क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ? उत्तर है कि स्त्री को कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चाहिये । स्त्री का पत...
क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ? उत्तर है कि स्त्री को कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चाहिये । स्त्री का पति ही उसका गुरु है । शास्त्र में आया है-
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरु: ।
पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरु: ॥
( पद्मपुराण, स्वर्ग. ५१ । ५१, ब्रह्मपुराण ८० । ४७ )
'अग्नि द्विजातियों का गुरु है, ब्राह्मण चारों वर्णों का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियों का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।'
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥
( मनुस्मृति २ । ६७ )
'स्त्रियों के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक- संस्कार (यज्ञोपवित), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है।'
स्त्री को पति के सिवाय किसी भी पुरुष से किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । स्त्रियों से प्रार्थना है कि वे कभी किसी साधु के फेर में न पड़ें । आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है । मेरे पास ऐसे पत्र भी आते हैं और भुक्तभोगी स्त्रियाँ भी आकर अपनी बात सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है कि वर्तमान समय में स्त्री के लिये गुरु बनाना अर्थात् किसी भी परपुरूष से सम्बन्ध जोड़ना अनर्थ का मूल है ।
साधु को चाहिये कि वह किसी स्त्री को चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरु को शिष्य के हृदय आदि का स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासी के लिये स्त्री के स्पर्श का कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवतम में आया है कि हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्री का तो कहना ही क्या है, लकड़ी की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श न करे और हाथ से स्पर्श करना तो दुर रहा, पैर से भी स्पर्श न करे-
पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।
(श्रीमद्भा. ११ । ८ । १३) ।
शास्त्र में यहाँतक कहा गया है-
मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।।
(मनु○ २ । २१५)
'मनुष्य को चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्री के साथ भी कभी एकान्त में न रहे; क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं, वे विद्वान् मनुष्य को भी अपनी तरफ खींच लेती हैं ।'
संग न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारूरूक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ।।
(श्रीमद्भा. ३ । ३१ । ३९)
'जो पुरुष योग के परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है ।'
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः ।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्वन्ध्यस्तरेत्सागरे ।।
(भर्तृहरिशतक)
'जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियों के सुन्दर मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य ( सांठी चावल ) को घी, दूध और दही के साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रिय का निग्रह कर सकें तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !'
ऐसी स्थिति में जो जवान स्त्रियों को अपनी चेली बनाते हैं, उनको अपने आश्रम में रखते हैं, उनका स्वप्न में भी कल्याण हो जायगा-यह बात मेरे को जँचती नहीं ! फिर उनके द्वारा आपका भला कैसे हो जायगा ? केवल धोखा ही होगा ।
'क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?' पुस्तक से , पुस्तक कोड- 1072, विषय- गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर, पृष्ठ-संख्या- ४८-५०, गीताप्रेस, गोरखपुर।
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