भागवत सप्तम स्कन्ध नवम अध्याय (bhagwat 7.9)

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bhagwat chapter 7.9
bhagwat chapter 7.9




           श्रीनारद उवाच

 

एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्र पुरः सराः।

नोपैतुमशकन्मन्यु संरम्भं सुदुरासदम् ॥१॥

 

साक्षात्श्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तं महदद्भुतम्।

अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शङ्किता ॥२॥

 

प्रह्रादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके।

तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ॥३॥

 

तथेति शनकै राजन्महाभागवतोऽर्भकः।

उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः॥४॥

 

स्वपादमूले पतितं तमर्भकं

      विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः।

उत्थाप्य तच्छीर्ष्ण्यदधात्कराम्बुजं

     कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ॥५॥

 

स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः

            सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः।

तत्पादपद्मं हृदि निर्वृतो दधौ

         हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ॥६॥

 

अस्तौषीद्धरिमेकाग्र मनसा सुसमाहितः।

प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ॥७॥

 

           श्रीप्रह्राद उवाच


ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः

            सत्त्वैकतानगतयो वचसां प्रवाहैः ।

नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः

           किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ॥८॥

 

मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्

              तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः।

नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो

           भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ॥९॥

 

विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ

            पादारविन्दविमुखात्श्वपचं वरिष्ठम्।

मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ

        प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥१०॥

 

नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो

            मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते।

यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं

        तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ॥११॥

 

तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य

        सर्वात्मना महि गृणामि यथा मनीषम्।

नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः

               पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥१२॥

 

सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो

           ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः।

क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य

           विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ॥१३॥

 

तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य

             मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या।

लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे

        रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ॥१४॥

 

नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य

              जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात्।

आन्त्रस्रजःक्षतजकेशरशङ्कुकर्णान्

          निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ॥१५॥

 

त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र

               संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः।

बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं

             प्रीतोऽपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ॥१६॥

 

यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसंयोगजन्म

           शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः।

दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं

         भूमन्भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥१७॥

 

सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया

           लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः।

अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तो

               दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ॥१८॥

 

बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह

           नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः।

तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्

          तावद्विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ॥१९॥

 

यस्मिन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्माद्

            यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा।

भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः

          सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ॥२०॥

 

माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः

               कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः।

छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं

             संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥२१॥

 

स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना

            कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः।

चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे

           निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ॥२२॥

 

दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानाम्

      आयुः श्रियो विभव इच्छति यान्जनोऽयम्।

येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रू

        विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ॥२३॥

 

तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषोऽज्ञ

         आयुः श्रियं विभवमैन्द्रि यमाविरिञ्च्यात्।

नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण

           कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ॥२४॥

 

कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः

                 क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः।

निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्

             कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः ॥२५॥

 

क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिन्

               जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा।

न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया

           यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ॥२६॥

 

नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याज्

               जन्तोर्यथात्मसुहृदो जगतस्तथापि।

संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः

                 सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ॥२७॥

 

एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे

             कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्।

कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः

          सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ॥२८॥

 

मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च

            मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्।

खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सुस्

               त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ॥२९॥

 

एकस्त्वमेव जगदेतममुष्य यत्त्वम्

               आद्यन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च।

सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं

                  नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ॥३०॥

 

त्वम्वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो

                माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था।

यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च

                  तद्वैतदेव वसुकालवदष्टितर्वोः ॥३१॥

 

न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये

               शेषेत्मना निजसुखानुभवो निरीहः।

योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्र स्

           तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे ॥३२॥

 

तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या

                सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम्।

अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधेर्

              नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ॥३३॥

 

तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमानस्

            त्वां बीजमात्मनि ततं स बहिर्विचिन्त्य।

नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो

               जातेऽङ्कुरे कथमुहोपलभेत बीजम् ॥३४॥

 

स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आश्रितोऽब्जं

                 कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः।

त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं

                  भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ॥३५॥

 

एवं सहस्रवदनाङ्घ्रिशिरःकरोरु

              नासाद्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्।

मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं

              दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ॥३६॥

 

तस्मै भवान्हयशिरस्तनुवं हि बिभ्रद्

               वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ।

हत्वानयच्छ्रुतिगणांश्च रजस्तमश्च

             सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥३७॥

 

इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्

          लोकान्विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान्।

धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं

        छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥३८॥

 

नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ

               सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम्।

कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं

         तस्मिन्कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ॥३९॥

 

जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता

            शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्।

घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक्क्व च कर्मशक्तिर्

            बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥४०॥

 

एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्याम्

              अन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम्।

पश्यन्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं

               हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ॥४१॥

 

को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन्प्रयास

              उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः।

मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो

             किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ॥४२॥

 

नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्यास्

                 त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः।

शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रि यार्थ

             मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥४३॥

 

प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा

             मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः।

नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको

            नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥४४॥

 

यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं

              कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम्।

तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः

              कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥४५॥

 

मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म

             व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्ग्याः।

प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां

        वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥४६॥

 

रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे

               बीजाङ्कुराविव न चान्यदरूपकस्य।

युक्ताः समक्षमुभयत्र विचक्षन्ते त्वां

          योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ॥४७॥

 

त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बु मात्राः

                 प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च।

सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन्

            नान्यत्त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥४८॥

 

नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये

                सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः।

आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वाम्

          एवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥४९॥

 

तत्तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः

             कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम्।

संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं

                भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ॥५०॥

 

             श्रीनारद उवाच

 

एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः।

प्रह्रादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ॥५१॥

 

             श्रीभगवानुवाच

 

प्रह्राद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम।

वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ॥५२॥

 

मामप्रीणत आयुष्मन्दर्शनं दुर्लभं हि मे।

दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ॥५३॥

 

प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः।

श्रेयस्कामा महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम् ॥५४॥

 

              श्रीनारद उवाच

 

एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः।

एकान्तित्वाद्भगवति नैच्छत्तानसुरोत्तमः ॥५५॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

     सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते भगवत्स्तवो

           नाम नवमोऽध्यायः॥९॥


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भागवत दर्शन: भागवत सप्तम स्कन्ध नवम अध्याय (bhagwat 7.9)
भागवत सप्तम स्कन्ध नवम अध्याय (bhagwat 7.9)
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