मनुष्य, देव और असुर यह तीनों वर्ग माने गये हैं। यों वर्णनकर्ताओं ने इनकी आकृति का भी अंतर किया है, पर वह आलंकारिक है। यह तीनों ही वर्ग म...
मनुष्य, देव और असुर यह तीनों वर्ग माने गये हैं। यों वर्णनकर्ताओं ने इनकी आकृति का भी अंतर किया है, पर वह आलंकारिक है।
यह तीनों ही वर्ग मनुष्य जाति में ही होते हैं वस्तुतः आकृति में नहीं प्रकृति में अंतर होता है। देवता सुंदर होते हैं, स्वर्ग में रहते हैं, वरदान देते हैं और सत्कर्म देखकर प्रसन्न होते हैं। स्वयं सुखी रहते हैं। देखने में सुन्दर, स्पर्श में सुकुमार, सदा तरुण और अमर, अमृतपायी होते हैं। कल्पवृक्ष के समीप रहने के कारण उनकी कोई कामना अपूर्ण नहीं रहती।
असुरों का कलंकित मुख होता है। दांत बड़े-बड़े खा जाने की लोभ लिप्सा के प्रतीक। सिर पर सींग, हर किसी को त्रास देने, कष्ट पहुंचाने, गिराने की दुष्प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। लाल नेत्र-अहंता, ईष्या और आवेश के प्रतीक। ये असुर न चैन से बैठते हैं और न बैठने देते हैं। भयावह ही उनकी आकृति होती है और भयंकर ही प्रकृति।
मनुष्य इन दोनों का मध्यवर्ती है। उपकार न बन पड़े तो न सही, पर कम से कम किसी का अपकार नहीं करता। अनुकरणीय और अभिवंदनीय न बन सके, पर घृणित बनकर नहीं जीता। कर्तव्यनिष्ठ, सदाचार, स्वाभिमानी और संयत जीवन जीता है, मनुष्य। मनुष्य भू-लोक में रहते हैं। देवता स्वर्ग में और असुर नरक में रहते हैं। यह तीनों ही स्थितियां हम स्वेच्छापूर्वक वरण करते हैं और उसी स्तर के बनकर रहते हैं।
एक ओर ईश्वर अपनी भुजाएं पसारे गोदी में चढ़ाने का, छाती से लगाने का आह्वान करता है, दूसरी ओर लोभ और मोह के बंधन हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी की तरह बंधे हैं। स्वार्थान्धता की अहंता कमर में पड़े रस्सों की तरह जकड़े बैठी है। पीछे लौटें, जहां के तहां रूके रहें, या आगे बढ़ें ? यह तीनों प्रश्न ऐसे हैं जो अपना समाधान आज ही चाहते हैं। अनिर्णीत स्थिति का असमंजस जाग्रत आत्माओं के लिए क्रमशः असह्य ही बनता जाता है।
वृक्ष बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बीज को गलने का पुरुषार्थ दिखाना ही पड़ता है। जो बीज गलने में हानि और बचने में लाभ देखते रहे, उन्हें उनकी कृपणता, तुच्छता के गर्त में ही गिराए रहती है। वे प्रगति की किसी भी दिशा में रंचमात्र भी आगे बढ़ नहीं पाते। दोनों ही मार्ग हर विवेकशील के आगे खुले पड़े हैं। एक प्रेय का दूसरा श्रेय का। एक स्वार्थ का दूसरा परमार्थ का। एक मूर्खता का दूसरा दूरदर्शिता का। एक पतन का दूसरा उत्थान का, इन दोनों में से एक का चयन करने की चुनौती हर जाग्रत आत्मा के सामने खुली पड़ी रहती है। दोनों ओर लाभ दीखते हैं और हानि भी। मन भटकता रहता है। कभी एक को अपनाने की बात सोचता है कभी दूसरे को। कभी एक को पकड़ता है कभी दूसरे को। इस असमंजस भरी मनःस्थिति को ही देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी को अंतर्द्वन्द्व कहते हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, तब तक कोई चैन से न बैठ सकेगा।
अंतर्जगत में चलते रहने वाले इस महाभारत के कारण चीत्कार और हाहाकार छाया रहता है। इस स्थिति के रहते किसी को और कुछ भले ही मिल जाये, शांति एवं संतोष के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे। दैत्य पक्ष का तर्क है कि प्रत्यक्ष तो उपभोग है। उसका लाभ और आनन्द तत्काल मिलता है। अधिकांश व्यक्ति उसी मार्ग पर चल रहे हैं। साथी स्वजनों का परामर्श और प्रोत्साहन उसी के लिए है। फिर अपने को दूसरों की तरह इसी मार्ग पर क्यों नहीं चलते रहना चाहिए ? इंद्रियां वासना पूर्ति के लिए लालायित रहती हैं और उपभोग के जितने अवसर मिलते हैं उतनी ही बार प्रसन्न होती हैं। अहंता की पूर्ति इसी में लगती है। लोगों का परामर्श एवं सहयोग इसी के लिए मिलता है।
समीपवर्ती वातावरण का प्रभाव भी मनोभूमि पर इसी रूप में आच्छादित रहता है। अंतरात्मा में अवस्थित देव पक्ष कहता है- सृष्टा ने मनुष्य जीवन की धरोहर किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रदान की है। देवपक्ष का तर्क है कि तात्कालिक लोभ के आकर्षण में यहां माया का छलावा ही फैला हुआ है। लिप्सा, बिजली की चमक की तरह ही चकाचौंध उत्पन्न करती है और क्षण भर में गायब हो जाती है।
कारण सृष्टिनियन्ता ने बड़े ही सुरीले ढंग से हमें प्रकृति के साथ जोड़ा है और हम ठहरे उजड्ड कि उसे पहचान ही नहीं रहे और अवहेलना करते ही रहते हैं। प्रभु- कृपा देखो प्रातः ब्रह्म-स्वरूप, दोपहर शिव-स्वरूप और संध्या होते ही नारायण रूप में दिखने वाले उस प्रकाश ज्योति भगवान सूर्यदेवजी के लिये कुछ क्षण भी अर्पण नहीं करते, तभी प्रकृति से खिड़वाल का नतीजा भी हमी भुगतते हैं।
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