आचार्यपाद बद्रिकाश्रम से केदारनाथ पहुंचे। वहां से गन्धमादन, फिर बीच में अनेकों तीर्थों से होते हुए उज्जैन में महाकालेश्वर का दर्शन किया। वहां से प्रभास में सोमेश्वर फिर अमरकंटक से ओंकारेश्वर। विंध्याचल से एकल पर्वत के शिखर पर अमरकंटक है, यहीं से नर्मदा जी प्रकट हुई है।
इस पर्वत के ऋक्षपाल नामक श्रृंखला से रेवा निकली है, जिसका आगे चलकर कावेरी नाम है। दोनों नदियां यहीं मिण्डमा नामक स्थान पर मिलती है। वहां से सह्याद्रि पर्वत के पास गोदावरी के उद्गम स्थान से त्रयम्बकेश्वर पहुंचे, यह नासिक नगर से बीस कोस दूरी पर है। ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी निकली है तथा इस क्षेत्र में फैली है। वहां से ऐलापुर, देवगिरी पर्वत के समीप घुश्मेश्वर पहुँचे, वहां से नागेश्वर गये । फिर वहां से परली में वैद्यनाथ , फिर भीमा नदी के समीप भीमशंकर, वहां से श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन गये। वहां से गोकर्ण क्षेत्र समुद्र तट पर पहुँचे, तीन रात्रि वहां निवास किया। वहां पर अद्वैत के सम्बंध में शास्त्रार्थ किया। हरिशंकर तथा मूकाम्बिका की आराधना की।
वहीं पर एक ब्राह्मण दम्पति रोते हुए आये, उनके पुत्र की मृत्यु हो गई थी। तब आचार्यपाद ने मूकाम्बिका की स्तुति करके बालक को ऐसे जीवित किया मानो बालक सोकर जगा हो। वहां से शिष्यों सहित तौलव ग्राम पहुँचे। वहां पर एक प्रभाकर नामक ब्राह्मण अपने बालक को लेकर पत्नी सहित पहुंचे। वह बालक जड़ के समान था। अनेकों दान, पुण्य, अनुष्ठान आदि करने पर भी वह ठीक नहीं हुआ था। उसका मुख तो चन्द्रमा के समान तथा वह क्षमा में पृथ्वी के समान था, किन्तु जड़ था।
"माधवीय दिग्विजय" में इन्हें पवन का अंश बताया है। पिता का नाम दिवाकर था तथा प्रयाग क्षेत्र के किसी ग्राम में रहते थे। "गोविंदनाथीय" में इनके पिता का नाम शिव था, ऐसा आया है। "चिद्विलासीय" में व्यास दर्शन से पूर्व ही यह कथा आयी है। "गुरुवंश काव्यम्" , "गोवर्धन जगद्गुरु रत्नमाला" तथा सुधन्वा के ताम्रलेख में इनका नाम पृथ्विधराचार्य आया है।
इस बालक के माता-पिता फलादि पूजन सामग्री लेकर आचार्य के चरणों में गिर पड़े। बालक को भी दण्डवत् प्रणाम कराया। आचार्य ने राख से ढकी अग्नि के समान उस बालक के तेज को देखा।
पिता ने कहा - "गुरो ! इसके जन्म को १२ वर्ष बीत गए हैं १३वां चल रहा है।
बच्चों के खेलने के लिए पुकारने पर भी यह नहीं जाता। दुष्ट बच्चों द्वारा मार खाकर भी क्रोध नहीं करता। न कुछ खाता है, कभी-कभार थोड़ा सा खा लेता है।"
आचार्य ने बालक से पूछा- "कस्त्वम् ? जड़ के समान प्रवृत्त क्यों हो ?
तब बालक ने कहा -
"नाहं जड: किन्तु जड प्रवर्तते मत्सन्निधानेन न संदिहे गुरो ।
षडूर्मिषडभाव विकार वर्जितं, सुखैकतानं परमस्मि तत् पदम्।।
ममैव भूयादनुभूतिरेषा मुमुक्षुवर्गस्य निरूप्य विद्वन् ।
पद्मै: परैर्द्वादशभिर्बभाषे चिदात्मतत्त्वं विधुत प्रपंचम्।।
निमित्तं मनश्चक्षुरादि प्रवृत्तो निरस्ताखिलोपाधिराकाश कल्प:।
रविर्लोक चेष्टा निमित्तं यथा य: सनित्योप्लब्धि स्वरूपोऽहमात्मा।।"
(माध्वीय दिग्विजय)
'हे गुरो ! मैं जड़ नहीं हूँ किन्तु जड़ को प्रवृत्त करने वाला चैतन्य हूँ। मेरे ही सान्निध्य से जड़ में प्रवृत्ति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसलिए मैं शोक, मोह, भूख, प्यास, बुढापा तथा मृत्यु इन छः उर्मियों तथा शरीर के अस्ति, जायते, वर्धते, परिणमते, क्षय, विनाश इन छः विकारों से रहित सर्वोत्तम परमात्मा हूँ। अर्थात् शरीर, इन्द्रिय आदिकों से रहित शोधित तत्पदार्थ से अभिन्न हूँ। हे विद्वन् ! मुमुक्षुओं के कल्याण के लिए चिदात्म तत्त्व को प्रकाशित करने वाली बारह पदों में कही गई मेरी अनुभूति है, उसको कहता हूं।
मैं आकाश के समान निर्विकल्प, मन , चक्षु आदि को कार्य में लगाने वाला निरुपाधिक ब्रह्म हूँ। जैसे सूर्य का प्रकाश जगत की चेष्टा का निमित्त है, वैसे ही मैं नित्य उपलब्धि स्वरूप आत्मा हूँ।' इन्होंने आचार्य के सम्मुख हाथ पर रखे आमले के समान श्लोकों द्वारा आत्मस्वरूप का प्रकाश किया था। अतः आचार्य ने इनका नाम "हस्तामलकाचार्य" रखा।
उस बालक को बिना उपदेश के ही आत्मबोध हुआ था, यह देखकर गुरुजी ने अपना हस्तकमल बालक के मस्तक पर रखा।
फिर पिता से कहा -"यह बालक आपके योग्य नहीं है।
हे विप्रवर ! इसमें देह, गेह की अहंता-ममता नहीं है। विकार रहित परब्रह्म का प्रकाश इनमें हुआ है, अतः इनको मुझे दे दो।"
वे अपना पुत्र आचार्य को सौंपकर घर वापस आये। बालक भी आचार्य के साथ ही तीर्थ यात्रा करने लगा।
लोगों ने आचार्य से इस बालक के सम्बंध में पूछा - "किस साधन के प्रभाव से इसकी यह गति हुई है ?"
तब आचार्य ने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हुए कहा - "यह बालक पूर्व जन्म में योगाभ्यासी सिद्ध महात्मा था। एक बार एक ब्राह्मणी अपने दो वर्ष के बच्चे को इनके पास छोड़कर सखियों के साथ स्नान करने चली गई।संयोग से वह बालक धीरे-धीरे जाते हुए नदी में बह गया। तब रोती हुई माता बालक को लाकर महर्षि के पास रुदन करने लगी। मुनि ने शोक से खिन्न हुए माता को देखकर परकाय प्रवेश की रीति से अपना शरीर त्याग कर उस बालक के शरीर में प्रवेश किया। वही हस्तामलक तपस्वी हुए। इसीलिए यह बिना उपदेश किये ही अनेक वेद, शास्त्र, स्मृतियों को जानता है।"
हस्तामलक के द्वारा कहे गए बारह श्लोकों पर आचार्यपाद ने कृपा करके विस्तृत, गम्भीर तथा विचित्र भाष्य किया है।
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