प्रचंड महादेवी अपराजिता स्तोत्र

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  नवदुर्गाओं की माता अपराजिता संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तिदायिनी और ऊर्जा उत्सर्जन करने वाली हैं। अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साक्षात माता दुर्गा का ही अवतार हैं। भगवान श्री राम ने माता अपराजिता का पूजन करके ही राक्षस रावण से युद्ध करने के लिए विजय दशमी को प्रस्थान किया था। यात्रा के ऊपर माता अपराजिता का ही अधिकार होता है। ज्योतिष के अनुसार माता अपराजिता के पूजन का समय अपराह्न अर्थात दोपहर के तत्काल बाद का है।

  माता आदिशक्ति की शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता । जो कभी पराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख नही देखने देती है - विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है महामाया अपराजिता के लिए।

अपराजिता गायत्री मंत्र

"ॐ सर्वविजयेश्वरि विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि तन्नो: अपराजितायै प्रचोदयात्" ।।


।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र।।

विनियोगः

  ॐ नमोऽपराजितायै । ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव - बृहस्पति - मार्केण्डेया ऋषयः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि । लक्ष्मीनृसिंहो देवता । ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् । हुं शक्तिः । सकलकामना सिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः । 

   ध्यानम्

  ॐ निलोत्पलदलश्यामां   भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।
             शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।
       शङ्खचक्रधरां     देवी   वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।
              बालेन्दुशेखरां     देवीं      वरदाभयदायिनीम् ।।२।।
              नमस्कृत्य    पपाठैनां   मार्कण्डेयो  महातपाः ।।३।।

         मार्कण्डेय उवाच 

      शृणुष्वं    मुनयः   सर्वे   सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।

             असिद्धसाधनीं     देवीं     वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।

  ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय, नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने, शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय अजाय अजिताय पीतवाससे ।।

  ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम । वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।।

  ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरुकुरु स्वाहा ।।

  ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन,सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।

विष्णोरियमनुप्रोक्ता               सर्वकामफलप्रदा ।

       सर्वसौभाग्यजननी             सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।

सर्वैंश्च     पठितां      सिद्धैर्विष्णोः    परमवल्लभा ।

        नानया   सदृशं   किङ्चिद्दुष्टानां  नाशनं  परम् ।।६।।

विद्या     रहस्या     कथिता   वैष्णव्येषापराजिता ।

        पठनीया    प्रशस्ता     वा   साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।

ॐ    शुक्लाम्बरधरं   विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।

        प्रसन्नवदनं                   ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।

अथातः       सम्प्रवक्ष्यामि   ह्यभयामपराजिताम् ।

        या    शक्तिर्मामकी   वत्स   रजोगुणमयी   मता ।।९।।

सर्वसत्त्वमयी      साक्षात्सर्वमन्त्रमयी    च    या ।

या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।

          सर्वकामदुधा     वत्स     शृणुष्वैतां    ब्रवीमि   ते ।।१०।।

  य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति, सिद्धां स्मरति, सिद्धां महाविद्यां जपति, पठति, शृणोति, स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।

 क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत्।।एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।। ॐ नमोऽस्तुते ।।

  अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा । 

यस्याः   प्रणश्यते   पुष्पं   गर्भो   वा    पतते   यदि ।

         म्रियते बालको  यस्याः काकवन्ध्या  च  या  भवेत् ।।११।।

धारयेद्या      इमां        विद्यामेतैर्दोषैर्न      लिप्यते ।

          गर्भिणी   जीववत्सा   स्यात्पुत्रिणी  स्यान्न  संशयः ।।१२।।

भूर्जपत्रे    त्विमां    विद्यां    लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।

          एतैर्दोषैर्न     लिप्येत     सुभगा    पुत्रिणी    भवेत् ।।१३।।

 रणे     राजकुले   द्यूते    नित्यं  तस्य जयो भवेत् ।

           शस्त्रं     वारयते    ह्योषा    समरे    काण्डदारुणे ।।१४।।

 गुल्मशूलाक्षिरोगाणां   क्षिप्रं   नाश्यति  च व्यथाम् ।

           शिरोरोगज्वराणां    न     नाशिनी    सर्वदेहिनाम् ।।१५।।

  इत्येषा    कथिता    विद्या   अभयाख्याऽपराजिता ।

             एतस्याः     स्मृतिमात्रेण   भयं    क्वापि   न   जायते ।।१६।।

   नोपसर्गा    न   रोगाश्च    न    योधा  नापि तस्कराः ।

              न   राजानो    न    सर्पाश्च    न   द्वेष्टारो   न   शत्रवः ।।१७।।

    यक्षराक्षसवेताला     न    शाकिन्यो    न   च   ग्रहाः ।

              अग्नेर्भयं    न     वाताच्च   न   समुद्रान्न   वै   विषात् ।।१८।।

    कार्मणं    वा       शत्रुकृतं       वशीकरणमेव      च ।

              उच्चाटनं     स्तम्भनं     च      विद्वेषणमथापि    वा ।।१९।।

    न      किञ्चित्प्रभवेत्तत्र        यत्रैषा       वर्ततेऽभया ।

              पठेद्  वा  यदि  वा   चित्रे  पुस्तके   वा  मुखेऽथवा ।।२०।।

     हृदि    वा    द्वारदेशे   वा    वर्तते    ह्यभयः   पुमान् ।

               हृदये        विन्यसेदेतां       ध्यायेद्देवीं    चतुर्भुजाम् ।।२१।।

     रक्तमाल्याम्बरधरां                  पद्मरागसमप्रभाम् ।

                पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम्              ।।२२।।

      साधकेभ्यः       प्रयच्छन्तीं       मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।

                नातः         परतरं        किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।

      रक्षणं    पावनं   चापि    नात्र    कार्या    विचारणा ।

      प्रातः      कुमारिकाः    पूज्याः    खाद्यैराभरणैरपि ।

                 तदिदं    वाचनीयं    स्यात्तत्प्रीत्या  प्रीयते  तु  माम् ।।२४।।

      ॐ अथातः   सम्प्रवक्ष्यामि  विद्यामपि  महाबलाम् ।

                 सर्वदुष्टप्रशमनीं                        सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।

       दारिद्र्यदुःखशमनीं         दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।

                 भूतप्रेतपिशाचानां                    यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।

           डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।

                  महारौद्रिं    महाशक्तिं    सद्यः    प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।

       गोपनीयं         प्रयत्नेन        सर्वस्वं      पार्वतीपतेः ।

                  तामहं      ते     प्रवक्ष्यामि     सावधानमनाः   शृणु ।।२८।।

       एकान्हिकं   द्व्यन्हिकं   च  चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।

                  द्वैमासिकं      त्रैमासिकं      तथा    चातुर्मासिकम् ।।२९।।

        पाञ्चमासिकं  षाङ्मासिकं   वातिक  पैत्तिकज्वरम् ।

                 श्लैष्पिकं       सान्निपातिकं    तथैव   सततज्वरम् ।।३०।।

       मौहूर्तिकं      पैत्तिकं      शीतज्वरं    विषमज्वरम् ।

       द्व्यहिकं     त्र्याह्निकं     चैव   ज्वरमेकाह्निकं  तथा ।

                 क्षिप्रं      नाशयते      नित्यं      स्मरणादपराजिता ।।३१।।

  ॐ हुं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम, धम, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्थिते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।। शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।। ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुण्डे महालक्ष्मि वैनायकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि । कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।। सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा । आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि, तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।। नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।। यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।। सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।। यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।। ॐ स्वाहा ।।ॐ भूः स्वाहा ।।ॐ भुवः स्वाहा ।। ॐ स्वः स्वहा ।। ॐ महः स्वहा ।। ॐ जनः स्वहा ।। ॐ तपः स्वाहा ।। ॐ सत्यं स्वाहा ।। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।। यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।

स्वयं  विष्णुप्रणीता  च  सिद्धेयं  पाठतः  सदा ।

           एषा   महाबला   नाम   कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।

 नानया   सदृशी  रक्षा    त्रिषु    लोकेषु विद्यते ।

            तमोगुणमयी    साक्षद्रौद्री    शक्तिरियं   मता ।।३४।।

  कृतान्तोऽपि  यतो  भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।

            मूलधारे     न्यसेदेतां   रात्रावेनं    च  संस्मरेत् ।।३५।।

  नीलजीमूतसङ्काशां     तडित्कपिलकेशिकाम् ।

             उद्यदादित्यसङ्काशां          नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।

   शक्तिं  त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।

              व्याघ्रचर्मपरीधानां    किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।

    धावन्तीं    गगनस्यान्तः   तादुकाहितपादकाम् ।

               दंष्ट्राकरालवदनां          व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।

     व्यात्तवक्त्रां  ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।

               स्वभक्तद्वेषिणां    रक्तं   पिबन्तीं   पानपात्रतः ।।३९।।

      सप्तधातून्  शोषयन्तीं  क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।

                त्रिशूलेन     च   तज्जिह्वां   कीलयन्तीं   मुहुर्मुहः ।।४०।।

      पाशेन  बद्ध्वा   तं   साधमानवन्तीं   तदन्तिके ।

                अर्द्धरात्रस्य    समये     देवीं    धायेन्महाबलाम् ।।४१।।

      यस्य   यस्य   वदेन्नाम    जपेन्मन्त्रं    निशान्तके ।

                 तस्य   तस्य   तथावस्थां  कुरुते  सापि  योगिनी ।।४२।।

       ॐ     बले    महाबले   असिद्धसाधनी  स्वाहेति ।

                 अमोघां        पठति           सिद्धां      श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।

       श्रीमदपराजिताविद्यां                             ध्यायेत् ।

       दुःस्वप्ने       दुरारिष्टे   च    दुर्निमित्ते    तथैव   च ।

                  व्यवहारे       भेवेत्सिद्धिः       पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।

यदत्र             पाठे         जगदम्बिके     मया

                                 विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।

तदस्तु              सम्पूर्णतमं       प्रयान्तु     मे

                                         सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।

        तव    तत्त्वं   न   जानामि     कीदृशासि  महेश्वरि ।

                   यादृशासि     महादेवी    तादृशायै     नमो   नमः ।।४६।।

           ॥ इति श्री प्रचंड महादेवी अपराजिता स्तोत्रम्॥

  इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं । विशेष रूप से मुकदमा आदि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है।

नोट -

  बिना गुरु के सानिध्य और उनकी आज्ञा लिए बिना इसका पाठ न करे। किसी अच्छे प्रकाशन की पुरानी पुस्तक से पाठ करे, त्रुटि होना हानिकारक है । इस पाठ को करने की जातक की सामर्थ्य होनी चाहिए अन्यथा भारी नुकसान हो सकता हैं। विकट स्थिति में योग्य ब्राह्मणों द्वारा अनुष्ठान कराया जा सकता हैं। यह स्त्रोत यहां जन साधारण की जानकारी मात्र के लिए डाला गया है।

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