भागवत अष्टम स्कन्ध तृतीय अध्याय (bhagwat 8.3)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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bhagwat chapter 8.3
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           श्रीबादरायणिरुवाच

 

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥१॥

 

             गजेन्द्र उवाच

 

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।

पुरुषायादिबीजाय       परेशायाभिधीमहि॥२॥

 

यस्मिन्निदं   यतश्चेदं  येनेदं य इदं स्वयम्।

योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥३॥

 

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

        क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।

अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते

        स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥४॥

 

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो

             लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।

तमस्तदासीद्गहनं गभीरं

        यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ॥५॥

 

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-

      र्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो

            दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

 

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं

          विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः।

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने

      भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

 

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा

           न नामरूपे गुणदोष एव वा।

तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः

       स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥

 

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।

अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ॥९॥

 

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।

नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

 

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।

नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

 

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।

निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥

 

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।

पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

 

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे      सर्वप्रत्ययहेतवे।

असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥

 

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय

                निष्कारणायाद्भुतकारणाय।

सर्वागमाम्नायमहार्णवाय

                नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

 

गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय

               तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम

              स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

 

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय

        मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत

          प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

 

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-

          र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय

         ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

 

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा

              भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।

किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं

         करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥

 

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं

           वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं

           गायन्त आनन्दसमुद्र मग्नाः ॥२०॥

 

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्त-

                माध्यात्मिकयोगगम्यम्।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-

              मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

 

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।

नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥

 

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो

          निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः।

तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो

              बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

 

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्न

             स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः।

नायं गुणः कर्म न सन्न चास-

                न्निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

 

जिजीविषे नाहमिहामुया किम-

                  न्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-

         स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥२५॥

 

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।

विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥२६॥

 

योगरन्धितकर्माणो     हृदि   योगविभाविते।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥२७॥

 

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग

                शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये

              कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

 

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।

तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥२९॥

 

          श्रीशुक उवाच

 

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं

      ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः।

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्

       तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥

 

तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः

  स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्

    चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र ॥३१॥

 

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो

     दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्

       नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥

 

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य

       सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।

ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं

    संपश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम् ॥३३॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे

              गजेन्द्र मोक्षणे तृतीयोऽध्यायः॥३॥


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