अभिज्ञान-शाकुन्तलम् चतुर्थ अङ्क (विष्कम्भक समाप्ति तक)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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mahakavi shri Kalidas Praneetam  Abhigyanshakuntalam chaturth Ank
mahakavi shri Kalidas Praneetam 
Abhigyanshakuntalam
chaturth Ank


 (ततः प्रविशतः कुसुमावचयं नाटयन्त्यौ सख्यौ)

 व्या० एवं श०- कुसुमावचयम् कुसुमानामवचयम् (अव+चि+अच्) फूलों का चुनना। व्याकरण की दृष्टि से 'अवचय' यह पद अशुद्ध है। यहाँ 'हस्तादाने चेरस्तेथे' सूत्र से 'चिं' धातु से 'घञ्' होकर 'अवचाय' बनता है। कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्र' में भी 'कुसुमावचयव्यग्रहस्ता' यह प्रयोग किया है। नाटयन्त्यौ अभिनयन्त्यौ अभिनय करती हुयी।

हिन्दी अनुवाद -  तत्पश्चात् फूल चुनने का अभिनय करती हुयी दोनों सखियाँ प्रवेश करती हैं)।

अनसूया-हला प्रियंवदे, यद्यपि गान्धर्वेण विधिना निर्वृत्तकल्याणा शकुन्तलाऽ नुरूप भर्तृगामिनी संवृत्तेति निर्वृतं मे हृदयम् तथाप्येतावच्चिन्तनीयम् । (हला पिअंवदे, जइ वि गन्धव्वेण विहिणा णिव्वुत्तकल्लाणा सउन्दला अणुरूवभत्तुगामिणी संवुत्तेति णिव्वुदं में हिअअं। तह वि एतिअं चिन्तणिज्जं ।)

व्या० एवं श० - 'गान्धर्वेण विवाहेन' द्रष्टव्य तृ०अं० के श्लो० २० की टिप्पणी । निर्वृत्तकल्याणा - निर्वृत्तं (निर्वृत्+क्त) निष्पन्नं कल्याणं मङ्गलं (मनोरथ-सिद्धिः) यस्याः सा (ब०ब्री०) = सम्पन्न हो गया है विवाहरूप मङ्गल (मनोरथ-सिद्धि) जिसका ऐसी। यह पद 'शकुन्तला' इस पद का विशेषण है। अनुरूपभर्तृगामिनी अनुरूपं योग्यं'पतिं गच्छति (या) सा (अनुरूप भर्तृ+गम+णिनि ङीप्) अपने अनुरूप (योग्य) पति को पाने वाली। संवृत्ता सम्+वृत्+क्त टाप् = हो गयी है। निर्वृतम् निर्वृ+क्त आनन्दित (प्रसन्न) (है)।

हिन्दी अनुवाद - अनसूया सखी प्रियंवदा, गान्धर्व (विवाह) विधि से सम्पन्न (विवाह रूप) कल्याण (मङ्गल कार्य) वाली शकुन्तला यद्यपि अपने योग्य पति से सङ्गत हो गयी है (अर्थात् अपने योग्य पति को पा गयी है)। इसलिये मेरा हृदय आनन्दित (प्रसन्न) है, तथापि इतनी सी बात विचारणीय है।

प्रियंवदा-कथमिव ? (कहं विअ ?)

प्रियंवदा-कौन-सी ?

अनसूया - अद्य स. राजर्षिरिष्टिं परिसमाप्यर्षिभिर्विसर्जित आत्मनो नगरं प्रविश्यान्तः पुरसमागत इतोगतं वृत्तान्तं स्मरति वा न वेति । (अज्ज सो राएसी इद्धिं परिसमाविअ इसीहिं विसज्जिओ अत्तणो णअरं पविसिअ अन्तेउरसमागदो इदोगदं वुत्तन्तं सुमिरदि वा ण वेति ।)

व्या० एवं श० - राजर्षिरिष्टिम् राजर्षिः इष्टिम् (यज्+क्तिन्) यज्ञ को। परिसमाप्य (राजधानी परि+सम्+आप्+त्तवा+ल्यप् समाप्त (सम्पन्न) कर। विसर्जितः विसृज् + क्त गंमनाय) अनुज्ञातः = (राजधानी जाने के लिये ऋषियों द्वारा) छोड़ा गया (बिदा किया गया)। प्रविश्य - प्र+विश्+त्तवा - ल्यप् प्रवेश कर। इतो गतम् = यहाँ घटित (यहाँ के विवाहादि)। वृत्तान्तम् = बात को ।

अनसूया - आज वह राजर्षि (दुष्यन्त) यज्ञ को समाप्त करने के बाद ऋषियों द्वारा विदा किये जाने पर (जब) अपने नगर में प्रवेश करेगा तब अन्तःपुर की स्त्रियों से मिलने के बाद यहाँ के वृतान्त (विवाह आदि की बात) को याद करेगा या नहीं ?

प्रियंवदा-विस्रब्धा भव । न तादृशा आकृतिविशेषा गुणविरोधिनो भवन्ति । तात इदानीमिमं वृत्तान्तं श्रुत्वा न जाने किं प्रतिपत्स्यत इति। (वीसद्धा होहि। ण तढिसा आकिदिविसेसा गुणविरोहिणो होन्ति । तादो दाणि इमं वुत्तन्तं सुणिअ अ आणे किं पडिवज्जिस्सदि त्ति ।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ -  विस्रब्धा विस्रम्भ्+क्त टाप् विश्वस्ता (निःशङ्का)। आकृतिविशेषाः - आकृतीनां विशेषाः (तत्पु०) सुन्दर आकृति वाले। गुणविरोधिनः = गुणविरोधी (निर्गुण-गुणहीन)। प्रतिपत्स्यते प्रति+पद् लट् प्र०पु०ए०व० = करेंगे (सोचेंगे)। टिप्पणी (१) 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' बृहत्संहिता के इस वचन के अनुसार सुन्दर व्यक्ति गुणहीन नहीं होता। (२) 'अग्नि पुराण' में भी कहा गया है- 'यत्राकारस्ततो गुणाः' । (३) इसी प्रकार मृच्छकाटिक में भी कहा गया है- 'न ह्याकृतिः सुसदृशं विजहाति वृत्तम्' ।

हिन्दी अनुवाद - प्रियंवदा- विश्वस्त (निश्चिन्त) रहो। उस प्रकार की विशिष्ट (सुन्दर) आकृतियाँ गुणों से रहित नहीं होती हैं। पिता (कण्व) इस समाचार को सुनकर न जाने क्या करेंगे ? (अर्थात् शकुन्तला के गान्धर्व विवाह का अनुमोदन करेंगे, अथवा नहीं यह बात विचारणीय है।)

विशेष- राघवभट्ट के अनुसार यहाँ चतुर्थ अङ्क के प्रारम्भ से लेकर पञ्चम अङ्क के श्लोक १८ के बाद 'इति यथोक्तं करोति' तक गर्भसन्धि है। विश्वनाथ के अनुसार यहाँ से लेकर सप्तम अङ्क में शकुन्तला के पहचानने तक 'विमर्शसन्धि' है। उनके मतानुसार तृतीय अङ्क के 'स्निग्धजनसंविभक्तम्' इस वाक्य से लेकर तृतीय अङ्क की समाप्ति तक 'गर्भसन्धि' है।

अनसूया - यथाऽहं पश्यामि, तथा तस्यानुमतं भवेत् । (जह अहं देक्खामि, तह तस्स अणुमदं भवे ।)

अनसूया-जैसा मैं समझती हूँ, वैसा (यह) उनको अनुमत (स्वीकृत) होगा (अर्थात् वे इस विवाह का अनुमोदन कर देगें)।

प्रियंवदा-कथमिव ? (कर्ह विअ ?)

प्रियंवदा- कैसे ?

अनसूया - गुणवते कन्यका प्रतिपादनीयेत्ययं तावत् प्रथमः सङ्कल्पः । तं यदि दैवमेव सम्पादयति नन्वप्रयासेन कृतार्थो गुरुजनः । (गुणवदे कण्णआ पडिवादणिज्जे त्ति अअं दाव पढमो संकप्पो । तं जइ देव्वं एव्व संपादेदि णं अप्पआसेण किदत्थो गुरूअणो ।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ- गुणवते गुणाः सन्ति अस्य गुण मतुप् च०ए०व० = गुणवान् को। प्रतिपादनीया प्रति+पद् णिच्+अनीयर टाप् = देनी चाहिये।

हिन्दी अनुवाद - अनसूया-गुणवान् व्यक्ति को कन्या देनी चाहिये यह (माता-पिता का) पहला सङ्कल्प (दृढ़ विचार) होता है। उसको यदि भाग्य ही सम्पन्न (पूरा) कर देता है, तब तो गुरुजन (माता-पिता) बिना प्रयास के ही कृतकृत्य हो गये।

प्रियंवदा (पुष्पभाजनं विलोक्य) सखि, अवचितानि बलिकर्मपर्याप्तानि कुसुमानि । (सहि, अवइदाई बलिकम्मपज्जत्ताई कुसुमाई)।

प्रियंवदा (पुष्पों के पात्र (टोकरी) को देखकर) सखी, पूजा-कार्य (बलिकर्म) के लिये पर्याप्त पुष्प चुन लिये गये।

अनसूया - ननु सख्याः शकुन्तलायाः सौभाग्यदेवताऽर्चनीया। (णं सहिए सउन्दलाए सोहग्गदेवआ अच्चणीआ ।)

व्या० एवं श० - सौभाग्यदेवता = विवाह-देवता। अर्चनीया अर्च+अनीयर टाप् = पूजनीय है।

'अनसूया किन्तु सखी शकुन्तला के सौभाग्य (विवाह) देवता की पूजा करनी है।

प्रियंवदा- युज्यते । (जुज्जदि।) (इति तदेव कर्माभिनयतः) ।

प्रियंवदा-ठीक है। (फिर उसी कार्य (अर्थात् पुष्प चुनने) का अभिनय करती हैं)।

(नेपथ्ये) अयमहं भोः ।

(नेपथ्य में) यह मैं (आया) हूँ।

अनसूया (कर्णं दत्त्वा) सखि, अतिथीनामिव निवेदितम् । (सहि; अदिधीणं, विअ णिवेदिदं ।)

अनसूया-सखी, (किसी) अतिथि का वचन (कथन) है (अर्थात् ऐसा लग रहा है कि कोई अतिथि पुकार रहा है)।

प्रियंवदा-ननूटजसन्निहिता शकुन्तला । (णें उडजसण्णिहिदा सउन्दला ।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ - उटजसन्निहिता उटजे सन्निहिता उपस्थिता। सन्निहिता -

सम्+नि+धा+क्त+टाप् = (कुटीरे) कुटिया में उपस्थित ।

प्रियंवदा- शकुन्तला तो कुटी पर उपस्थित है ही।

अनसूया - अद्य पुनहृदयेनासन्निहिता । अलमेतावद्भिः कुसुमैः । (अज्ज उण हिअएण असण्णिहिदा । अलं एत्तिएहिं कुसुमेहिं ।) (इति प्रस्थिते) ।

अनसूया- किन्तु आज (वह) हृदय से अनुपस्थित है (अर्थात् आज उसका मन कहीं अन्यत्र लगा है)। इतने ही पुष्प (पूजा के लिये) पर्याप्त हैं। (दोनों चल देती हैं)।

(नेपथ्ये) आः, अतिथिपरिभाविनि,

व्याकरण एवं शब्दार्थ - अतिथिपरिभाविनि अतिथिं परिभावयति तिरस्करोतीति - अतिथिपरिभाविनी तत्सम्बुद्धौ अतिथिपरिभाविनि ! अतिथि का तिरस्कार करने वाली।

(नेपथ्य में) अरे, अतिथि का तिरस्कार करने वाली -

विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा 

                     तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम् । 

स्मरिष्यति, त्वां न स बोधितोऽपि सन् 

                      कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव ।। १ ।।

अन्वय - अनन्यमानसा यं विचिन्तयन्ती उपस्थितं तपोधनं मां न वेत्सि, सः प्रमत्तः प्रथमं कृर्ता कथाम् इव बोधितः सन् अपि त्वां न स्मरिष्यति ।

शब्दार्थ- अनन्यमानसा = केवल एक ही ओर लगे हुये मन वाली (एकाग्र मन वाली)। यम् = जिसको । विचिन्तयन्ती सोचती हुई। उपस्थितम् = उपस्थित (आये हुए)। तपोधनम् = तप रूपी धनं वाले (तपस्वी)। माम् मुझको। न नहीं। वेत्सि जान पा रही हो (देख पा रही हो)। सः = वह । प्रमत्तः = उन्मत। प्रथमम् पहले। कृताम् की गयी (कहीं गयी)। कथाम् इव - बात की भाँति । बोधितः सन् = याद दिलाये जाने पर। अपि भी। त्वाम् तुमको। न = नहीं। स्मरिष्यति = स्मरण (याद) करेगा।

अनुवाद - एकाग्रचित्तवाली (किसी व्यक्ति विशेष पर आसक्त चित्तवाली) जिसका चिन्तन करती हुई (यहाँ) उपस्थित मुझ तपस्वी को नहीं जान (देख) पा रही हो, वह (तेरे द्वारा) स्मरण दिलाये जाने पर भी तुमको (उसी प्रकार) स्मरण नहीं करेगा (जिस प्रकार) उन्मत्त (व्यक्ति) पहले की गयी (कही गयी) बात को (स्मरण नहीं करता है)।

संस्कृत व्याख्या- अनन्यमानसा एकाग्रचित्ता (सती) यं जनम्, विचिन्तयन्ती ध्यायन्ती, उपस्थितम् - (अत्र) आगतम्, तपोधनं तपोनिधिम्, मां दुर्वाससम्, न नहि, वेत्सि जानासि, सः जनः प्रमत्तः उन्मत्तः, प्रथमं पूर्वम् कृताम् अभिहिताम् कथाम् इव - वार्ताम् इव, बोधितः सन् अपि स्मारितः सन् अपि, त्वां शकुन्तलाम्, न - नहि, स्मरिष्यति अभिज्ञास्यति ।

संस्कृत-सरलार्थः- अनन्यमानसा यं जनं (दुष्यन्तं) ध्यायन्ती समक्षमागतं तपस्विनं मां (दुर्वाससम्) न हि जानीसे, सः (दुष्यन्तः) पूर्वसम्पादितं विवाहादिवृत्तान्तं स्मारितोऽपि तथैव न स्मरिष्यति यथा कश्चिन्मत्तो (बोधितोऽपि सन्) पूर्ववृत्तान्तं न स्मरति) ।

व्याकरण- अनन्यमानसा न अन्यत् अवलम्बनम् यस्य तत् अनन्यम् अनन्यं मानसं यस्याः सा (ब०ब्री०)। विचिन्तयन्ती विचिन्त्+णिच् (स्वार्थे) शतृ ङीप् । तपोधनम् - तप एव धनं यस्य सः (ब०ब्री०) तम्। प्रमत्तः प्र+मद्+क्त। स्मरिष्यति स्मृलट् + प्र०पु०ए०व० । बोधितः - बुध+णिच्+क्त ।

कोष- 'आस्तु कोपपीडयोः' इत्यमरः ।

रस-भाव- यहाँ दुर्वासा के क्रोध का भाव व्यञ्जित है।

अलङ्ककार (१) यहाँ पूर्वार्द्ध विस्मरण रूपी कार्य का कारण है अतः 'काव्यलिङ्ग' अलङ्कार है।  'माम्' का 'तपोधनम्' यह विशेषण साभिप्राय है अतः 'परिकर' अलङ्कार है।  (३) यहाँ 'कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव' में श्रौती 'पूर्णोपमा' अलङ्कार है। दुष्यन्त का उपमान प्रमत्त, शकुन्तला का उपमान कथा है तथा 'इव' वाचक शब्द है। (४) 'कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव' में श्लिष्ट अर्थ होने से 'श्लेष' है। 

छन्द- श्लोक में 'वंशस्थ' छन्द है। 

टिप्पणी- (१) 'अतिथि देवो भव' इस वैदिक निर्देश के अनुपालन में महर्षि कण्व द्वारा अतिथिसत्कार के लिये नियोजित शकुन्तला की अतिथि दुर्वासा के प्रति अनवधानता एक अपराध है। यही कर्त्तव्य के प्रति अनवधानता रूप अपराध ही उनके क्रोधमूलक शाप का कारण है। दुष्यन्त के प्रति शकुन्तला की आसक्ति उनके शाप का कारण नहीं है। (२) मूल कथा में शाप की चर्चा नहीं है। यह कालिदास की सोद्देश्य परिकल्पना है।  शाप की परिकल्पना से दुष्यन्त के चरित्र का परिष्कार किया गया है। (३) इसी शाप की परिकल्पना से पञ्चम अङ्क में दुष्यन्त के दरबार में शाप-प्रभावित दुष्यन्त के द्वारा शकुन्तला का न पहचाना जाना सङ्गत होता है और आगे की कथा साधार बनती है। शापाभाव में पञ्चम अङ्क में ही दुष्यन्त-शकुन्तला मिलन हो जाता और आगे की कथा के लिये कोई अवसर न रह जाता । (४) 'कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव' का औपम्यविधान अत्यन्त सटीक एवं सार्थक है। जैसे प्रमत्त (शराबी व्यक्ति) याद दिलाये जाने पर भी पहले की गयी कही गयी बात को स्मरण दिलाने पर भी नही समझ पाता, उसी प्रकार शकुन्तला का चिन्तनीय (अभीष्ट) व्यक्ति भी उसके घटित घटना का स्मरण नही कर पायेगा।

प्रियंवदा- हा धिक्, हा धिक् । अप्रियमेव संवृत्तम् । कस्मिन्नपि पूजाहेंऽ पराद्धा शून्यहृदया शकुन्तला । (पुरोऽवलोक्य) न खलु यस्मिन् कस्मिन्नपि । एष दुर्वासाः सुलभकोपो महर्षिः । तथा शप्त्वा वेगबलोत्फुल्लया दुर्वारया गत्या प्रतिनिवृत्तः । (हद्धी, हद्धी। अप्पिअं एव्वं संवुत्तुं । कस्सिं पि पूआरुहे अवरद्धा सुण्णहिअआ सउन्दला। ण हु जस्सिं कस्सिं पि। एसो दुव्वासो सुलहकोवो महेसी। तह सविअ वेअबलुब्फुल्लाए दुव्वाराए गईए पडिणिवुत्ती ।)

व्या० एवं श०- अप्रियम् अशुभ-अनर्थ। पूजाहें पूजामर्हति इति पूजार्हः (पूजा+अर्ह+अच्) तस्मिन् पूजाहें = पूजनीय व्यक्ति के प्रति। अपराद्धा अप्+राध्+क्त टाप् = अपराधिनी-अपराधयुक्त । शून्यहृदया शून्यं हृदयं यस्याः सा शून्य हृदय वाली-अन्यमनस्क । अवलोक्य - अव्+लोक्क्त्वा ल्यय् देखकर। सुलभ कोपः सुलभः कोपः यस्य सः (ब०ब्री०) = सुलभ कोप वाले अति क्रोधी। शप्त्वा शप्+क्त्वा शाप देकर । वेगबलोत्फुल्लया वेगस्य बलं तेन उत्फुल्ला तया (तृ०त०) = वेग के बल से युक्त अर्थात् अति तीव्र । दुर्वारया = अनिवारणीय। ये दोनों पद 'गत्या' पद के विशेषण हैं। प्रतिनिवृत्तः प्रति+नि+वृत्+क्त = लौट गये। संवृत्तम् - सम्+वृत्+क्त = हो गया।

प्रियंवदा- हाय धिक्कार है, हाय धिक्कार है। अनर्थ (अप्रिय) ही हो गया। किसी पूजनीय व्यक्ति के प्रति (दुष्यन्त के चिन्तन में आसक्त होने के कारण) शून्य हृदयवाली शकुन्तला ने अपराध कर दिया है। (सामने देखकर) जिस किसी (साधारण व्यक्ति) के प्रति ही (अपराध नहीं किया)। ये सहजतः क्रुद्ध हो जाने वाले महर्षि दुर्वासा हैं। इस प्रकार (शकुन्तला को) शापं देकर वेग के बल से युक्त (अर्थात् अत्यन्त तीव्र) और दुर्निवार्य गति से लौटे जा रहे हैं।

अनसूया-कोऽन्यो हुतवहाद् दग्धुं प्रभवति । गच्छ । पादयोः प्रणम्य निवर्तयैनं यावदहमर्घोदकमुपकल्पयामि । (को अण्णो हुदवहादो दहिदुपहवदि। गच्छ। पादेसु पणमिअ णिवत्तेहि णं जाव अहं अग्घोदअं उवकप्पेमि ।)

व्या० एवं श०- हुतवहात्- हुतम् हव्यम् (घृतादिकं द्रव्यम्) तस्य वहः तस्मात् = अग्नि के अतिरिक्त । दग्धुम् दह+ तुमुन् जलाने के लिये। प्रभवति समर्थ है। प्रणम्य - प्र+नम्+क्त्वा-ल्यप् = प्रणाम कर। निवर्तय निवृत्+णिच्+लोट् प्र०पु०ए०व० = लौटाओ । एनम् = उनको (दुर्वासा को)। निवर्तय एनम् निवर्तयैनम् वृद्धिसन्धि। अर्बोदकम् अर्षश्च उदकं च तयोः समाहारः = अर्ष एवं जल को। उपकल्पयामि उप+कल्प+णिच्+उ०पु०ए०व० = तैयार करती हूँ।

अनसूया- अग्नि के अतिरिक्त और कौन जलाने में समर्थ हो सकता है। जाओ, (उनके) चरणों में प्रणाम कर (पैरों पर गिरकर) इन्हें लौटा लाओ, जब तक मैं अर्घ और जल (पूजा का सामान) तैयार करती हूँ।

टिप्पणी- अर्घोदकम् - अर्घश्च उदकं च तयोः समाहारः इसका अर्थ होता है- अर्घ और जल । इसमें आठ वस्तुयें होती हैं। वे हैं- जल, क्षीर (दूध), कुशाग्र, दधि, सर्पि (घी), तण्डुल (चावल), यव तथा सिद्धार्थक। भारतीय संस्कृति में अतिथि के सत्कार की यह एक विधि है। पूज्य अतिथि को अोंदक देकर उसका सम्मान किया जाता था। देव पूजा के समय भी अर्धोदक दिया जाता है। कहीं-कहीं 'अर्थ' के स्थान पर 'अर्घ्य' यह पाठ है। अर्ष से यत् (अर्घ+यत्) लगाकर अर्घ्य बनता है।

प्रियंवदा- तथा (तह ।) (इति निष्क्रान्ता)।

प्रियंवदा (जैसा तुम कहती हो) वैसा (करती हूँ)। (यह कहकर निकल जाती है)।

अनसूया - (पदान्तरे स्खलितं निरूप्य) अहो, आवेगस्खलितया गत्या प्रभ्रष्ट ममाग्रहस्तात् पुष्पभाजनम् । (अम्मो, आवेअक्खलिदाए गईए पब्भट्ट मे अग्गहत्थादो पुप्फभाअणं ।) (इति पुष्पोच्चयं रूपयति) ।

अनसूया (कुछ पग चलने के बाद गिरने का अभिनय कर) ओह, आवेग (घबराहट) से लड़खड़ाती हुई चाल के कारण मेरे हाथ से फूल का पात्र (डलिया) गिर गया। (फूलों के उठाने का अभिनय करती है)।

(प्रविश्य) प्रियंवदा-सखि, प्रकृतिवक्रः स कस्यानुनयं प्रतिगृह्णति । किमपि पुनः सानुक्रोशः कृतः । (सहि, पकिदिवक्को सो कस्स अणुणअं पडिगेण्हदि। किं वि उण साणुक्कोसो किदो ।)

व्या० एवं श०- प्रकृतिवक्रः प्रकृत्या वक्रः (तृ०त०) स्वभाव से टेढ़े। प्रतिगृह्णाति - प्रति+ग्रह लट्+प्र०पु०ए०व० = स्वीकार करते हैं। सानुक्रोशः - अनुक्रोशेन दयया सहितः = दयायुक्त ।

हिन्दी अनुवाद - (प्रवेश करके) प्रियंवदा- सखी, स्वभाव से टेढ़े वे (महर्षि दुर्वासा) किसकी प्रार्थना को

स्वीकार करते. (मानते) हैं? फिर भी (मैने उन्हें) कुछ दयायुक्त कर लिया। अनसूया - (सस्मितम्) तस्मिन् बह्वेतदपि । कथय । (तस्सि बहु एदं पि। कहेहि ।)

व्या० एवं श०- बहेतदपि बहु एतदपि यण् दीजिये ।

अनसूया (मुस्कराते हुए) उस (दुर्वासा) के विषय में इतना भी बहुत है। बताओ (क्या हुआ) ?

प्रियंवदा-यदा निवर्तितुं नेच्छति तदा विज्ञापितो मया । भगवन् प्रथम इति प्रेक्ष्याविज्ञाततपः प्रभावस्य दुहितृजनस्य भगवतैकोऽपराधो मर्षयितव्य इति । (जदा णिवत्तिदुं ण इच्छदि तदा विण्णविदो मए। भवअं, पढ़म त्ति पेक्खिअ अविण्णादतवप्पहावस्स दुहिदुजणस्स भअवदा एक्को अवराहो मरिसिदब्बो त्ति ।)

व्या० एवं श०- विज्ञापितः विज्ञा+णिच्+क्त प्रार्थना की। अविज्ञाततपः प्रभावस्य - न विज्ञातः तपः प्रभावः येन सः तस्य (ब०बी०) तप के प्रभाव को न जाननें वाली । दुहितृजनस्य = पुत्री (शकुन्तला) का। मर्षयितव्यः मृश्+णिच्तव्य क्षमा कर देना चाहिये ।

हिन्दी अनुवाद - प्रियंवदा-जब लौटने की इच्छा नही किये (अर्थात् लौटने को तैयार नहीं हुये) तब मैने उनसे प्रार्थना की 'भगवन् तप के प्रभाव को न जानने वाली पुत्रीजन (शकुन्तला) का यह पहला अपराध है (यह समझकर) आप के द्वारा उसका यह एक अपराध क्षन्तव्य है (ये क्षमा कर दीजिये)।

अनसूया - ततस्ततः ? (तदो तदो ?)

अनसूया तब, तब (क्या हुआ)' ?

प्रियंवदा-ततो न मे वचनमन्यथाभवितुमर्हति, किन्त्वभिज्ञानाभरणदर्शनन शापो निवर्तिष्यत इति मन्त्रयमाण एवान्तर्हितः । (तदो ण मे वअणं अण्णहाभविदु अरिहदि, किंदु अहिण्णाणाभरणदंसणेण सावो णिवत्तिस्सदि त्ति मन्तअन्तो एव्व अन्तरिहिदो ।)

व्या० एवं श०- अभिज्ञानाभरणदर्शनेन अभिज्ञानरूपं यदाभरणं तस्य दर्शनेन = अभिज्ञान (पहचान) रूप आभूषण के देखने से। निवर्तिष्यते निवृत्+लट् प्र०पु०ए०व० = निवृत्त (समाप्त) हो जायेगा। मन्त्रयमाण मन्त्र+णिच्+लट्+शानच् प्र०पु०ए०व० = कहते हुये ।. अन्तर्हितः अन्तर्धा+क्त अन्तर्हित (अदृश्य) हो गये।

प्रियंवदा- तब 'मेरा वचन असत्य (अन्यथा) नहीं हो सकता, किन्तु पहचान (अभिज्ञान) के आभूषण को दिखाने से शाप समाप्त हो जायेगा'- यह कहते हुए ही (वे) अदृश्य (अन्तर्हित) हो गये।

अनसूया - शक्यमिदानीमाश्वसितुम् । अस्ति तेन राजर्षिणा सम्प्रस्थितेन स्वनामधेयाङ्कितमङ्गुलीयकं स्मरणीयमिति स्वयं पिनद्धम् । तस्मिन् स्वाधीनोपाया शकुन्तला भविष्यति । (सक्कं दाणिं अस्ससिटुं अत्थि तेण राएसिणा संपत्थिदेण सणामहेअंकिअं अंगुलीअअं सुमरणीयं त्ति सअं पिणद्धं । तस्सि साहीणोवाआ सउन्दला भविस्सदि ।)

व्या० एवं श० - शक्यम् शक् यत् शक्य है। आश्वसितुम् आश्वस्+ तुमुन् = आश्वासन प्राप्त करना (धैर्य धारण करना)। सम्प्रस्थितेन सम्+प्र+स्था+क्त-तृ०ए०व० = प्रस्थान करते हुये। स्वनामधेयाङ्कितम् स्वस्य नामधेयेन अङ्कितम् = अपने नाम से अङ्कित । स्मरणीयम् - स्मृ+अनीयर् = स्मरण के योग्य अर्थात् स्मृति चिह्न के रूप में। पिनद्धम् - अपि+नह+क्त (अपि के 'अ' का भागुरि के मतानुसार लोप) = पहनाया (था)। स्वाधीनोपाया - स्वाधीनः उपायः यस्याः सा स्वतन्त्र उपायवाली (अर्थात् पहचान के लिये यह अंगूठी शकुन्तला के लिये उसके अधीन उपाय है)। 7

अनसूया- अब (हम लोग) धैर्य-धारण के लिये समर्थ हैं (अर्थात् अब हम लोग धैर्य रख सकती हैं)। (अपनी राजधानी को) जाते हुये उस राजर्षि ने अपने नाम से अङ्कित अङ्गुठी स्मृति-चिन्ह के रूप में (शकुन्तला की अङ्गुली में) स्वयं पहनायी थी। शकुन्तला उस (अङ्गुठी) से स्वतन्त्र उपाय वाली होगी (अर्थात् उस अङ्गु‌ठी से शकुन्तला शाप-मुक्त देने से पहचान ली जायेगी)।

प्रियंवदा- सखि, एहि । देवकार्यं तावद् निर्वर्तयावः । (सहि, एहि। देवकज्जं द व णिव्वत्तेम्ह ।) (इति परिक्रामतः) ।

व्या० एवं श० - देवकार्यम् देवस्य कार्यम् (ष०त०) देव कार्य को। निर्वतयावः - नि+वृत्+णिच्+उ०पु०पु०द्वि०व० सम्पन्न (समाप्त) कर लें।

प्रियंवदा - सखी आओ। तब तक देवकार्य (देव-पूजन) सम्पन्न कर लें। (दोनों घूमती हैं)।

प्रियंवदा (विलोक्य) अनसूये, पश्य तावत् । वामहस्तोपहितवदनाऽऽ लिखितेव प्रियसखी । भर्तृगतया चिन्तयात्मानमपि नैषा विभावयति । किं पुनरागन्तुकम् । (अणसूए, पेक्ख दाष । वामहत्थोवहिदवअणा आलिहिदा विअ पिअसही भत्तुंगदाएं चिन्ताए अताणं पि ण एसा विभावेदि। किं उण आअन्तुअं) ।

व्या० एवं श० - वामहस्तोपहितवदना वामहस्ते उपहितं वदनं यस्याः सा = जिसने बायें हाथ पर अपना मुख रख रखा है। यह प्रिय सखी (शकुन्तला) का विशेषण है। आलिखितेव - आलिखिता - इव (गुण सन्धि)। आलिखू+क्त टाप् = चित्रित की भाँति। भर्तृगतया = पति से सम्बद्ध । विभावयति - विभू+णिच्+लट्+प्र०पु०ए०व० = समझ पा रही है। 

हिन्दी अनुवाद - प्रियंवदा (देखकर) अनसूया, देखो तो। बायें हाथ पर मुँह रक्खी हुई प्रिय सखी (शकुन्तला) चित्रित-सी (बैठी हुई) है। पति सम्बन्धी चिन्ता से उसे अपनी भी सुध नहीं है (अर्थात् अपने को भी भूल गयी है)। फिर अतिथि की (बात ही) क्या ?

अनसूया- प्रियंवदे, द्वयोरेव नौ मुख एष वृत्तान्तस्तिष्ठतु । रक्षितव्या खलु प्रकृतिपेलवा प्रियसखी । (पिअंवदे दुवेणं एव्व णो मुहे एसो वुत्तन्तो चिट्ठदु। रक्खिदव्वा क्खु पकिदिपेलवा पिअसही ।)

व्या० एवं श०- नौ आवयोः द्वयोरेव हम दोनों में ही। मुखे मुख में। नौ आवयोः के स्थान पर (अस्मद्) शब्द का अन्वादेश। वृत्तान्तस्तिष्ठतु यह वृत्तान्त रहे। तिष्ठतु - स्था+लोट्+प्र०पु०ए०व० = इस वाक्य का अभिप्राय यह है यह शाप का वृत्तान्त हम दोनों तक ही सीमित रहे। इसे शकुन्तला न जानने पावे। रक्षितव्या रक्षतव्यत्+टाप् = रक्षणीय है। प्रकृतिपेलवा प्रकृत्या (स्वभावतः) पेलवा कोमला स्वभाव से कोमल ।

अनसूया- प्रियंवदा, यह समाचार हम दोनों के मुख तक ही (सीमित) रहे। निश्चय ही स्वभाव से कोमल प्रियसखी (शकुन्तला) की रक्षा करनी चाहिये।

प्रियंवदा- को नामोष्णोदकेन नवमालिकां सिञ्चति । (को णाम उण्होदएणणोमालिअं सिंचेदि ।) (इत्युभे निष्क्रान्ते)।

व्या० एवं श०- को नामोष्णोदकेन कः+नाम्+उष्णोदकेन उष्णं च तदुदकम् तेन = गर्म जल से ।

प्रियंवदा भला कौन नवमालिका (चमेली) को गर्म जल से सींचता है- सींचेगा (अर्थात् कोई नहीं)। (दोनों निकल जाती हैं)।

टिप्पणी- न मे वचनमन्यथा भवितुमर्हति इसका भाव यह है कि दुर्वासा ने जो शाप दे दिया, वह अन्यथा (असत्य) नहीं हो सकता। लौकिक पुरुषों की वाणी अर्थ का अनुगमन करती है अर्थात् अर्थ के अनुरूप उनकी वाणी होती है परन्तु इसके विपरीत अलौकिक महापुरुषों- ऋषियों-मुनियों की वाणी का अर्थ अनुधावन करते हैं अर्थात् वे जैसा कह देते हैं अर्थ वैसा ही हो जाता है। अतः दुर्वासा जैसे सिद्ध ऋषि का शाप असत्य नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में भवभूति की यह उक्ति ध्यातव्य है- 'लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते । ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति ।। उ०रा०च० । (२) स्वनामधेयाङ्कितमङ्गुलीयकम् दुष्यन्त ने हस्तिनापुर प्रस्थान के पूर्व अपने नाम से अङ्कित अङ्गु‌ठी शकुन्तला की अङ्गुलि में पहनायी थी और दुर्वासा के 'अभिज्ञानाभरणदर्शनेन शापो निवर्तिष्यते' इस वचनानुसार अङ्गुठी रूपी पहचान से उनका शाप मिटा था। पञ्चम अङ्क में तो उस अङ्गुठी को शकुन्तला न दिखा सकी थी परन्तु छठे अङ्क में धीवरों के द्वारा प्राप्त उस अङ्गुठी से राजा शाप-मुक्त होकर शकुन्तला के गान्धर्व-विवाह का स्मरण करने में समर्थ हुये थे। (३) आत्मानमपि न विभावयति दुर्वासा के आगमन के समय शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त की चिन्ता में इतनी मग्न थी कि वह अपनी सुध-बुध भी खो बैठी थी। ऐसी दशा में वह दुर्वासा को कैसे जान सकती थी? इस दृष्टि से वस्तुतः वह निरपराध थी। (४) को नाम उष्णोदकेन नवमालिकां, सिञ्चति नवमालिका (चमेली) का पौधा बहुत कोमल होता है। अतः वह जरा सी धूप में कुम्हला जाता है। यहाँ शकुन्तला की तुलना (कोमलता में) नवमालिका से की गयी है। जिस प्रकार नवमालिका को गर्म जल से कोई नहीं सींचता, उसी प्रकार हम प्रकृत्या कोमला शकुन्तला को गर्म जल के समान' दुर्वासा के शाप का समाचार बताकर कैसी उसे पीड़ित कर सकती हैं? यह प्रियंवदा के कहने का अभिप्राय है। यह वाक्य सूक्ति के रूप में मान्य है।

॥ इति विष्कम्भकः॥

॥ विष्कम्भक समाप्त॥

यहाँ दुर्वासा संस्कृत में तथा अनसूया एवं प्रियंवदा प्राकृत में बोलती हैं। सभी पात्र मध्यम श्रेणी के हैं।

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