इक्ष्वाकु हों या अन्य, क्षत्राणियाँ भिषग विद्या में पारङ्गत होती थीं। क्षत होने पर प्राथमिक चिकित्सा करने में कुशल, जड़ी बूटियों की ज्ञाता।
कौसल्या तो अथर्वण विदुषी थीं। जिस विशल्यकरणी औषधि का उल्लेख युद्ध में क्षत विक्षत राम लक्ष्मण को स्वस्थ करने हेतु हुआ है, उसे देवी कौसल्या ने वनगमन के पूर्व राम के हाथों में मन्त्र पढ़ते हुये रक्षासूत्र में पिरो कर बाँधा था -
इति पुत्रस्य शेषाश्च कृत्वा शिरसि भामिनी।
गन्धांश्चापि समालभ्य राममायतलोचना ।।
ओषधीम् चापि सिद्धार्थां विशल्यकरणीं शुभाम्।
चकार रक्षां कौसल्या मन्त्रैः अभिजजाप च।।
भैषज्य कवच (माता कौसल्या द्वारा श्री राम को बांधा गया दिव्य औषधि कवच)
वन में जाने से पूर्व श्री राम ने माता कौसल्या से अनुमति मांगी। श्री राम को बार बार "कौसल्यानन्दवर्धन:" कहा गया है।वे माता कौसल्या के जीवित रहने के आधार हैं। जब माता ने समझ लिया कि धर्मज्ञ राम वन चले ही जायेंगे। वे किसी के रोकने से पिता के वचन को मृषा नहीं होने देंगे तो उन्हें अपने पुत्र पर गर्व हुआ। माता कौसल्या ने राम को दिव्य स्वस्त्ययन से रक्षित करने का मन बनाया ...
बभूव च स्वस्त्ययनाभिकांक्षिणी।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के २५ वें सर्ग में माता कौसल्या का दिव्य आशीर्वाद ग्रथित है। महर्षि ने इस अद्भुत इतिहास को मंत्रमय बना डाला है।
माता ने पूजन की सामग्री के साथ मंत्र जप से अभिषिक्त दिव्य "विशल्यकरणी " औषधि से राम को रक्षित किया।
माता ने राम के माथे पर समंत्रक गंध लगाया। मंत्र जप करते हुए सुसिद्ध औषधि विशल्यकरणी से राम की रक्षा की -
औषधीं च सुसिद्धार्थां विशल्यकरणीं शुभाम् ।
चकार रक्षां कौसल्या मंत्रैरभिजजाप च।।
जिन चार मिश्रित औषधियों से लक्ष्मण के जीवन की रक्षा हुई थी उनमें से एक औषधि का प्रयोग कौसल्या माता अयोध्या में अपने बच्चों की रक्षा के लिए करती थीं। इसीलिए दिव्य विशल्यकरणी औषधि उनकी पूजा में हमेशा उपलब्ध रहती थी।विशल्यकरणी को गले या भुजा में बांधने से शरीर में धसा कांटा स्वत: निकल जाता है अथवा धसता ही नहीं।।यही गुण है इस औषधि का।
शरीर के भीतर पड़े शीशा या लौह के चूर्ण को भी यह बाहर कर देती है। अयोध्या के कौसल्या भवन में यह औषधि सुरक्षित पड़ी हुई थी।माता इसके गुणों को मंत्रों से बढ़ा लेती थीं।
औषधि में दिव्यता लाने के कुछ प्रकार होते हैं। इन प्रकारोंं को वैद्य या गृहस्थ पूर्ण करते थे। पुष्य नक्षत्र में भूमि का सिंचन, पुष्य में ही औषध वपन और एक दिन पूर्व अभिमंत्रण कर पुष्य में ही घर लाने का कार्य दिव्यता लाता है। ऐसे में औषधि का गुण सहस्त्र गुणित बढ़ जाता है।
अथर्ववेद में औषधियों को दिव्य बनाने की अनेक प्रक्रियाओं का वर्णन है। दिव्य औषधियां लाभ कमाने के लिए नहीं बल्कि मनुष्य के रक्षण के लिए होती हैं।
विशल्यकरणी का उपयोग वैद्य सुषेण ने संजीवनी, सावर्णकरणी और संधानी के साथ नस्य रूप में लक्ष्मण पर किया था।माता कौसल्या ने राम को वन के सर्पों, बिच्छूओं ,कीटों, विषैले जानवरों, वृक्षों से बचाने के लिये किया था। वे मंत्र कौन से थे इसे महर्षि ने गुप्त रखा .....फिर भी संकेत किया .......
प्लवंगा वृश्चिका दंशा मशकाश्चैव कानने ।
सरीसृपाश्च कीटाश्च मा भूवन् गहने तव ।।
अयोध्या की वैद्य माता कौसल्या की विशल्यकरणी लंका के युद्ध में भी राम के काम आती रही। माता द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद पर तो गहन शोध कार्य हो सकता है।
श्री राम नवमी जन्मोत्सव से पूर्व मंत्रज्ञा माता कौसल्या के प्रति मेरे मन में अमित पूज्य भाव उमड़ रहे थे जिसे प्रकट करने से अपने को रोक नहीं सका।
जयति मातः! कौसल्ये !!
"" कामेश्वरोऽयं प्रणमति मातः! ""
राघवों की मूर्च्छा और हनुमान के सञ्जीवनी अभियान
जब दोनों भाइयों सहित समस्त वानरसेना आहत मूर्च्छित पड़ी थी, तब जाम्बवान ने हनुमान को औषधियों का नाम बता कर लाने को भेजा।
श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं तथापि व्यथितेन्द्रियः।
पुनर्जातमिवात्मानं स मेने ऋक्षपुङ्गवः।।
ऋक्षवानरवीराणामनीकानि प्रहर्षय ।
विशल्यौ कुरु चाप्येतौ सादितौ रामलक्ष्मणौ।।
मृतसञ्जीवनीं चैव विशल्यकरणीम् अपि ।
सौवर्णकरणीं चैव सन्धानीं च महौषधीम्।।
लक्ष्मण भूमि पर पड़े थे, राघव राम ने विलाप करते हुये तीनों माताओं का नाम लिया कि मैं उन्हें क्या मुख दिखाऊँगा?
उपालम्भं न शक्ष्यामि सोढुं दत्तं सुमित्रया ।
किं नु वक्ष्यामि कौसल्यां मातरं किं नु कैकयीम्।।
एवमुक्तः स रामेण महात्मा हरियूथपः ।
लक्ष्मणाय ददौ नस्तः सुषेणः परमौषधम्।।
पर्वतों में नगाधिराज हिमालय की बड़ी प्रतिष्ठा रही। पौराणिक परम्परा में मेरु की रही। दक्षिण में आज भी संकल्प में मेरोः दक्षिणे पार्श्वे बोला जाता है। यह मेरु विराट भारत की भौगोलिक प्रसार व उसके केन्द्र का कूट है। रामायण लोककाव्य भी रहा।
शब्दविशारद यूथपति डॉक्टर सुषेण द्वारा लक्ष्मण का चिकित्सकीय परीक्षण(देहलक्षण व मनोविज्ञान, बंधु का self-suggestion द्वारा प्रबोधन)
राममेवं ब्रुवाणं तु शोकव्याकुलितेन्द्रियम् ।
आश्वासयन्नुवाचेदं सुषेणः परमं वचः ।।
शोक से व्याकुल इंद्रिय हुये राम को आश्वस्त करते हुये सुषेण ने कहा-
त्यजेमां नरशार्दूल बुद्धिं वैक्लब्यकारिणीम् ।
शोकसंजननीं चिन्तां तुल्यां बाणैश्चमूमुखे ।।
हे नरसिंह! बुद्धि पर क्लैब्यता लाने वाली इस चिंता का त्याग करें जो शोक की कारक है तथा युद्ध में बाण के समान ही घातक है।
[अब शब्द प्रयोगके साथ देखें]
नैव पञ्चत्वमापन्नो लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः।
नह्यस्य विकृतं वक्त्रं न च श्यामत्वमागतम् ।।
पञ्चत्वम् उसे कहा जिसमें आप की देह के पाँच तत्त्व अपने मूल में लीन हो जायें - मृत्यु। लक्ष्मिवर्धन कहा कि लक्ष्मण तो जीवनशक्ति को बढ़ाने वाले हैं। [एक अन्य निरूपण सीता को लक्ष्मी का रूप मान कर हो सकता है। वन में रहते हुये लक्ष्मण ने सीता की सेवकाई की थी, वे नहीं रहते तो सीता हेतु वन बहुत दुष्कर होता]
लक्ष्मण की मृत्यु नहीं हुई है, उनका रूप विकृत नहीं हुआ है, न ही उसमें मृत्युजनित कालिमा है।
सुप्रभन् च प्रसन्नं च मुखमस्याभिलक्ष्यते ।
पद्मरक्ततलौ हस्तौ सुप्रसन्ने च लोचने ।।
[सब ने वह स्तोत्र तो सुना ही होगा - प्रसन्नवदना सौभाग्यं ... । लक्ष्मी का एक नाम है रम्य मुख वाली। पहले लक्ष्मिवर्धन कहा, अब प्रसन्नं च कहते हैं]उनके मुख पर कांति है, वह रम्य है। पञ्जे कमलदल के समान आरक्त हैं (उनका वर्ण मलिन नहीं हुआ) और आँखें भी सुप्रसन्न हैं।
नेदृशं दृश्यते रूपं गतासूनां विशां पते।
विषादं मा कृथा वीर सप्राणोऽयमरिंदम ।।
[गतासून शब्द का प्रयोग देखें कि भगवद्गीता में भी भगवान कहते हैं - गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति। मृत्यु हेतु यह शब्द प्रयुक्त । राम 'विशां पते' हैं। विश् बहुत पुराना शब्द है, जब जनसाधारण को विश् कहा जाता था। वैश्य इसी से है। आरम्भ में समस्त जन वैश्य, उनमें से रक्षा हेतु निकले राजन्य क्षत्रिय और जटिल होते समाज व राजकर्म को दिशा देने हेतु हुये ब्राह्मण। श्रुति इसी को संकेतरूप में कहती है, ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण। साम बहुत ही विकसित व सूक्ष्म दशा है, जब केवल वाणी से ही नियन्त्रण व दिशा का बोध कराया जा सके। अस्तु। तो विश् कहते हैं प्रजा को, प्रजा कहते हैं संतान को, राम को कौसल्या-सु-प्रजा कहा गया है। राजा हेतु समस्त प्रजा संतान की भाँति होती है। विशाम् पते प्रजा को संतान के समान समझने वाला प्रजा का पति अर्थात राजा। राम को इस सम्बोधन द्वारा सुषेण उनके कंधों पर महत दायित्व का बोध कराते हैं।]हे राजन्, मृतक का रूप ऐसा नहीं दिखता।
हे अरिंदम अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाले (पुन: एक वैद्य का मनोवैज्ञानिक संकेत कि अभी तो शत्रु बचे हुये हैं, ऐसी दशा को प्राप्त होंगे तो उनका दमन कैसे करेंगे?) लक्ष्मण प्राणयुक्त हैं। आप विषाद न करें। विषाद वह अवस्था है जब आप का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। यह सामान्य दु:ख नहीं है। इस शब्द का प्रयोग भी संकेतक है।
आख्याति तु प्रसुप्तस्य स्रस्तगात्रस्य भूतले।
सोच्छ्वासं हृदयं वीर कम्पमानं मुहुर्मुहुः ।।
इतना कहने के पश्चात् चिकित्सक स्पष्ट लक्षणों की बात करता है। आख्यातो शब्द पर ध्यान दें, आज भी उत्तरप्रदेश में सरकारी शब्दावली का अङ्ग है - जाँच कर अपनी आख्या प्रस्तुत करें। आख्यान होता है आँखों देखी कहना, साक्षी हो कर कहना। रामायण और महाभारत आख्यान कहे गये, किसी अन्य शास्त्र को यह पद नहीं दिया है, इस कारण ही ये इतिहास हैं - इति ह आस - ऐसा ही हुआ!
भूमि पर पड़े प्रसुप्त वीर लक्ष्मण की हृदय की मुहुर्मुह अर्थात रह रह होने वाली धुकधुक और स+उत्+श्वास = सोच्छवास, आती जाती साँसें अपनी आख्या प्रस्तुत कर रही हैं [कि लक्ष्मण अभी भी लक्ष्मीवर्द्धन हैं, जीवित हैं।] सुषेण ने मृत्यु शब्द का प्रयोग तक नहीं किया।
विचार करें कि यहाँ तो शुभ कहना था कि आहत को कुछ नहीं हुआ, तब देश, काल व परिस्थिति को देखते हुये शब्दों पर इतना ध्यान है, अशुभ समाचार सुनाते समय चिकित्सक डॉक्टर किस प्रकार की मानसिक दशा में होते होंगे! डॉक्टरों का सम्मान करें, न हो पाये तो कटु न बोलें, अपमान न करें।
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