महाभारत का युद्ध चल रहा है,और महाराज युधिष्ठिर ईश्वर उपासना का समय है, यह कहकर कहीं अज्ञात स्थान की ओर जाते हैं! यह आश्चर्य और उत्कंठा जब सीमा लांघ गई, तो एक दिन,चारों पांडव पुत्रों ने युधिस्टर का चुपचाप पीछा किया, कि आखिर ये ईश्वर उपासना के लिए कहां जाते हैं,क्या करते हैं ।
आगे धर्मराज युधिष्ठिर,हाथों में कुछ वस्तुएं लेकर द्रुतगति से बढ़े जा रहे हैं। पीछे चारों भाई अपने को छुपाते हुए।युद्ध स्थल में पहुंचकर,युधिस्टर ढूंढ ढूंढ कर घायलों की सेवा सुश्रुषा, उन्हें अन्न, पानी, मरहम इत्यादि की व्यवस्था कर रहे हैं। मन की व्यथा पूछ रहे हैं। जिसमें दोनों पक्ष के सैनिक शामिल थे।
जब रात्रि का तीसरा पहर आया तो वापस हुए।देखा चारों भाई सामने खड़े हैं !
भीम ने कहा - ज्येष्ठ!आप दुश्मनों के सैनिकों की भी सेवा कर रहे हैं यह पाप नहीं है ?
नहीं भीम ! मनुष्य आखिर आत्मा ही है, और आत्मा का आत्मा से कैसा बैर!
लेकिन आप इस प्रकार छुपकर क्यों आते हैं ? अर्जुन ने पूछा...
वो इसीलिए, कि कौरव सैनिक हमसे द्वेष रखते हैं, यदि वह मुझे पहचान जाते, तो अपने मन की बात, अपने घर की चिंता, परिजनों का मोह, संभवतः मुझसे व्यक्त न कर पाते। और मैं इस सेवा से वंचित रह जाता।
लेकिन तात ! ईश्वर उपासना का बहाना बनाकर यहां आना यह झूठ नहीं ? नकुल बोले।
ईश्वर उपासना केवल भजन पूजन से ही नहीं होती,कर्म से भी होती है।ईश्वर ने हमें दीन दुखियों,लाचार,असहायों,की सेवा के लिए ही तो भेजा है । और वही करके मैं ईश्वर उपासना ही तो कर रहा हूं।
चारों पांडव युधिस्टर के चरणों पर गिरकर बोले- 'तात ! अब हम समझ गए,कि हमारी जीत का कारण सैन्यशक्ति नहीं, वरन आपकी धर्म परायणता ही है, जो अपने और पराए में भेद नहीं करती।'
सच ही कहा है भगवान कृष्ण ने कि - "नर सेवा ही नारायण सेवा है..!!"
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