एक छोटे से बालक को उसकी मां किसी ऋषि के पास छोड़कर सखियों के साथ नदी में स्नान करने चली गई । इधर ऋषि ध्यान में मग्न हो गये । उधर संयोग से बालक धीरे-धीरे जाते हुए नदी में बह गया ।
रोती हुई माता बालक को लाकर महर्षि के पास रुदन करने लगी । मुनि ने शोक से खिन्न हुए माता को देखकर परकाया-प्रवेश की रीति से अपना शरीर त्याग कर बालक के शरीर में प्रवेश किया । बालक जीवित हो उठा ।
किन्तु अब वह बालक जड़ के समान बर्ताव करने लगा। इन्हें बिना उपदेश, बिना अध्ययन किये ही अनेक वेद, शास्त्र, स्मृतियों ज्ञान हो गया था। माता-पिता ने इनको ठीक करने के लिए बहुत व्रत-उपवास व अनुष्ठान किये, किन्तु कोई भी लाभ नहीं हुआ ।
एक दिन माता-पिता फलादि पूजन सामग्री लेकर आचार्य-शङ्कर के श्रीचरणों में गिर पड़े । बालक को भी दण्डवत् प्रणाम कराया । आचार्य ने राख से ढकी अग्नि के समान उस बालक के तेज को देखा।
पिता ने कहा -- "गुरो ! इसके जन्म को १२ वर्ष बीत गए हैं १३वां चल रहा है । बच्चों के खेलने के लिए पुकारने पर भी यह नहीं जाता । दुष्ट बच्चों द्वारा मार खाकर भी क्रोध नहीं करता । न कुछ खाता है, कभी-कभार थोड़ा सा खा लेता है ।"
आचार्य ने बालक से पूछा--
कस्त्वं शिशो कस्य कुतोઽसि गन्ता
किं नाम ते त्वं कुत आगतोઽसि ।
एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं
मत्प्रीतये प्रीतिविवर्धनोઽसि ।।
शिशो ! तुम कौन हो ? किसके पुत्र हो ? कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? तुम कहाँ से आये हो ? मेरे इन प्रश्नों का जवाब दो । क्योंकि तुम हमें बहुत प्रिय लग रहे हो ।
तब बालक ने कहा --
नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ
न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो
भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः।।
मैं मनुष्य नहीं हूँ । देव या यक्ष भी नहीं हूँ । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ । मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ । मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ ।
माधवीय दिग्विजय में वह बालक कहते हैं --
"नाहं जड: किन्तु जड प्रवर्तते,
मत्सन्निधानेन न संदिहे गुरो ।
षडूर्मिषडभाव विकार वर्जितं,
सुखैकतानं परमस्मि तत् पदम्।।
ममैव भूयादनुभूतिरेषा
मुमुक्षुवर्गस्य निरूप्य विद्वन् ।
पद्मै: परैर्द्वादशभिर्बभाषे
चिदात्मतत्त्वं विधुत प्रपंचम्।।
"हे गुरो ! मैं जड़ नहीं हूँ किन्तु जड़ को प्रवृत्त करने वाला चैतन्य हूँ । मेरे ही सान्निध्य से जड़ में प्रवृत्ति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं । इसलिए मैं शोक, मोह, भूख, प्यास, बुढापा तथा मृत्यु इन छः उर्मियों तथा शरीर के अस्ति, जायते, वर्धते, परिणमते, क्षय, विनाश इन छः विकारों से रहित सर्वोत्तम परमात्मा हूँ । अर्थात् शरीर, इन्द्रिय आदिकों से रहित शोधित तत्पदार्थ से अभिन्न हूँ ।"
"हे विद्वन् ! मुमुक्षुओं के कल्याण के लिए चिदात्म तत्त्व को प्रकाशित करने वाली बारह पदों में कही गई मेरी अनुभूति है, उसको कहता हूं ।"
जो बारह पद इन्होंने आचार्य के सम्मुख कहा, वे भुजङ्गगप्रयात छन्द में इस प्रकार हैं -
निमित्तं मनश्चक्षुरादि प्रवृत्तौ
निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः ।
रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ।।
यमग्न्युष्णवन्नित्यबोध स्वरूपं
मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि ।
प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कम्पमेकं
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
मुखाभासको दर्पणे दृश्यमानो
मुखत्वात् पृथक्त्वेन नैवास्ति वस्तु।
चिदाभासको धीषु जीवोऽपि तद्वत्
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा॥
यथा दर्पणाभाव आभासहानौ
मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम्।
तथा धी वियोगे निराभासको यः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
मनश्चक्षुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो
मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।
मनश्चक्षुरादेरगम्यस्वरूपः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
य एको विभाति स्वतः शुद्धचेताः
प्रकाशस्वरूपोऽपि नानेव धीषु।
शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
यथाऽनेकचक्षुः-प्रकाशो रविर्न
क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम्।
अनेका धियो यस्तथैकः प्रबोधः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
विवस्वत् प्रभातं यथा रूपमक्षं
प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।
यदाभात आभासयत्यक्षमेकः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
यथा सूर्य एकोऽप्स्वनेकश्चलासु
स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्यस्वरूपः ।
चलासु प्रभिन्नः सुधीष्वेक एव
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्कम्
यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढः।
तथा बद्धवद्भाति यो मूढ-दृष्टेः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥
इन्होंने आचार्य के सम्मुख हाथ पर रखे आमले के समान बारह श्लोकों द्वारा आत्मस्वरूप का प्रकाश किया था । अतः आचार्य ने इनको संन्यास देकर इनका नाम "हस्तामलकाचार्य" रखा ।
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