ही तेजस्वी थे जिसे देख कर व्यास जी ने उन्हें भी अपना शिष्य बना लिया। रोमहर्षण सभी वेद पुराणों का अध्ययन तो कर ही चुके थे, वे और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमपिता ब्रह्मा की तपस्या की। ब्रह्मदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया।

  रोमहर्षण ने उनसे पूछा कि मुझे अपने गुरु से सभी पुराणों का ज्ञान प्राप्त हुआ है और आपने भी मुझे अलौकिक ज्ञान प्रदान किया है। अब मैं किस प्रकार इस ज्ञान का प्रसार करूँ? इस पर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक दिव्य चक्र दिया और कहा कि इसे चलाओ और जिस स्थान पर ये रुक जाये वही अपना आश्रम स्थापित कर इस ज्ञान का प्रसार करो।

  ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर रोमहर्षण ने उस चक्र को चलाया और वो जाकर "नैमिषारण्य" नामक स्थान पर रुक गया जो ८८००० तपस्वियों का स्थल था। इसी स्थल पर भगवान विष्णु ने निमिष (आंख झपकने में लगने वाला समय) भर में सहस्त्रों दैत्यों का संहार कर दिया था। इसी कारण उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ा। उसी पवित्र तीर्थ में रोमहर्ष ने अपना आश्रम स्थापित किया और प्रतिदिन सत्संग करने लगे।

  कहा जाता है कि उनकी कथा कहने की शैली इतनी रोचक थी कि मनुष्य तो मनुष्य, जीव-जंतु भी उसे सुनने के लिए वहां आ जाते थे। उसी स्थान पर वे "सूत जी" के नाम से प्रसिद्ध हुए। उधर उनके पुत्र उग्रश्रवा भी महर्षि व्यास से शिक्षा लेकर पारंगत हो गए। उन्होंने अपने पिता से भी अधिक शीघ्रता से समस्त पुराणों का अध्ययन कर लिया और वे अपने पिता की भांति ही उस ज्ञान का प्रसार करने लगे।

  एक बार नैमिषारण्य के सभी ८८००० ऋषियों ने महर्षि व्यास से ये अनुरोध किया कि वे उन्हें सभी महापुराणों की सम्पूर्ण कथाओं से अवगत कराएं। ये सुनकर महर्षि व्यास ने कहा कि इसके लिए आपको मेरी क्या आवश्यकता है? नैमिषारण्य में मेरे शिष्य रोमहर्षण हैं जो इन सभी कथाओं को सुना सकते है। आप सभी उन्हें "व्यास पद" पर आसीन कर पुराणों का ज्ञान प्राप्त करें। इस पर ऋषियों ने पूछा कि एक सूत को व्यास पद पर कैसे बिठाया जा सकता है? ये सुनकर महर्षि ने सभी को तत्वज्ञान दिया और बताया कि योग्यता जन्म से नहीं बल्कि कर्म से आती है।

  ये सुनकर सभी ८८००० ऋषि नैमिषारण्य लौटे और सूत जी को व्यास गद्दी पर बिठा कर पुराणों का ज्ञान देने का अनुरोध किया। इसपर सूत जी ने १२ वर्षों का विशाल यज्ञ सत्र आयोजित किया जिसे सुनने उनके बाल सखा शौनक जी भी पधारे और यजमान का पद ग्रहण किया। सभी ऋषि शौनक जी के नेतृत्व पर उनसे प्रश्न करते थे और सूत जी उत्तर देते थे। ऐसा कहते हुए बहुत समय बीत गया और सूत जी ने १० पुराणों की कथा समाप्त कर ११वां पुराण आरम्भ किया।

  उधर महाभारत का युद्ध का समाचार सुनकर भगवान बलराम तीर्थ यात्रा पर निकले। घूमते हुए वे नैमिषारण्य पहुंचे जहाँ सूत जी का यज्ञ सत्र चल रहा था। जैसे ही सभी ऋषियों ने बलराम जी को देखा तो सभी अपने स्थान पर खड़े होकर उनका अभिवादन करने लगे और उन्हें आसन दिया। किन्तु सूत जी व्यास गद्दी पर बैठे होने के कारण ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के सम्मान में खड़े नहीं सकते थे। उन्होंने बलराम के आने पर थोड़ी देर के लिए कथा को भी विश्राम दिया।

  जब बलराम ने ये देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सोचा कि इतने बड़े-बड़े महर्षियों ने यहाँ मेरा स्वागत किया किन्तु सूत कुल में जन्मे इस व्यक्ति ने मेरा अपमान किया। यही सोच कर उन्होंने बैठे बैठे ही एक घास को मंत्रसिद्ध कर सूत जी पर चलाया जिससे उनका मस्तक धड़ से अलग हो गया। इस प्रकार सूत जी का वध होते देख कर सारी सभा त्राहि-त्राहि कर उठी। भयानक कोलाहल मच गया।

  सभी ऋषि शौनक जी के नेतृत्व में बलराम के पास पहुंचे और उनसे कहा कि आपने ये क्या किया? हम सभी ने महर्षि व्यास के आदेशानुसार सूत जी को व्यास पद प्रदान किया था किन्तु आपने बिना सत्य जाने उनका वध कर दिया। अब तो आप पर ब्रह्महत्या का पाप लग गया है। उससे अधिक हानि हमारी हुई क्यूंकि सूत जी ने अभी तक पुराणों की कथा सम्पूर्ण नहीं की थी। अब ये ज्ञान सदा के लिए लुप्त हो जाएगा।

  जब बलराम जी को सत्य का पता चला तो वे अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने महर्षि शौनक के चरण पकड़ कर कहा कि अनजाने में मुझसे बड़ा पाप हो गया। आप मुझे इसका प्रायश्चित बताएं। किस प्रकार मैं उनके द्वारा दिए गए इस अधूरे ज्ञान को पूर्ण करूँ?

  इस पर शौनक जी ने कहा कि आप सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा को यहाँ बुलाइये क्यूंकि व्यास जी के अतिरिक्त अब एक वे ही है जिनके पास समस्त पुराणों का ज्ञान है। ये सुनकर बलराम तत्काल शौनक जी के साथ उग्रश्रवा ऋषि के पास पहुंचे और उनसे क्षमा याचना की। वे उन्हें मना कर नैमिषारण्य ले आये जहाँ उग्रश्रवा जी ने बांकी ८ पुराणों की कथा सुनाने का वचन दिया। बलराम को इससे थोड़ा संतोष हुआ।

  उन्होंने पुनः प्रायश्चित के लिए निकलने से पहले सभी ऋषियों से पूछा कि मुझे बताइये कि मैं प्रायश्चित के लिए निकलने से पहले आपका और क्या हित करूँ? तब सभी ऋषियों ने कहा कि हे बलराम इस वन में "बल्वल" नामक एक असुर है जो इल्वल का पुत्र है। वो सदैव हमारे यज्ञ में विघ्न डालता है और यज्ञ कुंड में अपशिष्ट पदार्थ डाल देता है। कृपया उससे हमारी रक्षा करें।

  ऋषियों का ऐसा अनुरोध सुनकर बलराम जी ने बल्वल ये युद्ध कर सहज ही उसका वध कर दिया और नैमिषारण्य को राक्षसों के आतंक से मुक्त किया। तत्पश्चात वे प्रायश्चित के लिए तीर्थ यात्रा पर निकल गए। तब सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा ने अपने पिता का सत्संग आगे बढ़ाया और बचे हुए ८ महापुराणों के ज्ञान से समस्त ऋषियों को परिपूर्ण कर दिया।

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