मित्रों ! महात्मा तुलसी के महाकाव्य रामचरित मानस के सबसे रसिक श्रोता के रूप में पवनपुत्र हनुमान जी को याद किया जाता है वर्तमान समय में ...
मित्रों ! महात्मा तुलसी के महाकाव्य रामचरित मानस के सबसे रसिक श्रोता के रूप में पवनपुत्र हनुमान जी को याद किया जाता है
वर्तमान समय में संकट से जूझ रहे एक-एक व्यक्ति को अपने हृदय में हनुमानजी को धारण करते हुए असंभव को उसी प्रकार संभव करना होगा जिस प्रकार मूर्छित लक्ष्मणजी को समय से तमाम तरह की बाधाओं के समुद्र को पार करते हुए संजीवनी बूटी उपलब्ध करा दी थी । क्योंकि त्रेता युग के महान वैद्य ने उनकी नाड़ी की धड़कनें गिनकर यह घोषित कर दिया था कि प्रात: काल के ब्रह्ममुहूर्त तक अपरिहार्य रूप से संजीवन बूटी की उपलब्धता सुनिश्चत करनी होगी ( ठीक उसी तरह जैसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान रुण्य व्यक्ति की प्राणवायु आक्जीजन लेबल से अवगत करा देती है ) महर्षि वाल्मीकि ने उनके अटल निश्चय के प्रसंग में रामायण में कहा हैं -
यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रम: ।
बद्धवा राक्षस राजानमानयिष्यामि रावणम् ।।
अर्थात् यदि स्वर्ग में भी सीता नहीं मिली तो मैं स्वयं त्रिलोक विजयी राक्षसराज रावण को ही बाँधकर ले जाऊंगा ।
तभी जाम्बवान ने विश्वास से लंकाकाण्ड में कहा था ' यदि हनुमान जीवित हैं तो हम सब के न रहने पर भी ,भगवान श्री राम की विजय निश्चित है ।
समस्त संकटग्रस्तों की तुरंत सहायता करना हनुमानजी के लिए रामकाज है । हनुमानजी ने अंततः भगवान राम के दर्शन चित्रकूट में करवा के तुलसीदास जी की चिरसंचित लालसा पूरी की :
तुलसीदास चंदन घिसें ,
तिलक देत रघुवीर ।
फलस्वरूप हनुमानजी की कृपा से तुलसी को राम मिल गये और जन- जन को चन्दनी गंध से युक्त रामचरितमानस जैसा महाकाव्य मिल गया जिसके सबसे रसिक श्रोता आज भी लोकविश्वास के अनुरूप पवनपुत्र ही माने जाते हैं ।
एक बार महात्मा गाँधी ने महाराष्ट्र की यात्रा के दौरान एक गाँव के आगुन्तुक युवकों द्वारा उनकी व्यायामशाला के उद्घाटन हेतु उनके गांव चलने का अनुरोध किया तो वे राजी हो गए और वहां पवनपुत्र की प्रतिष्ठित प्रतिमा पर उन्होंने पुष्प अर्पित होते हुए कहा कि हम व्यायामशालाओं में हनुमानजी की प्रतिष्ठा क्यों करते हैं ? इसलिए कि हमें उन जैसा बल और बुद्धि चाहिए । शरीर और बुद्धिबल तो रावण के पास भी था । लेकिन हम रावण के बदले पवनपुत्र को आदर्श मानकर उनकी पूजा करते हैं । हनुमानजी का शरीर बल वस्तुत: आत्मबल से सम्पन्न था । भगवान राम के प्रति जो उनका अनन्य प्रेम था , उसी का फल था यह आत्मबल । आत्मबल की प्राप्ति के लिए गांधीजी ने बच्चों से कहा कि भगवान हम सबको ब्रह्मचर्य के पालन की शक्ति भी, हनुमानजी की तरह प्रदान करें । अपार आत्मबल के साथ अपार प्रेम तथा अपार सेवा की भावना ही हनुमानजी की सच्ची पूजा है ।
तुलसीदास जी ने अपने युग में लोकहित के व्यापक प्रसार की दृष्टि से रामलीला का सर्वत्र मंचन कराया । साथ ही उनके श्रीविग्रहों से युक्त व्यायामशालाओं की स्थापना करवा के जनदेव की मंगलमूर्ति का विधान करके आधि-व्याधि रोगमुक्त भारत के नवनिर्माण का मार्ग प्रशस्त किया ।
युद्ध में आहत लक्ष्मणजी की मूर्छा दूर करने के लिए शत्रु के राजवैद्य सुषेन को वे तत्काल उसके निवास स्थित औषधालय सहित ले आये तथा चिकित्सक के निर्देशानुसार संजीवन बूटी भी भारी रुकावटों को पार करते हुए सुलभ करा दी । जिसका सेवन करने से लक्ष्मणजी होश में आ गये । इससे सिद्ध होता है कि भारत की महान संस्कृति पूर्णत: विज्ञानमय है और असाध्य से असाध्य रोग के निवारण में झाड़-फूंक और टोना-टोटका के परिणाम हीन अंधविश्वास से ग्रस्त नहीं हैं तथा उपचार की सफलता सुनिश्चित करने हेतु दवा के डोज और टाईमिंग के प्रति सदैव सजग रहती है ।
महात्मा तुलसीकृत हनुमान चालीसा इन सरलतम शब्दों में , हर्ष का कैसा अमृत भरा है !
वज्र देह ? किस लिए ? - दानव दलन के लिए !! ताकि धरती पर जल्दी से जल्दी न्याय और समता का रामराज्य स्थापित हो सके । इसीलिए वे " जय जय जय कपि शूर " का जयघोष करते हैं । प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चुस्त-दुरुस्त रखना पड़ेगा । क्योंकि थुलथुल और उदासीन शरीर सिर्फ धरती का भार तो बढ़ा सकता है , परंतु न्याय-अन्याय के संघर्ष में दगा भी दे सकता है ।
उत्तर , दक्षिण , पूर्वोत्तर भारत एवं देश-विदेश में सर्वत्र हनुमान जी की लीलाएं जोशखरोश से लबरेज हैं । बुन्देली बोली में विशेष रूप से राई के राग में जब नगड़िया पर निनादित यह स्वर गूंजता है - " गरजे हनुमान गरजे हनुमान , लंका के हल गये कंगूरा " तो कुम्भकर्णी नींद से अगणित जन-जन सहसा जागकर सन्नद्ध हो जाता है ।
हनुमान बाहुक में लोकनायक तुलसी पवनपुत्र से याचना करते हैं -
" क्रोध की जै कर्म को ,
प्रबोध की जै तुलसी को
सोध की जै तिन को ,
जो दोष दुख देत हैं
यानि सज्जनों पर प्रेम और दुर्जनों पर क्रोध कैंची के दो फलों की तरह संयुक्त हो जाये ।
बुन्देली के लाड़ले दुलारे जनकवि ईसुरी लंका कांड के फाइनल से पूर्व बजरंगवली के शौर्य और पराक्रम से राक्षसों को हिलाकर रख देते हैं -
" जितने हते बाग रखवारे ,
इक बंदरा नै मारे ,
जो फल पाये , भाएं तो खाये
कतर-कतर कै डारे ,
बाराबाट बाग कर डारौ ,
विरवा बिरछ उखारे
ईसुर हुकुम दिये दसकंधर
अक्षयकुमार सिधारे "
बुन्देलखण्ड के लोक साहित्य में पवनपुत्र को "लांगुर " मानकर , लांगुरिया गीतों की माला प्राय: अंजनीपुत्र को पहना-पहनाकर जन-मन भावविभोर हो उठता है ।
COMMENTS